Sunday 22 December 2013

मीडिया है खुर्शीद की मौत का जिम्मेदार !

सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद अनवर की आत्महत्या के बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया के काम काज के तौर तरीकों पर एक बार फिर उंगली उठने लगी है। एक टीवी न्यूज चैनल पर कुछ दिन पहले मणिपुर की एक लड़की ने खुर्शीद अनवर का नाम लिया और कहा कि अनवर ने उसके साथ बलात्कार किया। लड़की का आरोप है कि वो एक दिन रात में अनवर के घर पहुंची , यहां खुर्शीद ने कोल्ड ड्रिंक में नशीली दवा मिलाकर उसे पिला दिया। दवा की असर की वजह से वो वहीं सो गई। सुबह नींद खुलने पर उसे पता चला कि रात में उसके साथ बलात्कार किया गया है। कुछ दिन से इस मामले में सोशल मीडिया में भी काफी बहस चल रही थी। हालाकि पहले इस बहस में खुद खुर्शीद ने भी हिस्सा लिया और खुली चुनौती दी कि इस मामले की जांच हो ताकि सच सामने आए। आत्महत्या के बाद उनके यहां से मिले पत्र में उन्होंने कहा है कि लड़की के साथ सेक्स सहमति से हुआ था, ये रेप नहीं था। बहरहाल ये खबर जब मीडिया में चली तो शायद वो बर्दाश्त नहीं कर पाए और ऐसा रास्ता चुना जिसे हम तो सही नहीं मानते।

बहरहाल आत्महत्या की कहानी अब कई दिशा में बदल गई है। आत्महत्या की खबर मिलने के बाद कुछ लोगों ने एक न्यूज चैनल को गरियाना शुरू कर दिया और कहाकि उनकी वजह से एक सामाजिक कार्यकर्ता आत्महत्या करने को मजबूर हो गया। वजह बताई गई कि चैनल पर एक तरफा स्टोरी चल रही थी, जिस अंदाज में स्टोरी चल रही थी, उसे देखकर कोई भी व्यक्ति खुद को अपमानित महसूस करता और कोई भी कदम उठा सकता था। बहस शुरू  हुई तो कहा गया कि सिर्फ टीआरपी के लिए चैनल ने इतना गंदा खेल खेला। इतना ही नहीं ये मसला काफी पुराना था लेकिन इसे एक साजिश के तहत कहानी को जानबूझ कर 16 दिसंबर को चलाया गया, क्योंकि 16 दिसंबर निर्भया की पहली बरसी थी, लिहाजा पूरे देश में लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। खुद खुर्शीद भी इस विरोध प्रदर्शन का हिस्सा रहे। लेकिन रात में जब चैनल ने उन्हें ही कटघरे में खड़ा किया और रेपिस्ट बता दिया, तो खुर्शीद बुरी तरह हिल गए। मैं भी इसी मत का हूं कि टीआरपीबाज मीडिया ट्रायल खुर्शीद अनवर को इतना गहरा सदमा दे गया कि उन्होंने मौत को गले लगाना ही बेहतर समझा।

खुर्शीद अनवर ने आत्महत्या के पहले जो पत्र लिखा, उससे तो मेरी आंखे खुल गईं। एक तरफ उन पर गंभीर आरोप थे, जिसकी वजह से वो आत्महत्या करने जा रहे थे। दूसरी ओर उन्होंने इस पत्र में सामाजिक बुराइयों का विरोध करते हुए अपनी इच्छा जताई कि मरने के बाद उन्हें दफनाया ना जाए, बल्कि उनका अंतिम संस्कार विद्युत शवदाह गृह मे किया जाए। ये अलग बात है कि उन्होंने इस पत्र में स्पष्ट कर दिया कि लड़की के साथ जो कुछ हुआ वो दोनों की सहमति से किया गया सेक्स था, उसे बलात्कार की श्रेणी में रखना गलत होगा। खुर्शीद ने ये भी खुलासा किया है कि उस दिन लड़की ने जरूरत से ज्यादा शराब पी ली थी। वो इतने नशे में थी कि कहीं जा नहीं सकती थी। इसलिए उसे अपने घर में रुकने को कहा। फिलहाल पुलिस ये तय नहीं कर पा रही है कि घर से बरामद तीन पन्नों की चिट्ठी सुसाइड नोट है या डायरी। यही वजह है कि पुलिस सीएफएसएल से चिट्ठी की जांच करा रही है।

महिलाओं का पूरा सम्मान करते हुए मैं कहना चाहता हूं कि जो कुछ दिखाई दे रहा है उससे कहीं हम महिलाओं और पुरुषों के बीच बड़ी खाई तो पैदा नहीं कर रहे हैं। लड़के लड़कियां पहले तो एक साथ घूमें फिरें, मौज मस्ती करें। फिर महीने दो महीने बाद आरोप लगा दें कि लड़के ने यौनशोषण किया ! मुझे तो ये बहुत ही खतरनाक ट्रेंड नजर आ रहा है। क्योंकि इस्लाम, हिंदू से लेकर हर तरह के धर्मों के कट्टरपंथियों से मोर्चा लेने वाला ये जांबाज,  कवि, शायर, चिंतक और समाजसेवी खुर्शीद बस मीडिया ट्रायल से इतना सहम गया कि उसने दुनिया ही छोड़ जाने का फैसला कर लिया। सच कहूं तो ये बड़ा खतरनाक वक्त है। माफ कीजिएगा, पर मुझे कहना है कि जो लड़की पिछले कई महीनों से जाने कहां-कहां रहती रही, जाने क्या-क्या कहती-करती रही, अचानक एक दिन आकर कहती है कि उसके साथ बलात्कार हुआ है, और मीडिया बिना कुछ जाने समझे उसके पीछे खड़ा हो गया। मेरा सवाल है कि यह लड़की तो निर्भया आंदोलन की अगुवा रही है, ऐसे में तो उसमें इतना साहस होना ही चाहिए था कि जिस दिन उसके साथ रेप हुआ, उसी दिन पुलिस के पास जाती और रिपोर्ट दर्ज कराती। पर क्या कहा जाए, आजकल का जो दौर है, जो कानून हैं, जो माहौल है, उसमें तो सिर्फ लड़की के कह भर देने से पुलिस आपको पकड़कर अंदर कर देगी और मीडिया आपको बलात्कारी घोषित कर देगा।

सोशल मीडिया को लेकर पहले भी देश में चर्चा होती रही है। कहा गया कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग हो रहा है। अभी हम इतने परिपक्व नहीं हुए हैं, इसलिए इतनी आजादी भी खतरनाक है। अब सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद अनवर की मौत के बाद सोशल मीडिया और इसकी विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगा है। वरिष्ठ आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल का कहना है कि मीडिया और सोशल मीडिया ट्रायल की जो प्रवृत्ति बनी है, वह गंभीर चिंता का मामला है। इस मामले में तो खुर्शीद के मित्रों और परिचितों का निष्कर्ष पर पहुंच जाना ज्यादा दुखद है। ये सिर्फ खुर्शीद का मामला नहीं है। मुझे लगता है कि समाज में फैसलों पर पहुंचने की हड़बड़ी है। लोगों में धैर्य नहीं है और भारी गुस्सा है। यहां कोई भी मामला आता है उसके बाद जिस तरह सोशल मीडिया एक राय बनाकर खड़ा हो जाता है, ये सिर्फ  गलत  ही नहीं बल्कि गंभीर भी है। इस पर सोशल मीडिया को न सिर्फ सोचने की जरूरत है, बल्कि देखना होगा कि कैसे इस पर रोक लगाई जा सकती है।
 
मैं खुर्शीद  साहब से कभी नहीं मिला, लेकिन उनके बारे ज्यादातर लोगों की राय पढ़ता  रहा हूं जो उन्हें नेक इंसान बताते रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार मनीषा पांडेय अपने फेसबुक वाल पर उनके बारे में लिखा है :

ड़कियों के सिर के पीछे एक आंख होती है और कोई उनकी पीठ भी देख रहा हो तो वो जान जाती हैं कि देखने वाले की नजर कैसी है। मर्द कितने भी शातिर क्‍यों न हों, औरत की नजर से नहीं बच सकते। हम भांप ही लेते हैं। और तिस पर अकेले रहने-जीने वाली लड़कियां तो और भी हजार गुना ज्‍यादा सावधान होती हैं। हमारे कान हमेशा चौकन्‍ने होते हैं। और अपनी उन तमाम चौकन्‍नी निगाहों और कानों से देखकर, भांपकर मैं कह रही हूं कि खुर्शीद संसार के उन कुछ बेहद चुनिंदा पुरुषों में से एक थे, जिनकी मौजूदगी में मैं खुद को बहुत सुरक्षित और निश्चिंत महसूस किया करती थी। और मैं ही नहीं, मुझे और उन्‍हें जानने वाली दर्जनों लड़कियां। मैं कई बार उनके घर में बिलकुल अकेले रुकी हूं। खाया-पिया, गप्‍पें मारी और भीतर वाले कमरे में जाकर सो गई। उनके घर में मेरा बिस्‍तर, सबसे अच्‍छी वाली तकिया, चादर सब फिक्‍स था। वो पिंक कलर की वादर कहीं भीतर आलमारी में रखी हो तो ढूंढकर लाते और कहते, ये रही तुम्‍हारी फेवरेट चादर।

मुझे कभी ये ख्‍याल भी नहीं आया कि मुझे कमरे का दरवाजा भी बंद करना चाहिए। इतनी निश्चिंत तो मैं किसी रिश्‍तेदार के घर भी नहीं हो सकती, जैसे उनके घर पर होती थी। जैसे पापा के साथ होती हूं। कमरा खुला है, लेकिन फिर भी सुबह दरवाजे पर नॉक करते। कहते, उठ जा बेटा, चाय बन गई। और मैं पांच मिनट और, दो मिनट और करती आधे घंटे तो और नींद मार ही लेती थी। जब भी मिलते तो सिर पर हाथ फेरते थे। बिटिया बुलाते थे। कभी नहीं लगा कि वो पुरुष हैं और मैं उनके लिए एक स्‍त्री हो सकती हूं। एक क्षण को भी नहीं। मेरे लिए वो दोस्‍त थे। पिता की तरह थे। मैं उनसे अपने पापा की तरह ही जिद कर सकती थी। मुझे अब भी यकीन नहीं और कभी नहीं होगा कि उन पर लगे आरोपों में कोई दम है। सब झूठ की फसीलें लगती हैं।

बहरहाल अब जो नुकसान होना था वो हो चुका है, पूरे मामले की जांच पुलिस कर रही है, सच्चाई भी सामने आ ही जाएगी। निर्भया बेटी के साथ जो कुछ हुआ उसकी तो जितनी भी निंदा हो वो कम है। लेकिन मेरा सवाल है कि इस घटना के बाद जिस तरह देश में महिलाँओं और पुरुषों ने एक साथ मिलकर एक सख्त कानून की वकालत की और संसद से कानून पास भी करा लिया, क्या खुर्शीद अनवर के मामले में भी  उसी तरह महिलाएं और पुरुष एक साथ एक  मंच पर आकर ये मांग करेंगे कि महज आरोप लगाने भर से आदमी पर इस तरह शिकंजा नहीं कसा जाना चाहिए ?

Thursday 28 November 2013

खुलासा : सोशल मीडिया का असली चेहरा !

कोबरापोस्ट का खुलासा सोशल मीडिया का सच्च : आई.टी. कंपनियां किस तरह से पैसे के लिए इसे इस्तेमाल करके लोगों की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर रही है।लंबे समय तक चले अंडर कवर ऑपरेशन में कोबरापोस्ट ने खुलासा किया है कि किस तरह से आई.टी. कंपनियां देश भर में सोशल मीडिया जैसे फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब की सहायता से नेताओं की लोकप्रियता को फर्जी तरीके से बढ़ाने के साथ साथ उनके विरोधी खेमे को बदनाम करने का काम धड्ड़ले से कर रही हैं।

कोबरापोस्ट के एक लंबे अंडर कवर ऑपरेशन ‘ब्लू वायरस’ में यह बात सामने आई है कि लगभग दो दर्जन आई.टी. कंपनियां देश भर में सोशल मीडिया पर ऑनलाइन रेपोटेशन मैंनेजमेंट का गोरख धंधा चला रही है। ये पैसे लेकर अपने ग्राहकों के लिए फेसबुक और ट्विटर पर फर्जी तरीके से फैन फॉलोविंग बढ़ाने और विरोधियों को बदनाम करने का काम करती है इनके लिए किसी शख्सियत की ऑनलाइन प्रतिष्ठता बढ़ाना या उनकी इज्जत उतारना बस एक क्लिक करने भर का काम है इनके ग्राहकों में नेता, राजनितिक पार्टियां, व्यापारिक घराने, एन.जी.ओ.  और घोटालों में फंसे नौकरशाह शामिल हैं। कोबरापोस्ट के एसोसिएट एडिटर  सैयद मसरूर हसन ने विरोधी पार्टी के एक कल्पित नेता के कारिंदा बनकर इन आई.टी कंपनियों से कहा कि नेताजी विधानसभा चुनाव से पहले सोशल मीडिया पर अपनी छवि बनाना चाहते हैं। इसके साथ साथ अपने विरोधी नेता की इज्जत उतारना चाहते हैं। उनका उद्देश्य आने वाले विधानसभा चुनाव अच्छे फासले से जीतना है ताकि वे पार्टी अध्यक्ष का विश्वास भी हासिल कर सके और लोकसभा टिकट उनकी झोली में आ जाए। इससे उनका केबिनेट मंत्री बनने का रास्ता भी साफ हो जाएगा। आपको मुंहमांगा पैसा मिलेगा।

 इन सभी कंपनियों ने नेताजी को चुनाव जिताने के लिए कई तरह के कामों को अंजाम देने की पेशकश की। इन सभी सेवाओं का सार इस प्रकार है:- 
Ø वे नेता जी के फेसबुक पेज, वेबसाइट पर फर्जी प्रोफाइल बना कर या खरीद कर लाखों की संख्या में लाइक्स बनाने और इस तरह फर्जी फॉलोवर बनाने का काम करेगें।
Ø अगर नेताजी के खिलाफ कोई गलत टिप्पणी करता है तो उस टिप्पणी को हटा देगें।
Ø वे नेताजी के विरोधी खेमे की इज्जत उतारेगें।
Ø इस तरह की गलत टिप्पणियों को दूसरे देशों जैसे अमेरिका, कोरिया इत्यादि से पोस्ट करेगें ताकि इसका पता ना चल सके कि यह काम कहां से किया जा रहा है।
Ø इस तरह के प्रचार के लिए ऐसे कंप्यूटरों का इस्तेमाल किया जाएगा जिन्हें जोड़कर बनाया गया हो और काम खत्म होने के बाद उन्हें नष्ट कर दिया जाएगा।
Ø इस तरह के काम के लिए वे प्रॉक्सी कोड का इस्तेमाल करेगें ताकि उनकी लोकेशन बदलती रहे और पता ना चल सके की यह काम कहां से हो रहा है।
Ø नेताजी और उनकी पार्टी के बारे में मुसलमानों के विचारों को बदलने के लिए वे मुसलमानों की फर्जी प्रोफाइल बनाएगें।
Ø वे नेता जी के प्रचार के लिए विडियो बनाएगें और उसे यूट्यूब पर अपलोड कर वाइरल करेगें।
Ø मतदान केंद्र पर पकड़ बनाने के लिए वे नेताजी को मतदाताओं के व्यवसाय, रिहाइश, उम्र, आमदनी, जाति और धर्म के हिसाब से आंकड़े देगें।
Ø वे बाहरी देशों के आई.पी एड्रेस का इस्तेमाल करेंगे ताकि वो नेताजी के ऑनलाइन प्रचार के लिए या उनके विरोधी खेमे के खिलाफ उल्टा प्रचार करने के लिए जो भी सामग्री सोशल मीडिया पर प्रकाशित करेगें उसके स्त्रोत का पता ना लग पाए।
Ø दूसरे लोगों के कंप्यूटर को हैक कर उसके आई.पी का इस्तेमाल इस तरह के गलत प्रचार के लिए करेगें।
Ø ट्राय के नियमों से बचने के लिए वे इंटरनेट पर एकमुश्त सैकड़ो हजारों की संख्या में एस.एम.एस भेजेगें। इसके लिए शॉर्ट कोड का इस्तेमाल करेगें ताकि भेजने वाले की पहचान पता न लग पाए।
Ø अपने काम का भुगतान वो सिर्फ कैश में लेंगे ताकि यह पता लगाना मुश्किल हो जाए कि उन्होंने नेताजी के कहने पर यह सब काला कारनामा किया था।

इन सब आई.टी से जुड़े प्रोफेशनल लोगों ने ऊपर जो जो कारनामे करने का वादा कोबरापोस्ट के खोजी पत्रकार सैयद मसरूर हसन से किया था वह सब उन कारनामों के सामने फीका पड़ जाता है जो उन्हीं जैसे पेशेवर लोगों ने करने को कहा। लगता है मानो हम किसी अपराधी से बात कर रहे हैं।

एक ऐसे ही प्रोफेशनल बिपिन पठारे है जो कोबरापोस्ट की छानबीन में सबसे धूर्त और निर्मम व्यक्ति के रूप में उभरा है। पठारे पैसे के लिए किसी भी हद तक नेताजी की मदद करने के लिए तैयार है, मसलन वह हमें मतदान केंद्रों के अनुसार मतदाताओं की जानकारी देने को तैयार है। यानि किस भाषा का, किस जाति का, किस धर्म का मतदाता किस गली में रहता है। उदाहरण के लिए इस तरह की जानकारी से वह हमें मुस्लिम मतदाताओं को मतदान से रोकने में मदद कर सकता है। इसके लिए वह दंगे की अफवाह फैलाने और आतंक फैलाने के लिए हैंड ग्रेनेड भी फोड़ सकता है। इसका सीधा सा मतलब है कि मुसलमान मतदाताओं के बदले फर्जी वोट डाले जा सकते हैं। उसका दावा है कि उसने प्रवीन ज़ारा नाम के एक नेता को चुनाव जिताया है। 

चलिए यह कैसे होता है हम उसी की जुबानी सुन लें:  “इधर प्रवीन ज़ारा जीत गया ना…  उधर हमलोगों ने क्या किया था मालूम है... एक एक जगह पे मुस्लिम वोट थे मुस्लिम तो नहीं डालेगें हमें मालूम  था पक्का … उधर 60% जो मुस्लिम वोट थे …  हमलोग ने कैसा किया उन्हें उधर दंगा किया …  एक थोड़ा सा हैंड बम होता है … बम वगैरह वो सब फोड़ा उधर उनके ही लोगों ने …  वहां कोई बाहर नहीं आया …  उनका 60% वोट आ गया … ये सब strategy  है ना ”. 

 आशा है निष्पक्ष चुनाव के बड़े-बड़े दावे करने वाला चुनाव आयोग यह सब सुन रहा होगा कि बिपिन पठारे   जैसे लोग किस प्रकार से अल्पसंख्यकों के मताधिकार का हनन कर रहे हैं।
 इसी तरह अभिषेक कुमार राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव से पहले एक बहुत ही अवमाननाजनक दुष्प्रचार करने की बात कर रहा है। वह दावा कर रहा है कि वह सोशल मीडिया पर मोदी के प्रचार का काम कर रहा है। और उसने हसन को यह सब अपने कंप्यूटर पर भी दिखाया।कोबरापोस्ट ने जिन कंपनियों के काले कारनामे को उजागर किया है उनमें से कई कंपनियां नरेन्द्र मोदी और भाजपा के लिए काम कर रही हैं।

ये कंपनियां जैसा दावा कर रही थी उसे परखने के लिए हमने प्रियदर्शन पाठक से मरक्यूरी एविएशन के फर्जी नाम से एक कंपनी के खिलाफ दुष्प्रचार करने का सौदा तय किया। यह सौदा 92,000 रूपए में तय हुआ। पाठक ने वाकई यह काम कर दिखाया। उसने मरक्यूरी एविएशन की वेबसाइट और तमाम अन्य वेबसाइटों पर हर तरह का दुष्प्रचार किया। जैसे कंपनी अपने यात्री को ठगती है, वह मनी लॉड्रिंग के काम में लगी हुई है, वह अपने संसाधनों को आतंकवाद के कामों में लगा रही है। कंपनी की वेबसाइट पर धमकी भरे मेल भी डाली गई। इस प्रचार को प्रभावी बनाने के लिए मजेदार कार्टूनों का जमकर इस्तेमाल किया गया है। पाठक को हमने 42,000 रूपए दो किस्तों में दिए जो उसने खुफिया कैमरे के सामने गिने। पाठक ने हमें सोशल मीडिया पर इस दुष्प्रचार के प्रिंटआउट भी दिए हैं।

इनमें से ज्यादातर कारनामे भारतीय दंड संहिता, आई.टी.एक्ट 2000, इनकम टैक्स एक्ट 1951 का उल्लंघन है। इन कानूनों के अनुसार आपत्तिजनक सामग्री या कार्टूनों का प्रकाशन मानहानि है, यह आई.पी.सी के तहत दंडनीय अपराध है। इंटरनेट कनेक्शन या डोमेन नेम के लिए फर्जी पहचानपत्र का उपयोग करना धोखाधड़ी है और आई.पी.सी की विभिन्न धाराओं के तहत दंडनीय भी है। इसी तरह से हैकिंग भी आई.टी एक्ट की धारा 66 के तहत दंडनीय है। अल्पसंख्यकबहुल क्षेत्र में बम विस्फोट करना या दंगों की अफवाह फैलाकर लोगों को मताधिकार से वंचित करना, मतदान केंद्रों पर कब्जा करना, आर.पी.ए. एक्ट 1951 की धारा 125 और 135A के तहत दंडनीय है। मतदान केंद्रों को लूटने की चर्चा करना या वोटों को खरीदना आई.पी.सी की धारा 120B के तहत दंडनीय है।

ये सब कानूनी बातें हैं लेकिन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल घृणा फैलाने और साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए किया जा रहा है। सोशल मीडिया का यह डरावना चेहरा बार बार नजर आ रहा है। भले वह मुजफ्फरनगर के दंगे हों या पूर्वोत्तर के प्रवासियों का भारत के कई शहरों से पलायन हो, समाज के ताने बाने को तार तार करने वाली इन घटनाओं में सोशल मीडिया की भूमिका अब पूरे देश के लिए चिंता का सबब बनते जा रही है। इसकी चर्चा न केवल सरकारी महकमों बल्कि समाचार माध्यमों में भी खूब होने लगी है।

ऑपरेशन ब्लू वायरस में जिन आई.टी कंपनियों के काले कारनामों को उजागर किया गया है उनके खिलाफ गहरी छानबीन होना जरूरी है। उनके खिलाफ उचित कानूनी कारवाई की जानी चाहिए। समय आ गया है कि सरकार इस चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो और एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में काम करे जो पूरी तरीके से सोशल मीडिया के दुरूपयोग को रोकने में कामयाब हो लेकिन इसके साथ ही विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी बचाए रखा जाए।  इस बात को बीते अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है जब सोशल मीडिया पर नेताओं पर टिप्पणी के आरोप में महाराष्ट्र की दो लड़कियों को गिरफ्तार किया गया था। इसी तरह से आंध्र प्रदेश में एक नेता के चित्र फेसबुक पर डालने के जुर्म में एक PUCL  कार्यकर्ता को गिरफ्तार किया गया था। इसी तरह से उत्तर प्रदेश सरकार ने रामपुर के एक दलित लेखक को आई.एस अधिकारी दुर्गा नागपाल के निलंबन पर सवाल उठाने पर गिरफ्तार कर लिया था।

 कोबरापोस्ट के इस ऑपरेशन ‘ ब्लू वायरस’ में एक बात और उभर कर आई है। सोशल मीडिया में प्रचार के मामले में मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा सबसे आगे है और साथ में उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी भी। जिनके लिए दर्जनों कंपनियां दिन रात काम कर रही है। सोशल मीडिया पर जुटाई गई यह लोकप्रियता कितनी विश्वसनीय है यह ऑपरेशन ब्लू वायरस से साफ हो जाता है बल्कि ऐसा झूठा प्रचार करने में लगे TRIAMS  के त्रिकम पटेल ने यह बात स्वीकार की है कि यदि यह बात जनता को पता लग जाए तो उसका भरोसा सोशल मीडिया पर परवान चढ़ी लोकप्रियता से हमेशा के लिए उठ जाएगा। त्रिकम पटेल की जुबानी सुनिए “ कहीं न्यूज चैनल को पता चल गया... कि भई ये लोग मंत्री लोग ऐसे मार्केटिंग कर रहे हैं.... जबरदस्ती मार्केटिंग कर रहा है.... जबरदस्ती ऐसे मार्केटिंग करता है… तो लोगों को दिल उतर जाता है.. ” त्रिकम पटेल की मानें तो बैंगलौर की आई.टी कंपनियों को 3% की आमदानी राजनीतिक पार्टियों के प्रचार कार्यों से हो रही है जिसमें भाजपा  का बहुत बड़ा योगदान है।

ऑपरेशन ब्लू वायरस के खुलासे से एक निर्विवाद निष्कर्ष निकलता है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल सामाजिक हितों के बजाय समाज को गुमराह करने में अधिक हो रहा है।

कोबरापोस्ट से साभार 

Tuesday 19 November 2013

बिहार : पत्रकारों को चोर बना रहे हैं नीतीश !

बिहार के पत्रकार मित्र से बात हो रही थी, काफी दिन बाद उनसे मिलना हो रहा था, लिहाजा तय हुआ कि प्रेस क्लब में ही मिलते हैं। तय  समय पर प्रेस क्लब में पहुंच कर कुछ पीने-खाने का आर्डर दिया गया और बात घर परिवार से शुरू होकर बिहार की पत्रकारिता पर पहुंच गई। पत्रकारिता पर बात शुरू होते ही मित्र की आंखे डबडबा गईं, मैं फक्क पड़ गया। ऐसा क्या है कि मित्र की आँख में आंसू आ गया। मैने पूछा.. हुआ क्या ? इतना गंभीर क्यों हो गए ? भाई जब मित्र ने बोलना शुरू किया तो फिर एक सांस में बिहार की राजनीति को दो सौ गाली दी । कहने लगे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार की पत्रकारिता को पूरी तरह दफन कर दिया है। अखबारों के मालिक विज्ञापन के लिए नीतीश के सामने घुटने टेक चुके हैं। अब नीतीश सरकार पत्रकारों को चोर बना रही है और उन्हें नगर पालिका के होर्डिंग्स आवंटित किए जा रहे हैं। ये सब सुनकर मैं तो हैरान रह गया, फिर मुझे भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैने मारकंडेय काटजू की वो टिप्पणी याद आई जो उन्होंने बिहार के लिए ही कही थी कि "बिहार में निष्पक्ष पत्रकारिता करना संभव ही नहीं है" ।

मुझे याद है कि पांच छह महीने पहले भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैन मारकंडेय काटजू ने कहा था कि बिहार में निष्पक्ष पत्रकारिता संभव ही नहीं है, तो इस बात पर मुझे हैरानी हुई, मैने पूर्व जस्टिस काटजू के इस बयान की कड़े शब्दों में निंदा की थी। मैने कई जगह इस विषय पर लेख भी लिखा और काटजू साहब को कटघरे में खड़ा किया। लेकिन आज बिहार की पत्रकारिता की जो तस्वरी सामने आ रही है, वो वाकई बहुत चिंताजनक है। वहां हालत ये है कि किसी संपादक की औकात नहीं है बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ अखबार में एक भी शब्द लिख सकें। वहां एक बड़े अखबार समूह के संपादक ने बस थोड़ी कोशिश भर की थी कि उनको पटना से अखबार ने बेदखल कर दिया। हालांकि वहां संपादक को जब पता चला था कि मुख्यमंत्री नाराज हैं तो बेचारे उनसे मिलकर सफाई दे आए थे, लेकिन मुख्यमंत्री ने माफ नहीं किया। अब सभी अखबार के संपादकों को पता है कि अगर बिहार में संपादक बने रहना है तो मुख्यमंत्री और उनकी सरकार से पंगा नहीं लेना है।

पत्रकार मित्र ने बताया कि बीजेपी नेता नरेन्द्र मोदी ने पटना के गांधी मैदान में सभा को सबोधित करते हुए नीतीश कुमार को अहंकारी बताया था। एक अखबार के पत्रकार ने अपनी रिपोर्ट में ये शब्द इस्तेमाल कर दिया। बता रहे हैं कि संपादक ने उसे उल्टा टांग दिया। कहने लगे तुम्हें तो नौकरी करनी नहीं है, हमारी नौकरी के दुश्मन क्यों बन रहे हो ? आप समझ सकते हैं कि अगर किसी अखबार का संपादक ही इस कदर मुख्यमंत्री का पालतू बन चुका हो तो बाकी स्टाफ के बारे में आसानी से समझा जा सकता है। इतनी बात करते-करते मित्र बिल्कुल उदास हो गए, कहने लगे बस ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूं कि किसी तरह पटना से मुक्ति मिल जाए। बहरहाल मैने उन्हें मित्रवत सुझाव दिया कि भाई जब तक दूसरी जगह बात ना हो जाए, ऐसा वैसा कोई कदम मत उठाना।

संपादकों की बात करते-करते उन्होंने वहां के पत्रकारों के बारे में बताना शुरू किया। कहने लगे कि बिहार में जब पत्रकारों ने देखा कि उनके मालिक और संपादक ही सरकार के सामने दुम हिला रहे हैं, तो वो भला शेर क्यों बनें ? पत्रकारों ने भी शुकून से नौकरी का रास्ता अपना लिया। बता रहे हैं कि पटना में नगर पालिका ने सारे होर्डिंग्स का ठेका पत्रकारों को दे दिया है। पत्रकारों ने उनकी औकात के हिसाब से होर्डिंग्स दिए गए हैं। बड़े ग्रुप के अखबार या चैनल में हैं तो ऐसे पत्रकार को 20 से 25 होर्डिंग्स दिए गए हैं। उसके बाद 15, 10 और कुछ को पाच- सात से ही संतोष करना पड़ा है। पहले पत्रकारों को एक होर्डिंग्स के लिए सालाना 50 रुपये देने पड़ते थे। पत्रकार मित्र इस होर्डिंग्स को 15 से 25 हजार रुपये महीने में दूसरों को बेच दिया करते थे। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि पिछले दिनों नगर पालिका ने होर्डिंग्स के किराए को रिवाइज किया और इसका किराया 50 रुपये सालाना से बढ़ाकर 200 रुपये सालाना कर दिया। पत्रकार लोगों ने इसे लोकतंत्र पर खतरा बताया और इस मामले को लड़ने के लिए "सुप्रीम कोर्ट" चले आए। ये अलग बात है कि कोर्ट को पता चल गया कि ये धंधेबाज पत्रकार हैं, लिहाजा कोर्ट ने राहत नहीं दी।

अच्छा पत्रकारों का ये गोरखधंधा जानकर आपको लग रहा है कि इसमें वही गली मोहल्ले छाप पत्रकार शामिल होंगे। माफ कीजिएगा ऐसा नहीं है। चलिए आप से ही एक सवाल पूछते हैं आप इलेक्ट्रानिक मीडिया में किस-किस चैनल का नाम जानते हैं ? मैं समझ गया कि आप किस - किस चैनल का नाम ले रहे हैं। राष्ट्रीय चैनल हो या फिर क्षेत्रीय,  हिंदी में हो या अंग्रेजी में, या फिर भोजपुरी में ही क्यों ना हो.. ज्यादातर चैनल के पत्रकार इस गोरखधंधे में बराबर के हिस्सेदार हैं। चैनल का नाम इसलिए पहले लिया कि आप सब जानते हैं कि टीवी चैनल के पत्रकारों का वेतन ठीक ठाक है, लेकिन बेईमानी के माल की बात ही कुछ और होती  है । चैनल का जब ये हाल है तो अखबारों के पत्रकार किस स्तर पर होर्डिंग्स के लिए मारा मारी कर रहे होंग, ये आसानी से समझा जा सकता है। वैसे वहां से छपने वाले अखबारों के पत्रकारों की ज्यादा मौज है, बाहर से आने वाले अखबार की कुछ कम है, लेकिन चोरी में वो भी शामिल हैं।

ऐसी ही शिकायत मिलने पर भारतीय प्रेस परिषद के चेयरमैने मारकंडेय काटजू ने बिहार की पत्रकारिता पर तीखा बयान देने के साथ ही तीन पत्रकारों की एक कमेटी बनाई और पूरे मामले की जांच कर रिपोर्ट देने को कहा। बताते हैं कि पत्रकारों की ही कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया है कि बिहार में निष्पक्ष पत्रकारिता करना असंभव है। इस टीम ने नीतीश सरकार की तुलना आपातकाल से की है। कहा जा रहा है कि इमरजेंसी के दौरान स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता पर जिस तरह सेंसरशिप लगी हुई थी, वही स्थिति इस समय नीतीश सरकार के कार्यकाल में भी है। आज बिहार में ज्यादातर पत्रकार घुटन महसूस कर रहे हैं। विज्ञापन के लालच में मीडिया संस्थानों को राज्य सरकार ने बुरी तरह अपने चंगुल में जकड़ रखा है। हालत ये है कि पत्रकार स्वतंत्र और निषपक्ष खबर लिख नहीं पा रहे हैं। बहरहाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने सुझाव दिया है कि विज्ञापन देने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी का गठन किया जाना चाहिए जो विज्ञापन जारी करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र हो, पर नीतीश इस सुझाव को भला क्यों मानेंगे ? अब समझ गए ना यही है नीतीश के सुशासन का असली और बदबूदार चेहरा !



Wednesday 25 September 2013

न्यूज रूम का पारा पचास के पार !

जकल न्यूज रूम में बहुत तनाव है, इस तनाव का असर न्यूज रूम के साथियों के चेहरे पर आसानी से पढ़ा जा सकता है। अच्छा ऐसा नहीं है कि ये तनाव किसी एक न्यूज चैनल के दफ्तर में है, सुन रहा हूं कि लगभग सभी चैनलों के हालात एक से हैं। मित्रों से बात होती है तो उनका दर्द सुनकर सच कहूं तो रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं। आप सब को पता है कि आजकल मंदी की आड़ में न्यूज चैनलों में बड़े पैमाने पर छटनी हो रही है। जो छटनी के शिकार हुए वो तो सड़क पर आ जाने से दुखी हैं ही, लेकिन जो बच गए, वो उनसे भी ज्यादा परेशान हैं या यों कहिए कि परेशान किए जा रहे हैं। मेरा मानना है कि काम के दौरान गलती होना और संपादक की डांट सुनना दोनों ही काम का एक जरूरी हिस्सा है, लेकिन अब गलती होने पर सबसे बड़ा संपादक भरे न्यूज रूम में मां - बहन की गाली देने लग जाए तो उसके तनाव को भी आसानी से समझा जा सकता है।  

ज्यादातर न्यूज चैनलों में इन दिनों एक ऐसा माहौल बना हुआ है कि कब किसकी नौकरी चली जाएगी, कोई भरोसा नहीं है। किसी को ये लग रहा हो कि उसका ट्रैक रिकार्ड बहुत बढिया है, वो अच्छा काम करता आ रहा है, इसलिए उसका कुछ नहीं होगा तो बहुत बड़ी गलत फहमीं में है। हर न्यूजरूम से पत्रकारों की छुट्टी हो रही है। चलिए छुट्टी हो जाने के बाद सड़क पर आए पत्रकार अपने आगे की राह तलाशने में लगे हुए हैं। कुछ को मिल भी गई, कुछ की बात चीत पाइप लाइन में है, हां कुछ निराश भी हैं, पर अपनी क्षमता के मुताबिक लगे तो हुए हैं। लेकिन सबसे ज्यादा शर्मिंदगी उन्हें झेलनी पड़ रही है, जिनकी बच गई है। बात - बात में उन्हें बताया जा रहा है कि ऐसा नहीं है कि तुम बहुत काबिल हो, इसलिए रह गए। सुरेन्द्र और गजेन्द्र ( काल्पनिक नाम ) तुमसे बेहतर काम जानते भी हैं और करते भी रहे हैं, चाहता तो उन्हें रोककर तुम्हारी छुट्टी कर देता। लेकिन मैने तु्म्हे मौका दिया है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि सुरेन्द्र और गजेंद्र बढिया काम कर रहे थे, ये बात संपादक जी लोग जब खुद मान रहे हैं, तो उनकी छुट्टी क्यों कर दी ?

खैर ये सामान्य बात है, ऐसा होता रहता है। कोई आदमी काम बहुत अच्छा जानता हो और लेकिन उसका चेहरा बाँस को पसंद ना हो तो इससे भी संस्थान के काम काज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। काम ना जानता हो, लेकिन चेहरे पर चमक हो, इससे उसे देखकर बाँस के चेहरे पर भी चमक रहती है और संस्थान का काम चलता रहता है, गुणवत्ता भले प्रभावित हो। वैसे भी आजकल कामयाबी का पैमाना गुणवत्ता रह भी नहीं गया है। बता रहे हैं कि अब न्यूज रूम में अलग तरह का संकट है। संस्थान को जिस काम के लिए आदमी चाहिए, वो काम जानने वाले की छुट्टी हो गई, जो लोग बचे हैं और वो जो काम जानते हैं, उस काम की अब जरूरत ही नहीं रह गई। एक जमाना था चाहे समाचार पत्र हों या फिर चैनल हर जगह एक बात होती थी, कि आप विशेषज्ञ बनें। किसी भी एक विषय की भरपूर जानकारी होनी चाहिए। लेकिन अब ऐसा नहीं है, कहा जा रहा है कि आप 36 नंबर के "पाना" बनें, मतलब जब जहां जरूरत हो, वहां आप फिट हो सकें। खैर पाना बन रहे हैं, थोड़ा समय लगेगा।

बात काफी पुरानी है, पर मुझे आज भी याद है। जर्नलिज्म की शुरुआत कर रहा था, बड़े-बड़े को अपनी लेखनी से ठिकाने लगाता रहता था, कई बार हमारे स्थानीय संपादक खबर छापने से मना कर देते तो उनसे सवाल जवाब कर लेता था। बात मालिकों तक पहुंचती थी, फैसला कभी उनके हक तो कभी मेरे हक में, ये सब चलता रहता था। एक दिन वो संपादक मुझे  डिनर पर ले गए और समझाने लगे। उम्र में छोटे हो,  इसलिए समझा रहा हूं, ये बात कोई संपादक तुम्हे डिनर कराते हुए नहीं समझाएगा। जो तेजी है, वो भूल जाओ, ज्यादा खतरा लेना सही नहीं है, समय खराब आया तो कोई अगल बगल खड़ा नहीं दिखाई देगा। इसी बात चीत में उन्होंने एक बात कही और ये भी समझाया कि इस मंत्र को गांठ बांध लो। कहा कि रिपोर्टर बनने की कोशिश मत करो, स्टाफर बनो ! मैं समझा नहीं, पूछ लिया कि क्या कहा आपने, रिपोर्टर नहीं स्टाफर बनो। बोले रिपोर्टर तो कोई भी बन सकता है, स्टाफर बनना मुश्किल है। बताने लगे कि स्टाफर वो होता है जो संस्थान की जरूरत के मुकाबले संस्थान के मालिक की इच्छा को प्रमुखता देता है। मालिक आपको कहेगा नहीं कि फलां काम ऐसे होना चाहिए, ये आपको खुद समझना होगा। अगर आप समझ गए तो कामयाब हैं, वरना खुद झेलोगे। आज लग तो रहा है कि उनकी बातों में दम था, लेकिन पछतावा नहीं है।  

अब देखिए, दो महीने पहले की बात है, एक बड़े चैनल में वहां के वरिष्ठ पत्रकार के खिलाफ ऐसा माहौल बनाया कि उन्हें चैनल ही छोड़ना पड़ा। दरअसल किसी भी चैनल में हर वो  आदमी संपादक के निशाने पर रहेगा, जो संपादक से ज्यादा जानकार है या फिर उसका चेहरा संपादक के मुकाबले अधिक टीआरपी वाला है। अगर ऐसा है तो समझ लीजिए कि फिर  आपकी खैर नहीं, आप हमेशा संपादक के निशाने पर ही रहेंगे। हालात ऐसे बन जाएंगे कि एक ना एक दिन आपको जाना ही होगा। या तो फिर संपादक के सामने समर्पण करना होगा, उसे ये अहसास दिलाना होगा कि संपादक जी जो कह रहे हैं वो ही अंतिम सत्य है। उसके आगे पीछे सब गलत है। साफ साफ कहूं तो आपको ये साबित करना होगा कि आप पूरी तरह मूर्ख थे, वो तो संपादक के सानिध्य में आकर थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना सीख गए। अगर ये संपादक आपको ना मिले होते तो आज आप कहीं भठ्ठे पर मजदूरी करके किसी तरह पेट पाल रहे होते।  अगर ये क्वालिटी आप में है तो फिर घबराने की कोई जरूरत नहीं है। ऐड़ा बनकर पेडा़ खाते रहिए।

अखबारों का हाल और बुरा है। किसी भी अखबार के संपादक से बात कीजिए, वो स्वीकार करते हैं कि आदमी की कमी है, सीनियर और जानकार की तो बहुत ही ज्यादा जरूरत है। तो साहब रखिए ना, बहुत सारे लोग तो हैं, जो अच्छा काम जानते हैं, कर सकते हैं। लेकिन नहीं रख रहे हैं। वजह बताते हैं कि रुपया कमजोर होने से सबसे ज्यादा मुश्किल समाचार पत्रों को ही तो हो रही है। अखबारी कागज बाहर से मंगाने पड़ते हैं, कहा जा रहा है कीमत लगभग दोगुना हो गई है, रुपया यूं ही कमजोर होता रहा तो छोटे मोटे अखबार तो बंद ही हो जाएंगे। इस हालात में कहा जा सकता है कि अखबारों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। भाष्कर जैसे बड़े ग्रुप को अगर अपने एडिशन बंद करने पड़ रहे हैं तो दूसरे अखबारों की हालत को आसानी से समझा जा सकता है। इन हालातों में आप समझ सकते हैं कि अखबारों के दफ्तर में भी टीवी के मुकाबले तनाव कोई कम नहीं है। वैसे एक बात बताऊं, अखबारों  में गाली - गलौज तो कामकाज ही एक हिस्सा है। यहां ये सामान्य बात है।





  

Thursday 29 August 2013

हां मैं दे रहा हूं "सत्याग्रह" को फुल मार्क्स !

फिल्म सत्याग्रह जिसमें आपको " स्टार के झुंड " दिखाई देगें। ये फिल्म रिलीज तो 30 अगस्त यानि कल होगी, लेकिन मैं फिल्म के रिलीज होने के एक दिन पहले ही इसकी समीक्षा कर दे रहा हूं, वरना कल तो आपको फिल्मों की समीक्षा करने वाले गुमराह कर देगें। वजह अब समीक्षा फिल्म देखकर उसकी गुणवत्ता के आधार पर तो की नहीं जाती, बल्कि फिल्म के निर्माता, निर्देशक और कलाकारों से संबंधों के आधार पर उसे नंबर दिए जाने लगे हैं। अब फिल्म में अमिताभ बच्चन हैं तो किसी समीक्षक की हैसियत ही नहीं है कि फिल्म को खराब नंबर दे, लेकिन फिल्म के प्रमोशन में भेदभाव को लेकर कुछ चैनलों में जरूर नाराजगी है। देखिए टीवी चैनल का फार्मूला हे, सबसे पहले और फिल्म का सबसे बड़ा कलाकार उसके ही स्टूडियो में होना चाहिए। जाहिर है जहां अमिताभ बच्चन सबसे पहले गए होंगे, वहां सत्याग्रह को अच्छे नंबर मिलेगे, जहां बाद में गए होंगे, वहां कुछ नंबर तो कटेगा ही। जहां नहीं गए होंगे वहां क्या होगा, ये आसानी से समझा जा सकता है। हालाकि मैने अभी पिक्चर नहीं देखी है और कल रिलीज हो रही इस पिक्चर को देखने का समय भी मेरे पास नहीं है, फिर भी मैं आज ही इसे पांच में पांच यानि फुल मार्क्स दे रहा हूं। अब आप कह सकते हैं कि ये तो बेईमानी है, तो मेरा आपसे सवाल है, जब पिक्चर रिलीज हुए बगैर फिल्म के निर्माता प्रकाश झा ने ताल ठोक कर कह दिया कि उनकी फिल्म " सत्याग्रह " एक हजार का कारोबार करेगी और सब लोग खामोश हैं, तो मेरे फुल मार्क्स देने पर भला आप कैसे हल्ला कर सकते हैं ?

वैसे ईमानदारी की बात बताऊं ! अमिताभ बच्चन जैसा महानायक कई हजार साल बाद पैदा होता है। मैं तो अपने को खुदनसीब मानता हूं कि उनकी पिक्चरों को देखते हुए बड़ा हुआ हूं। अब ये अलग बात है कि मेरे पैदा होने के तीन साल बाद ही यानि 1969 में ही अमिताभ बच्चन ने सात हिंदुस्तानी से फिल्मों की शुरुआत कर दी, लेकिन उनका अच्छा समय तब आया जब मैं फिल्मों को कुछ जानने समझने लगा। यानि 1973-74 के बाद से। अब तक अमिताभ को देख रहा हूं। मेरे जेहन में ऐसा कोई किरदार नजर नहीं आता है जो अमिताभ ने ना निभाया हो। अमिताभ के फिल्मों को मैं क्या गिनाऊं, बच्चा बच्चा जानता है। उस दौर में आज की तरह मीडिया भी नहीं थी, जो बताती कि ये पिक्चर बहुत अच्छी है और ये बहुत बुरी। अमिताभ उस दौर के कलाकार हैं, जब उनके बोले गए डायलाग देश और दुनिया में बच्चा-बच्चा बोलता रहता था। आज फिल्मों को बढिया बताने के लिेए मीडिया ने अलग ही पैमाना तैयार कर लिया है। फलां फिल्म सौ करोड़ के क्लब मे शामिल हो गई, फलां फिल्म ने दो सौ करोड़ कमाए। ये अलग बात है कि 200 करोड कमाने वाली फिल्म को लोग गाली दे रहे हैं। बहरहाल अमिताभ की हर आने वाली पिक्चर को इसलिए भी देखना जरूरी है ताकि अमिताभ बच्चन के बनाए जा रहे फिल्मी इतिहास के हम भी गवाह रहें। आने वाली पीढी के सामने गर्व से कह सकें कि पिक्चर तो हमारे जमाने में बनती थी। बताइये अब अगर हम इस पिक्चर को पांच में पांच दे रहे हैं तो इसमें क्या गलत है।

अच्छा सत्याग्रह तो इसलिए भी देखना जरूरी है कि यहां स्टार नहीं स्टारों को पूरा झुंड है और सभी एक से बढ़कर एक। अमिताभ को छोड़ भी दें तो क्या आप अजय देवगन को नहीं देखने जाएंगे, मनोज वाजपेयी पर दांव नहीं लगाएंगे। फिर करीना को भी छोड़ देंगे क्या ? इसके अलावा अमृता राव, अर्जुन रामपाल की क्या बात है ? वैसे मल्टीस्टार को लेकर फिल्म बनाई गई है, लेकिन पूरी कहानी करीना के ही इर्द गिर्द घूमती रहती है। मेरे लिए करीना को देखना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि फिल्म में वो एक तेजतर्रार टीवी जर्नलिस्ट है। मैं देखना चाहता हूं कि जर्नलिस्ट जिस तरह की मुश्किलों से दो-चार होते हैं, प्रकाश झा वहां तक पहुंच पाए भी हैं या नहीं। वैसे तो करीना सत्याग्रह कर रहे लोगों की आवाज को दूर दूर तक पहुंचाने और लोगों को जगाने का काम कर रही है। अगर मैं कहूं कि करीना की रिपोर्ट की वजह से ही ये आंदोलन इतना बड़ा हो गया तो गलत नहीं होगा। फिल्म रिलीज तो कल होगी, लेकिन सत्याग्रह को लेकर कुछ विवादों की चर्चा टीवी चैनलों से शुरू होकर राजनीतिक गलियारे तक पहुंच गई है। कहा जा रहा है कि ये फिल्म बापू के सत्याग्रह पर नहीं बल्कि अन्ना के सत्याग्रह पर आधारित है। ये भी कहा जा रहा है कि देश में फैले भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह से अन्ना ने अपने आंदोलन के जरिए सरकार को हिला दिया और पूरे देश को तिरंगे के नीचे ला खड़ा किया, कुछ ऐसी कहानी सत्याग्रह की है। भ्रष्ट व्यवस्था पर चोट करते हुए अमिताभ की आक्रामक अदाकारी पर निश्चित ही सिनेमा हाल तालियां की गडगड़ाहट से गूंज उठेगा। 

हालाकि जो इस फिल्म की यूएसपी है, बेचारे निर्माता निदेशक उसी से हाथ झाड़ते नजर आ रहे हैं। मेरे ख्याल से तो उन्हें तो ठोक कर कहना चाहिए था कि हां इसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई गई है, अन्ना के आंदोलन से भी फिल्म प्रभावित है। पर उन्हें लगता है कि मीडिया ने अगर इस फिल्म को अन्ना आंदोलन से जोड़कर प्रचारित करना शुरू किया तो कहीं सरकार और संसद के कान ना खड़े हो जाएं और बेवजह फिल्म संकट में पड़ जाए। इसलिए लगभग सभी टीवी चैनलों पर फिल्म के प्रमोशन के दौरान प्रकाश झा ने साफ कहाकि यह फिल्म कहीं से भी अन्ना आंदोलन से प्रभावित नहीं है। सफाई देते हुए उन्होंने यहां तक कहा कि इस फिल्म कहानी तो फिल्म "राजनीति" के साथ ही लिखी जा चुकी थी। वैसे हम सब जानते हैं कि अमिताभ किसी तरह भी राजनीति में हिस्सा नहीं लेते हैं, वो सिर्फ फिल्म में एक किरदार निभा रहे हैं। लेकिन इस समय गांधी परिवार से उनकी थोड़ी दूरी बनी हुई है, इसलिए वो भी नहीं चाहते कि बेवजह मामले को तूल दिया जाए।  वैसे तो अगर बात सिर्फ अन्ना की होती तो मुझे नहीं लगता कि अमिताभ या प्रकाश झा को ये कहने में कोई दिक्कत होती कि फिल्म इसी आंदोलन से प्रभावित है। मुश्किल ये है कि इस आंदोलन में कुछ ऐसे बदजुबान लोग थे, जिन्होंने मर्यादाओं को ताख पर रख दिया और गाली गलौज की भाषा शुरू की। यही वजह है कि आंदोलन भी बिखर गया। बहरहाल अमिताभ और प्रकाश कुछ भी दावा करें, लेकिन मेरा तो मानना है कि ये फिल्म निर्भया (मामले), महात्मा गांधी और अन्ना हजारे की याद जरूर दिलाएगी।
  
हां भाई ! आजकल सनीमा में गाना - बजाना पर भी बहुत जोर होता है। जानते हैं, ठंडा- ठुंडी गाना भी लोग पसंद नहीं करते। दर्शकों का चाहिए आयटम सांग। अब देखिए भ्रष्टाचार और अन्ना आंदोलन से प्रेरित फिल्म में भला आयटम सांग का क्या मतलब ? लेकिन नहीं साहब आयटम का तड़का ही तो फिल्म को आजकल सुपर डुपर बनाता है। इसीलिए अब इस फिल्म में ‘अय्यो जी हमरी अटरिया में’ जैसा आयटम सांग शामिल कर दिया गया है। फिल्म में आयटम सांग जोड़े जाने की बात पर सफाई देते हुए प्रकाश झा कहते हैं कि यह गीत भ्रष्ट लोगों के मनोविज्ञान को समझने में मददगार होगा। ‘सत्याग्रह’ में यह गाना भ्रष्ट लोगों के दबदबे और उनकी मिली भगत का माहौल दिखाएगा। इसीलिए गाने के बोल जानबूझ कर व्यंग्य वाले रखे गए हैं। इस गाने में मॉडल नताशा के साथ फिल्म में लीड रोल कर रहे अजय देवगन की भी एक झलक दिखेगी। हां एक अच्छी बात और , सदी के महानायक अमिताभ बच्चन अपनी मधुर आवाज का जादू बिखेरेगें। इसमें वो एक भजन गा रहे हैं। अमिताभ भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले एक व्यक्ति के किरदार को पर्दे पर साकार कर रहे हैं। इसलिए ‘रघुपति राघव राजा राम’ को अपनी सुमधुर आवाज देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर रहे हैं।

अब आखिरी बात ! फिल्म अभी रिलीज नहीं हुई, लेकिन इस बात पर जरूर बहस शुरू हो गई है कि ये फिल्म कमाई कितना करेगी। सलमान की दबंग ने सौ करोड की कमाई की तो पूरी इंडस्टी में हल्ला मच गया। सलमान का जवाब दिया शाहरुख ने चेन्नई एक्सप्रेस से। उनकी फिल्म ने दो सौ करोड की कमाई की। हांलाकि चेन्नई एक्सप्रेस की कमाई की वजह कुछ और भी है। पहला तो ये कि फिल्म फेस्टिव सीजन पर रिलीज हुई, इसके अलावा रिलीज होने के दौरान काफी छुट्टियां रहीं, जिसकी वजह से फिल्म ने कमाई तो बेहतर की, लेकिन पैसे के साथ जो गाली मिल रही है, शायद शाहरुख खान के पास उस गाली का कोई एकाउंट नहीं है। मतलब चेन्नई एक्सप्रेस पर लोग हंसते हुए सवार तो हुए लेकिन रोते हुए उतरे। उन्हें लगा कि इस एक्सप्रेस में उनकी जेब कट गई। वैसे सच कहूं कि जब आजकल फिल्मों की कामयाबी का पैमाना उसकी कमाई से है, तो मुझे लगता है कि सत्याग्रह वाकई रिकार्ड तोड़ देगी। बहरहाल प्रकाश झा ने एक हजार करोड़ कमाई की बात की है, चलिए उनको शुभकामनाएं दे रहा हूं, लेकिन हां मुझे लगता है कि फिल्म देखकर कम से कम दर्शक गाली देते हुए सिनेमा हाल से बाहर नहीं आएंगे। बाकी कल देखिए पिक्चर !






Sunday 11 August 2013

पटरी पर आते ही डिरेल हुई चेन्नई एक्सप्रेस !



शाहरूख खान और दीपिका की बात बाद में करुंगा, पहले फिल्म के निर्देशक रोहित शेट्टी से पूछना चाहता हूं कि आप ने फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस क्या सोच कर बनाई है ? आप एक्शन मूवी बनाना चाहते थे, रोमांस दिखाना चाहते थे, कहानी पर फोकस था, काँमेडी के जरिए दर्शकों में स्थान बनाना चाहते थे ? आखिर आप करना क्या चाहते थे ? सच कहूं पिक्चर क्यों बनाई और किसके लिए बनाई गई, यही साफ नहीं है। बस फिल्म चल रही है, शाहरुख और दीपिका के दिवाने सीटी बजा रहे हैं, सबसे ज्यादा उत्तर भारत में दर्शक उस जगह पर ताली ठोंकते हैं, जहां फिल्म में तमिल भाषा में गुटरगूं हो रही है, जबकि ये संवाद उनकी समझ में भी नहीं आ रहा है। बहरहाल अगर फिल्म की कामयाबी का पैमाना ये है कि फिल्म सौ करोड़ के क्लब में शामिल हो गई ? या फिल्म की ओपनिंग 33 करोड़ से हुई है, फिर तो मुझे कुछ नहीं कहना है, लेकिन अगर बात मेरिट की हो, बात कलाकारों के प्रदर्शन की हो, बात कहानी की हो तो इस पैमाने पर यह फिल्म प्रशंसकों की कसौटी पर खरी नहीं उतरी। हम यूं कहे कि पटरी पर आते ही डिरेल हो गई चेन्नई एक्सप्रेस तो गलत नहीं होगा।  

मैं तो फिल्म के बारे में एक सामान्य दर्शक के तौर पर ये बात कह रहा हूं। लेकिन बहुत सारे फिल्म समीक्षकों को मैने पढ़ा, ज्यादातर ने इस फिल्म को पांच में से सिर्फ दो स्टार दिए हैं। माफ कीजिएगा मैं नौसिखिए समीक्षकों की बात नहीं कर रहा हूं, मैं प्रोफेशनल्स की बात कर रहा हूं, जो फिल्म और उसकी तकनीक को बखूबी समझते हैं। वैसे तो आजकल नौसिखिए भी समीक्षा करने लगे हैं, जो सिनेमा का "सी"  जानते नहीं और चेन्नई के "सी" की बात कर पांच में चार स्टार दे रहे हैं। बहरहाल इसमें इन बेचारे गरीब समीक्षकों की कोई गलती नहीं है, दरअसल फिल्म का बैनर ही इतना बड़ा है कि उन्हें लगता है कि फिल्म को अगूंठा दिखाया तो कहीं मीडिया वाले उन्हें ही ना अगूंठा दिखा दें। फिर रोहित शेट्टी का निर्देशन, हीरो शाहरुख खान और हिरोइन दीपिका हो तो भला कैसे कम स्टार दे सकते हैं। इतने बड़े-बडे नामों पर ही कुछ समीक्षक गदगद हो जाते हैं। खैर कुछ सी ग्रेड समीक्षक इसलिए भी फिल्म को चार पांच स्टार दे देते हैं कि क्योंकि उन्हें थियेटर में नींद बहुत अच्छी आई होती है।
 
मैं तो यही कहूंगा कि कुल मिलाकर चेन्नई एक्सप्रेस फिल्म की मिली जुली प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। एक ख़ास दर्शक वर्ग को फ़िल्म जरूर पसंद आ सकती है, लेकिन इस फिल्म की कॉमेडी एक बड़े दर्शक वर्ग को बिल्कुल अपील नहीं कर पाई। अब इस फिल्म का जितना प्रमोशन शाहरूख खान ने किया है, उससे कुछ तो फायदा होना ही था। फिर कुछ इमोशनल कारण भी है, यानि शाहरुख की स्टार पावर के साथ ही ईद जैसे त्यौहार पर फिल्म दर्शकों के बीच आई है, इसलिए भी अच्छी ओपनिंग मिलनी ही थी। लेकिन मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि ये फिल्म उत्तर भारत यानि यूपी, बिहार, राजस्थान, पंजाब, हिमाचल, मध्यप्रदेश में ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाएगी। अब अगर मैं फिल्म की खामियां गिनाने लगूं तो सच कहूं बात बहुत लंबी हो जाएगी, लेकिन मैं कुछ बातें जरूर कहूंगा जो एक सामान्य दर्शक को भी इसमे खटकती है।

मसलन कहानी के मुताबिक़ मीना, परेशानी में घिरी हुई है और उसे मदद की ज़रूरत है। लेकिन इस फिल्म मीना का रोल कुछ ऐसा बुना गया है, जिससे कहीं से लगता ही नहीं कि वो परेशानी में है, या फिर उसे किसी तरह की मदद की दरकार है। मतलब जो संदेश दर्शकों तक पहुंचना चाहिए था, शायद वो नहीं पहुंचा। इसके अलावा इस फिल्म का पूरा ड्रामा ही उलझा हुआ है। बात कहां चल रही है और कहां पहुंच जाती है, ये ही समझ से परे है। सबसे बड़ी खामी की अगर बात करूं तो इस फिल्म में ढेर सारे तमिल संवाद है। ये संवाद गैरतमिल भाषियों के समझ से परे हैं। उत्तर भारतीय दर्शकों को लगता है कि ये काँमेडी है, इसलिए वो वहीं ताली ठोकते रहते हैं, जबकि बात वहां कुछ और हो रही होती है। फिल्म मे तमिल कलाकारों की संख्या भी जरूरत से ज्यादा है, ये कलाकार उत्तर भारतीयों पर अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रहे हैं। किसी भी फिल्म में रोमांस दर्शकों के लिए एक प्रिय विषय है। लेकिन इस फिल्म में रोमांस दर्शकों को बिलकुल अपील नहीं करता इसलिए वो इससे जुड़ ही नहीं पाए।


इसी तरह अगर बात अभिनय की करूं तो फिल्म में शाहरुख़ खान मुख्य किरदार में जरूर हैं। लेकिन कुछ जगह पर तो उनका अभिनय शानदार हैं, लेकिन काफी जगहों पर वो दर्शकों पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाए। मसलन उम्र का प्रभाव उनके अभिनय और चेहरे पर दिखाई देने लगा है, यही वजह है कि कई स्थान पर उनका बड़ा थका हुआ सा चेहरा दर्शकों के सामने आया है। हां मैं दीपिका को फुल मार्क्स दूंगा। दीपिका ने अच्छा अभिनय किया है और दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करने में वो कामयाब रही हैं। खासतौर पर दीपिका तमिल अंदाज़ में संवाद बोलती हुई बहुत प्यारी लगी हैं। मैं कह सकता हूं कि उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया है और दर्शकों का खूब मनोरंजन किया है। इसके अलावा निकतिन धीर के लिए पिक्चर में करने को कुछ ख़ास था ही नहीं। वैसे उनका व्यक्तित्व काफी वज़नदार है लेकिन रोल कमज़ोर दिखा। दीपिका के पिता के रोल में सत्यराज साधारण रहे हैं, लेकिन पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में मुकेश तिवारी छाप छोड़ने में जरूर कामयाब रहे हैं। इस फिल्म में मुझे  'वन टू थ्री फ़ोर' गाना तो अच्छा लगा ही, इस गाने में तमिल अभिनेत्री प्रियदर्शिनी खूब जमी है।

लेकिन बतौर निर्देशक अगर रोहित शेट्टी की बात की जाए तो इस बार उनका प्रदर्शन मेरे हिसाब से तो बहुत ही निराश करने वाला रहा है। मेरे हिसाब से तो वो ना तो एक अच्छी कॉमेडी फ़िल्म बनाने में कामयाब हो पाए और ना ही चेन्नई एक्सप्रेस को एक रोमांटिक फ़िल्म के तौर पर जनता के बीच पेश कर पाए। वैसे उन्होंने ड्रामा को तो ठीक तरह से पेश कर लिया, लेकिन फ़िल्म की कहानी का ग़लत चुनाव, फ़िल्म में ढेर सारे तमिल संवाद और चेहरों का इस्तेमाल इसके व्यापार पर निश्चित रूप से गलत असर डालने वाला रहा है। विशाल-शेखर का संगीत अच्छा है लेकिन इसमें सुपरहिट होने की क़ाबिलियत नहीं है।

बहरहाल शाहरुख, दीपिका और रोहित के लिए खुश होने की बात ये जरूर है कि  शुक्रवार को रिलीज 'चेन्नई एक्सप्रेस' ने पहले दिन में रिकॉर्ड कलेक्शन किया। इस फिल्म ने 33 करोड़ रुपये की ओपनिंग की है। ईद के मौके पर रिलीज हुई शाहरुख खान की इस फिल्म को अब तक की उनकी सबसे अच्छी शुरूआत करने वाली फिल्म बताया जा रहा है। इस फिल्म ने सलमान खान की 'एक था टाइगर' को पीछे छोड़ दिया। बताते हैं कि एक था टाइगर फिल्म को पहले दिन 31 करोड़ 25 लाख रुपये की ओपनिंग मिली थी। शाहरूख के लिए ये खुशी काफी है, यही वजह है कि बॉलीवुड के बादशाह शाहरुख खान ने कल रात अपने घर मन्नत में एक शानदार पार्टी दी। अपनी फिल्म ‘चेन्नई एक्सप्रेस’ के शानदार आगाज की खुशी में हुई इस पार्टी में इंडस्ट्री के तमाम बड़े लोगों ने शिरकत की। रानी मुखर्जी, अनिल कपूर और राजकुमार, संतोषी समेत बॉलीवुड से जुड़े दिग्गज मन्नत पहुंचे। अमिताभ बच्चन ने तो बाकायदा ट्विट करके पार्टी में शामिल होने की खबर दी।


[  नोट : मुझे ये जरूर बताइयेगा कि मुझे आगे रुपहले पर्दे की समीक्षा करनी चाहिए या नहीं, मैंने पहली बार किसी फिल्म की समीक्षा लिखी है ]






Monday 5 August 2013

BIG BOSS : आओ खेलें गाली - गाली !

मीडिया पर लगातार बात करते हुए मैं भी थोड़ा ऊब सा गया हूं, सोच रहा हूं आज बात तो छोटे पर्दे की ही करूं, लेकिन खबरिया चैनलों के बजाए चलते हैं मनोरंजक चैनल की ओर। सच बताऊं आजकल टीवी पर प्रसारित होने वाले कई रियलिटी शो मुझे बहुत पसंद हैं, खासतौर पर इंडियन आयडल जूनियर और डीआईडी सुपर मम तो मेरा प्रिय शो है। लेकिन दो और रियलिटी शो पाइप लाइन मे हैं। एक बिग बी यानि अमिताभ बच्चा का शो कौन बनेगा करोड़पति, इसके अलावा हिंदी सिनेमा के दबंग मतलब सलमान खान का शो बिग बाँस। वैसे जब भी मैं किसी को बताता हूं कि मुझे रियलिटी शो बिग बाँस बहुत पसंद है, तो लोग मुझे बहुत नफरत की निगाह से देखते हैं। मतलब उनका बस चले तो मेरे मुंह पर ही थूक दें और कहें कि ये तो बिग बाँस देखता है, अब इससे तो बात करना ही बेकार है। लेकिन अब क्या कहें, मुझे शो पसंद है तो फिर है। मैं तो इस बार भी देखूंगा।

सुर्खियों में रहने वाले छोटे पर्दे के इस बहुचर्चित शो में आमतौर पर ऐसे ही लोगों को जगह मिलती है जिनके साथ कोई न कोई विवाद जुड़ा होता है। इसलिए देश में हर क्षेत्र के छटे हुए लोगों की तलाश शुरू हो गई है। इसी क्रम में कोशिश हो रही है कि इस बार शो में क्रिकेटर श्रीसंत को शामिल किया जाए। सबको पता है कि अब उसका क्रिकेट का कैरियर तो लगभग खत्म ही है। लेकिन जनाब के शौक बहुत खर्चीले और निराले हैं। जाहिर है उसे पैसों की जरूरत है और चैनल को एक विवादित सेलेब्रिटी की खोज है। वैसे केवल क्रिकेटर के तौर पर देखा जाए तो श्रीसंत की घर में उतनी जरूरत नहीं है, लेकिन उसकी अतिरिक्त योग्यता यानि मैच फिक्सिंग, सट्टेबाजी, लड़कीबाजी की वजह से ये परफेक्ट या कहें कि पूरा मस्त पैकेज है। सबको पता है कि श्रीसंत थोड़ा बिगड़ैल भी है, तो इसे अनुशासन में रखने के लिए हरभजन सिंह को भी घर में लाने की बात चल रही है। माना जा रहा है कि हरभजन को अब कैमरे पर चांटा मारने की कोई जरूरत नहीं है, दोनों आमने-सामने या साथ साथ भी होगें तो दर्शकों में अपने आप चांटे की फिलिंग आएगी।

आजकल क्रिकेट की चर्चा हो और चीयर गर्ल की बात ना हो लगता है कि बात पूरी ही नहीं हुई। मुझे तो लगता है कि अब क्रिकेट खेलने के लिए सिर्फ बैट, बाँल और विकेट की जरूरत नहीं है, बल्कि इन तीनों के साथ चीयर गर्ल भी उतनी ही जरूरी है। लिहाजा बिग बाँस के घर का न्यौता पूनम पांडे को भी दिया जा रहा है। अरे ये क्या ! आप पूनम पांडेय को नहीं जानते, पूनम को नहीं जानते मतलब पीएसपीओ नहीं जानते। जरा दिमाग पर जोर डालिए,  ये वही पांडेय है जिन्होंने ऐलान किया था कि अगर भारतीय क्रिकेट टीम विश्वकप जीतती है तो ये टीम के सामने "टाँपलेस" हो जाएगी। बेचारे क्रिकेटर कप जीतने के बाद मुंबई में काफी दिनों तक इधर उधर घूमते रहे, लेकिन पूनम पुलिस के डर से ना जाने कहां लापता हो गई थी। खैर अब देखते हैं बिग बाँस के घर में क्या जलवा दिखाती हैं पूनम।

रियलिटी शो बिग बाँस सीजन 7 के लिए एक खबर अंदर से छन कर बाहर आ रही है। कहा जा रहा है कि रितिक रोशन के साथ फिल्म 'कहो ना प्यार है' से बॉलीवुड में एंट्री करने वाली  अमीषा पटेल भी इस घर की मेहमान बन सकती है। लेकिन कहा जा रहा है कि अमीषा ने बतौर  फीस एक हफ्ते का 75 लाख रुपये मांग लिया है। इससे चैनल ये सोचने पर मजबूर हो गया है कि इतनी फीस देकर अमीषा लाना शो के लिए कितना फायदेमंद होगा ? आपको पता होगा कि पाकिस्तानी अदाकारा बीना मलिक के साथ जिस अस्मित पटेल ने बिग बाँस को गंदगी से भर दिया था, वो अस्मित अमीषा का ही भाई है। चर्चा तो यही है कि अमीषा ने भी चैनल को भरोसा दिलाया है कि अगर वो शो में आती हैं तो घर में विवाद खड़े करने से पीछे नहीं रहेंगी। अब अमीषा के पास इतना काम नहीं है, जिससे उनकी डेट मिलने में दिक्कत हो, हां उनकी फीस का मामला जरूर पेचीदा है। अगर फीस का  मसला सलट गया तो इन्हें वाइल्ड कार्ड एंट्री दी जा सकती है। वैसे चैनल ने तो ममता कुलकर्णी से भी संपर्क किया था,  लेकिन सूत्र कहते हैं कि उन्होंने शो में शामिल होने से साफ मना कर दिया।

हालाकि चैनल वाले मेरी राय मानेंगे नहीं, वरना कुछ नाम मैं भी सुझाना चाहता हूं। इस बात की गारंटी है कि अगर मेरे सुझाए नाम को चैनल के कर्ता-धर्ता बिग बाँस के घर लाने में कामयाब हो गए तो शो की टीआरपी की चिंता करने की जरूरत ही नहीं होगी। चलिए दो चार नाम बता भी देता हूं। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और बाबा रामदेव, श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन और सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा, निर्मल बाबा और राधे मां, राजस्थान के पूर्वमंत्री महिपाल मदेरणा ( भंवरीदेवी वाले ) और मध्यप्रदेश के पूर्वमंत्री राघव जी (यौनाचार के आरोपी) , राज ठाकरे और लालू यादव, यूपी के पूर्वमंत्री राजा भइया और कुंडा में मारे गए सीओ की पत्नी परबीन के अलावा पूर्व रेलमंत्री पवन कुमार बंसल के साथ सीबीआई डायरेक्टर ( तोता)  को घर में शामिल होने का न्यौता भेजा जाना चाहिए। वैसे मुझे तो अभी इतने ही नाम याद आ रहे हैं, अगर आपको और कोई नाम याद आ रहा हो तो सुझाव दे सकते हैं।

ये शो मेरा तो बहुत ही फेवरिट है, लिहाजा इस शो के बारे में यहां आपको हर छोटी बड़ी खबर मिलती रहेगी। लेकिन चलते चलते आपको ये बता दूं कि पिछले सप्ताह मीडिया की एक खबर ने सनसनी फैला दी थी कि बिग बॉस के सातवें सीजन के लिए दबंग सलमान और चैनल के बीच 130 करोड़ की डील हुई है। इस डील के हिसाब से सलमान को हर एपिसोड का पांच करोड़ रूपए मिलने वाला था। लेकिन अब ये बात सामने आ रही है कि ये गलत खबर थी। बताया जा रहा है कि सलमान को पिछले साल से 50 लाख ज्यादा यानि हर एपीसोड के तीन करोड़ रुपये मिलेंगे। लेकिन छोटे पर्दे की ये फीस भी आज की तारीफ में सबसे अधिक है। इतनी फीस दस का दम करने वाले शाहरुख खान, कौन बनेगा करोडपति शो करने वाले अमिताभ बच्चन को भी नहीं मिलती है। बहरहाल अब इंतजार की घड़ी खत्म, अगले महीने से शुरू हो जाएगा बिग बाँस, मैं तो तैयार हूं आप तैयार हो जाइये, घर के भीतर का पागलपन देखने के लिए।



Friday 19 July 2013

MEDIA : अब तो हद हो गई !



च कह रहा हूं, आने वाले समय की आहट हम सब सुन नहीं पा रहे हैं। इसका नतीजा किसी एक को नहीं, बल्कि हम सबको भुगतना पड़ सकता है। जरूरी है कि मीडिया एक बार फिर प्रोफेशन से हटकर मिशन बनकर उभरे। एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है, वो ये कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करने पर राजनीतिक दल के साथ अचानक मीडिया उन्हें लेकर क्यों आक्रामक हो गई है ? मोदी कुछ भी बोलते हैं तो उनके एक शब्द को लेकर बुद्धू बक्से (टीवी) पर बहस शुरू हो जाती है। अब कांग्रेस के नेता... सॉरी,  उनके हास्य कलाकर कैमरे के सामने आते हैं और कुतर्क करने में जुट जाते हैं। अच्छा मोदी का विरोध नेता करें तो बात समझ में आती है, लेकिन मोदी के किसी बात को लेकर अगर मीडिया उसे मुद्दा बनाकर बहस करने लग जाए तो जाहिर है मीडिया पर सवाल खड़े होंगे ही। अब देखिए उत्तराखंड की तबाही को लेकर महीने भर से मीडिया घड़ियाली आंसू बहाती रही, लेकिन उत्तराखंड के पीडि़तों की मदद के लिए हैदराबाद में मोदी की रैली में आने वालों से पांच रूपये सहायता मांग लिया गया गया तो केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने सबसे पहले जहर उगला, और कहा कि मोदी की हैसियत के हिसाब से उनके भाषण की फीस वसूली जा रही है। मुझे लगता है कि तिवारी अच्छी तरह जानते हैं कि अगर मोदी की हैसियत पांच रूपये टिकट की है तो राहुल को तो 50 रुपये देकर जनता को बुलाना होगा। बहरहाल मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता, लेकिन ये जरूर कहूंगा कि सिर्फ राजनेताओं को नहीं मीडिया को भी ये स्वीकार करना होगा कि आज मोदी देश में सबसे लोकप्रिय नेता हैं, जिन्हें लोग पूरे मन से सुनते तो हैं।


हफ्ते भर से इलेक्ट्रानिक मीडिया में पिल्ला यानि कुत्ते के बच्चे को लेकर बहस छिड़ी हुई है। अच्छा ऐसा नहीं है कि ये बहस सिर्फ बुद्दू बक्से पर हो रही है। बल्कि अखबारों में भी संपादकीय पेज पर तमाम बड़े-बड़े पत्रकार पन्ना काला किए पड़े हैं। दरअसल हुआ ये कि एक पत्रकार ने गुजरात के मुख्यमंत्री से पूछा इतना बड़ा हादसा हुआ क्या आपको दुख नहीं हुआ ? मोदी ने जवाब दिया कि मैं भी एक इंसान हूं, आप अगर कार में पीछे बैठे हों और कार के नीचे एक पिल्ला भी आ जाता है तो हम ड्राइवर से कहते हैं कि गाड़ी ठीक से चलाओ भाई। कहने का मतलब आदमी जब एक जानवर के मारे जाने से दुखी हो जाता है तो वो तो इंसान थे। अब मीडिया ने मोदी के बयान से भी   शब्द निकाल दिया और शोर मचाने लगी  कि मोदी ने मुलसमानों की तुलना पिल्ले से की। हैरानी तब हुई कि पांच मिनट में ही कांग्रेस के एक दो नहीं कई नेता इसी शब्द को दुहराने लगे कि मोदी ने मुसलमानों को कुत्ता कहा। दिन में ये बात शुरू हुई और शाम को टीवी चैनलों पर ये बहस का मुद्दा बन गया।

इस घटना के दो दिन बाद मीडिया ने दूसरा तमाशा खड़ा कर दिया। पुणे में एक जनसभा में मोदी ने भ्रष्टाचार पर चर्चा के दौरान कहाकि जब केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार पर चोट किया जाता है तो वह  सेक्यूलिज्म का बुर्का  ओढ़ लेती है। मीडिया ने मूल विषय के बजाए इस मुद्दे को साम्प्रदायिकता से जोड़ दिया और शाम को कुछ नेता और रिटायर्ड पत्रकार जिन्हें इलेक्ट्रानिक मीडिया वरिष्ठ पत्रकार कहती है, उनके साथ बहस शुरू हो गई। कई बार सोचता हूं कि मीडिया को आखिर क्या होता जा रहा है। मेरा मानना है कि अगर किसी मुद्दे को गलत ढंग से राजनेता पेश कर रहे हैं तो मीडिया को इसकी अगुवाई करके उस मामले में निष्पक्ष राय रखनी चाहिए और कोशिश होनी चाहिए कि मुद्दा भटकने ना पाए।

एक उदाहरण देता हूं। बिहार में मिड डे मील का भोजन करने से छपरा में 23 बच्चों की मौत हो गई। जिस दिन ये हादसा हुआ उसी दिन जेडीयू के नेताओं ने आरोप लगाया कि खाने में जहर मिलाया गया और ये काम एक खास राजनैतिक दल की ओर से किया गया। हालाकि जेडीयू ने पार्टी का नाम नहीं लिया, लेकिन उनका इशारा राष्ट्रीय जनता दय यानि लालू यादव की पार्टी पर था। मैं एक सवाल पूछना चाहता हूं कि क्या देश की राजनीति में इतनी गिरावट आ चुकी है कि किसी सरकार को बदनाम करने के लिए विपक्षी दल इस स्तर पर आ जाएंगे कि वो खाने में जहर मिलाकर स्कूली बच्चों को मरवा देंगे ? मैं लालू यादव का बिल्कुल समर्थक नहीं हू, लेकिन मैं इस मामले में उनके साथ खड़ा हूं। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि कम से कम राजनीतिक विरोध का स्तर अभी बिहार ही नहीं देश के किसी कोने में इस कदर नहीं गिरा है। मुझे लगता है कि यहां मीडिया को सख्त लहजे में इस बात पर कड़ा ऐतराज जताना चाहिए था, लेकिन मीडिया ने लीडरशिप नहीं ली और दो कौड़ी के नेताओं के साथ इनकी, उनकी धुन में राग मिलाती रही।

हालत ये हो गई है कि सोशल साइट पर मीडिया का मजाक बनाया जा रहा है। आप देखिए कैसे कैसे जोक्स मीडिया को लेकर सोसल साइट पर छाए हुए हैं।

नरेन्द्र मोदी. कुत्ते का बच्चा भी अगर मेरी गाड़ी के नीचे आ जाए तो मुझे दुख होगा।
मीडिया. BREKING NEWS मोदी ने दंगे में मारे  गए लोगों को कुत्ते का बच्चा कहा।

एक और

रिपोर्टर मोदी से, सर क्या आप चावल खाते हैं।
मोदी . नहीं मैं गेहूं की रोटी ज्यादा पसंद करता हूं।
मीडिया . BREKING NEWS मोदी को चावल पसंद नहीं, जो दक्षिण भारतीयों का अपमान है। क्योंकि दक्षिण में ज्यादातर लोग चावल से ही बने व्यंजन पसंद करते हैं। इतना ही नहीं सोशल साइट पर चैनल का नाम भले ना हो, लेकिन आम आदमी मीडिया को लेकर सोचता क्या है, ये तो जरूर साफ है। मीडिया के रिपोर्ट की नकल की जा रही है।

मैं फिर कहता हूं कि अभी समय है, मीडिया को अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा। उसे सच और झूठ का अंतर कर खुद आगे बढ़कर लीडरशिप की भूमिका निभानी होगी। दो कौड़ी के नेताओं को लेकर स्टूडियो में बहस करने से कोई नतीजा नहीं निकलने वाला है। हैरानी इस बात पर होती है कि जब दिल्ली में राष्ट्रीय मुद्दे पर बहस होती है तो कांग्रेस जैसी पार्टी से कोई बड़ा नेता बहस में शामिल नहीं होता, औपचारिका पूरी करने के लिए चैनल वालों को लखनऊ से कभी अखिलेश प्रताप सिंह या फिर रीता बहुगुणा को बैठाना पड़ जाता है। बताइये मुद्दा बिहार का हो और कांग्रेस जैसी पार्टी से लखनऊ से एक नेता बैठा हो, ऐसी बहस का क्या मतलब है ?  इसीलिए कहता हूं ..


वतन की फिक्र कर नादां, मुसीबत आने वाली है,
तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में।
ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दुस्तां वालों,
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।






Monday 1 July 2013

जल - समाधि दे दो ऐसे मुख्यमंत्री को !


                        विशेष संपादकीय 


त्तराखंड त्रासदी पर बाकी बातें बाद में ! मुझे लगता है कि नाराज देवी देवताओं को मनाने के लिए सबसे पहले विधि-विधान से पूजा पाठ कर उत्तराखंड के लापरवाह, निकम्मे मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को जल-समाधि दे दी जानी चाहिए। इतना ही नहीं राहत कार्य में व्यवधान पहुंचाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी सख्त सजा जरूरी है। इन दोनों को अन्न-जल त्यागने पर विवश कर इन्हें इनके आलीशान बंगलों से बाहर किसी पहाड़ी पर भेजा जाना चाहिए, जो साल भर घनघोर पहाड़ी पर कठिन तपस्या के जरिए अपने किए पापकर्मों से मुक्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करें। उत्तराखंड सरकार के बाकी मंत्रियों को क्षतिग्रस्त सड़को को दुरुस्त करने के काम में लगा दिया जाना चाहिए। इसके अलावा जिस अफसर ने मौसम विभाग की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया, उस अफसर को जिंदा जमीन में गाड दिया जाए तो भी ये सजा कम है। मेरा तो ये भी मानना है कि उत्तराखंड में जिस तरह भीषण तबाही हुई है, उसे फिर पटरी पर लाने के लिए दो कौड़ी के नेताओं की कोई जरूरत नहीं है, वहां सेना को ही पुनर्वास का काम भी सौंप दिया जाए, वरना ये उचक्के नेता तो पीड़ितों के लिए मिलने वाली सहायता राशि में भी लूटमार करने से चूकने वाले नहीं है।

देवभूमि में प्रकृति ने जो कहर ढाया, मैं समझता हूं कि उसे रोकना किसी के बस की बात नहीं थी। लेकिन उसके असर को कम करना, होने वाले नुकसान को कम करना, जान माल की क्षति को कम करना, प्रभावकारी ढंग से सहायता पहुंचा कर लोगों को तत्काल राहत पहुंचाना ये सब काम हो सकता था, जो नहीं हो सका। नतीजा क्या हुआ ? लगभग एक हजार लोग मारे जा चुके हैं, चार हजार के करीब लापता हैं। चूंकि इनके शव बरामद नहीं हुए हैं, इसलिए तकनीकि रूप से लापता कहा जा रहा है। मैं तो कहता हूं कि अब 15 दिन से ज्यादा समय हो चुके हैं, मान लिया जाना चाहिए कि इनकी भी मौत हो चुकी है। कई सौ गांव का अस्तित्व खत्म हो गया है, पांच सौ से ज्यादा सड़कें बह गई हैं, बिजली, पानी और संचार सेवा पूरे इलाके में लगभग ठप है। बताया जा रहा है कि तबाही वाले इलाके में जहां तहां लोगों के शव अभी भी पडे हुए हैं। हालाकि अब उनका अंतिम संस्कार किया जा रहा है।

मैने स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा को बहुत करीब से देखा है, उन्हें खूब सुना है, उनकी कार्यशैली देखी है। लेकिन उनका बेटा इस कदर नालायक, अक्षम, झूठा, लालची, लापरवाह और निकम्मा होगा, कम से कम मैने तो सपने में भी नहीं सोचा था। पता चला है कि जिस वक्त उत्तराखंड पर ये कहर फूटा, उस दौरान मुख्यमंत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र सितारगंज में एक रूसी कंपनी को सौ एकड जमीन दिए जाने के एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने वाले अपने खास अधिकारी की पीठ थपथपा रहे थे।  उन्हें कुदरत के कहर की भनक तक नहीं लगी थी। जब उन्हें इस घटना की जानकारी हुई तो उन्होंने प्रभावित इलाके में जाना भी ठीक नहीं समझा, उन्होंने ये जानने की भी कोशिश नहीं की कि वहां कितना नुकसान हुआ है और कितने श्रद्धालु केदारनाथ के दुर्गम रास्तों में जीवन और मौत से जूझ रहे हैं। मूर्ख मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा अपने दो साथी मंत्रियों को साथ लेकर दिल्ली आ धमके। जानते हैं किस लिए, इसलिए कि उत्तराखंड में भारी तबाही हुई है, उन्हें पैकेज यानि आर्थिक मदद दी जाए।

इस दौरान बेवकूफ मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री से ये मांग नहीं की कि दुर्गम इलाके में कई हजार श्रद्धालु फंसे हुए हैं, उन्हें बाहर निकालने के लिए सौ हेलीकाप्टर तुरंत भेजे जाएं। ये पट्ठा यहां दिल्ली में पैसे के लिए गिड़गिड़ाता रहा, जबकि वहां श्रद्धालु दम तोड़ते जा रहे थे। ये पैसे के लिए इतने लालायित थे कि अपनी ही सरकार पर दबाव बनाने के लिए विभिन्न न्यूज चैनलों पर जाकर घंटों वहां के हालात के बारे में बक-बक करने लगे, जबकि इन्होंने प्रभावित इलाकों का दौरा तक नहीं किया था। मुख्यमंत्री दिल्ली में जब पैसे की मांग को लेकर समय बिता रहे थे, उसी दौरान उत्तराखंड के ही कुछ वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने पार्टी आलाकमान को हालात की गंभीरता के बारे में बताया और साफ किया कि इसमें तुरंत केंद्रीय नेतृत्व को हस्तक्षेप करने की जरूरत है, क्योंकि मुख्यमंत्री में ऐसे मामलों से निपटने की ना क्षमता है और ना ही मजबूत  इच्छाशक्ति। बताते हैं कि इसके बाद कांग्रेस आलाकमान सख्त हुआ तो बहुगुणा दिल्ली छोड़ कर देहरादून रवाना हुए।

बहुगुणा की निर्लज्जता की खबरें वाकई इंसानियत को शर्मसार करने वाली हैं। जानते हैं 20 जून के आसपास मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को कुछ अधिकारियों के साथ स्विट्जरलैंड जाना था। 16 जून को ये हादसा हो गया, इसके बाद भी मुख्यमंत्री अपना विदेश दौरा रद्द नहीं करना चाहते थे, उन्होंने विदेश मंत्रालय और पार्टी आलाकमान को दौरा रद्द करने की कोई जानकारी नहीं दी। इधर दौरा रद्द होने की कोई जानकारी ना मिलने के कारण विदेश मंत्रालय मुख्यमंत्री की यात्रा की तैयारियों में लगा रहा। बताया जा रहा है कि इस मामले में भी उत्तराखंड के कांग्रेस नेताओं ने पार्टी हाईकमान से शिकायत की और कहाकि वैसे मुख्यमंत्री का देहरादून में रहना ना रहना कोई मायने नहीं रखता, फिर भी अगर वो स्विट्जरलैंड गए तो पार्टी की छवि खराब होगी। इसलिए उनका दौरान रद्द किया जाना चाहिए। बताते हैं ये जानकारी होने के बाद आलाकमान ने बहुगुणा से सख्त नाराजगी जाहिर की, तब जाकर दौरा रद्द किए जाने की जानकारी विदेश मंत्रालय को भेजी गई। ऐसे मुख्यमंत्री को अगर लोग कह रहे हैं कि नालायक है, कह रहे हैं कि अक्षम है, कह रहे हैं कि लापरवाह है, तो मुझे नहीं लगता कि कोई गलत कह रहा है। अब कोई अक्षम, लापरवाह, नालायक है तो इसकी कानून में तो कोई सजा है ही नहीं, लिहाजा इन्हें धार्मिक रीति-रिवाज ठिकाने लगाने के लिए जल समाधि ही सबसे बेहतर उपाय है।

वैसे लापरवाह सिर्फ मुख्यमंत्री को कहा जाए तो ये भी बेमानी होगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए सोनिया गांधी की वजह से भी वहां राहत कार्य बाधित हुआ। वहां से जो जानकारी मिली अगर वो सही है तो ये केंद्र सरकार के लिए भी कम शर्मनाक नही है। पता चला है कि उत्तराखंड में जहां-तहां फंसे श्रद्धालुओं की सहायता के लिए लगाए गए सेना और प्राईवेट हेलीकाप्टर काफी देर तक उड़ान नहीं भर पाए। कारण मौसम की खराबी नहीं थी, बताया गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी इलाके का हवाई सर्वेक्षण कर तबाही का मंजर देख रही थीं। इसलिए सुरक्षा कारणों से काफी समय तक दूसरे हेलीकाप्टर उडान नहीं भर सके। अरे भाई मनमोहन और सोनिया जी आप के हवाई सर्वेक्षण से क्या फर्क पड़ने वाला है। अफसरों की टीम भेज देते, वो नुकसान का सही आकलन भी कर पाते। अब इसके लिए तो मेरे ख्याल से ये दोनों भी बराबर की सजा के हकदार हैं।

अब प्रधानमंत्री के हवाई सर्वेक्षण करने के खिलाफ भी कोई कानून तो है नहीं, अरे भाई मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं वो कहीं का, कभी भी हवाई सर्वेक्षण कर सकते हैं। लेकिन उत्तराखंड में राहत कार्य में जो बाधा पहुंची, उस मामले में सजा तो दी ही जानी चाहिए। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि धार्मिक तौर पर इन दोनों को अन्न-जल त्याग का संकल्प दिलाकर पहाड़ी पर छोड़ दिया जाए। इन्होंने मानव जीवन का अनादर किया है, इसलिए इन पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए कि साल भर तक ये किसी व्यक्ति की सूरत भी नहीं देख सकेंगे। सच में ये दोनों भी कुछ इसी तरह की सख्त कार्रवाई के हकदार हैं।

सोशल साइट पर कुछ बेपढ़े लोगों ने मौसम विभाग के खिलाफ अभियान चला रखा है। मौसम विभाग के खिलाफ जोक्स बनाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि जब मौसम विभाग के अफसर बारिश की भविष्यवाणी करते हैं तो उनकी पत्नी भी सूखने के लिए बाहर डाले गए कपड़ों को नहीं हटाती है, फिर देश के दूसरे लोग भला उनकी भविष्यवाणी पर भरोसा कैसे कर सकते हैं ? मैं तो यही कहूंगा कि जो भरोसा नहीं करते हैं वो मूर्ख हैं। मौसम विभाग की भविष्यवाणी को सड़क छाप ज्योतिष की भविष्यवाणी से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। जम्मू कश्मीर में अमरनाथ यात्रा अक्सर इसलिए रोक दी जाती है कि मौसम विभाग भविष्यवाणी करता है कि मौसम ठीक नहीं रहेगा। वहां राज्य सरकार और मौसम विभाग का तालमेल बहुत बेहतर है। यही वजह है कि अमरनाथ में ऐसे हादसे काफी कम होते हैं। इसलिए मौसम विभाग की चेतावनी की एकदम से अनदेखी करना वाकई गैरजिम्मेदारी का काम है। अब उत्तराखंड की बात करें। यहां मौसम विभाग ने बकायदा दो दिन पहले एक लिखित चेतावनी राज्य सरकार के वरिष्ठ अफसरों को भेजा। इसमें यहां तक साफ किया गया कि मौसम खराब होने वाला है, इसलिए यात्रा रोक दी जाए। लेकिन राज्य सरकार ने इस चेतावनी पर बिल्कुल गौर ही नहीं किया। मेरे लिए तो ऐसे अफसर के लिए धरती पर कोई जगह नहीं है, मै तो उसे जिंदा जमीन में गाड़ने का हुक्म दे दूं। फिर भी मैं उत्तराखंड सरकार से ये जानना चाहता हूं कि आखिर इस सबसे बड़ी लापरवाही के लिए जिम्मेदार अफसर के खिलाफ अभी तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई ?

अब आखिरी बात ! उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पर अब भरोसा भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि इतनी बड़ी आपदा के बावजूद वो झूठ पर झूठ बोलते जा रहे हैं। एक दिन मुख्यमंत्री ने खुद ही कहाकि प्रभावित इलाके में संचार प्रणाली ठप हो गई है। अगले दिन बोले कि वो प्रभावित इलाके के जिलाधिकारियों के साथ लगातार वीडियो कान्फ्रेंस के जरिए आदेश दे रहे हैं। संचार व्यवस्था ठप होने पर भी मुख्यमंत्री की वीडियो कान्फ्रेंस चालू है, वाह रे झूठे मुख्यमंत्री ! यही वजह है कि अब इन नेताओं पर हमें क्या किसी को भरोसा नहीं रह गया है। देश को लगता है कि बहुगुणा की नजर राहत कार्य के लिए मिलने वाली सहायता राशि पर है। मेरा सुझाव है कि जिस तरह कठिन हालात में देश की सेना ने लोगों की मदद की है, वहां पुनर्वास का काम भी सेना के हवाले कर दिया जाना चाहिए। एक तो पैसे का सदुपयोग होगा, दूसरे काम जल्दी हो जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इन नेताओं से खासतौर पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली से तो मुझे घिन्न आ रही है।

चलते - चलते : इस घटना को अब 15 दिन बीत चुके हैं। अभी भी वहां फंसे हुए अंतिम व्यक्ति को निकाला नहीं जा सका है। मैं पूछना चाहता हूं कि हमारे पास ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए आखिर क्या तैयारी है। अब सरकार पर सवाल तो उठेगा ही, कांग्रेस ये कह कर नहीं बच सकती कि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।  मैं पूरी जिम्मेदारी से कहता हूं कि इस पर खूब राजनीति होनी चाहिए, जिससे आने वाले समय में ऐसा कोई मैकेनिजम बन सके, जिससे आपदा के दौरान तुरंत जरूरतमंदों को राहत मिल सके।


महेन्द्र श्रीवास्तव

Sunday 9 June 2013

ABP न्यूज : ये कैसा ब्रेकिंग न्यूज !

ज एक सवाल ABP न्यूज से करना चाहता हूं, जिसके महत्वपूर्ण न्यूज बुलेटिन की बुनियाद भी " सूत्र " पर जा टिकी है। मैं समझता हूं सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर कोई सामान्य खबर तो एक बार दी जा सकती है, लेकिन देश में जिस मुद्दे पर लगातार बहस चल रही हो, उस बड़ी खबर पर इतनी बड़ी लापरवाही कम से कम मेरी समझ से तो परे है। बात यहीं खत्म हो जाती तो भी एक बार मामले की अनदेखी की जा सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हुआ ये कि गलत खबर पर एंकर राशन पानी लेकर चढ़ गया और वो दूसरों की प्रतिक्रिया लेने में पूरी ताकत से जुट गया। हिंदी पत्रकारिता उस समय और शर्मिंदा हुई, जब वरिष्ठ पत्रकारों की मंडली का एक सदस्य इस पर बहुत ही बचकानी टिप्पणी कर गया। खैर पूरी बात आगे करूंगा, पहले मुद्दे पर आता हूं। आज यानि रविवार को दोपहर डेढ़ बजे के करीब अचानक गोवा में चल रही बीजेपी की कार्यकारिणी से एक खबर ABP न्यूज ने ब्रेक की। जानते हैं खबर क्या थी ? खबर ये कि मोदी को प्रचार कमेटी का चेयरमैन नहीं बनाया जाएगा, उन्हें संयोजक बनाया जाएगा। शर्मनाक बात ये है कि 10 मिनट के बाद ही ये " ब्रेकिंग खबर " झूठी निकली, लेकिन चैनल को भला इससे क्या लेना ! खैर इस बीच क्या हुआ वो भी सुन लीजिए।

बीजेपी कार्यकारिणी को लेकर रविवार को दोपहर में एबीपी न्यूज ने एक मजमा लगा रखा था। इसमें वरिष्ठ पत्रकार ध्यान दीजिए मैं क्या कह रहा हूं, "वरिष्ठ पत्रकार" हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा के साथ ही ट्रेनी वरिष्ठ पत्रकार दिबांग के अलावा दो एक लोग और मौजूद थे। यहां बेमतलब की बातचीत के बीच अचानक टीवी पर फुल स्क्रिन मे "ब्रेकिंग न्यूज" लिखा आया। 10 सेकेंड तक ब्रेकिंग-ब्रेकिंग लिखा देख मैं भी चौकन्ना हो गया। आपको पता है ब्रेकिंग न्यूज क्या थी ? न्यूज ये थी कि " मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष नहीं संयोजक बनाया जाएगा : सूत्र "। ये खबर ब्रेक हुई होगी दोपहर में लगभग 1.20 पर। जबकि यहीं नीचे लिखा आ रहा था कि डेढ़ बजे इस मामले में अधिकारिक बयाना भी आएगा। सवाल ये उठता है कि अगर डेढ़ बजे अधिकारिक बयाना आना है तो 10 मिनट पहले ब्रेकिंग न्यूज का औचित्य क्या है ? ब्रेकिंग न्यूज भी अपने रिपोर्टर के हवाले से नहीं, वो सूत्र के हवाले से। पहले तो मैं सूत्र के हवाले से ब्रेकिंग न्यूज के ही चलाने के ही खिलाफ हूं। मेरा मानना है कि अगर चैनल किसी खबर की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है, तो पहले तो उसे ब्रेकिंग न्यूज चलाना ही नहीं चाहिए। चलिए दौड़ में आगे निकलने के लिए अगर खबर चलाई भी जाती है तो, ये माना जाना चाहिए कि अपना रिपोर्टर इस खबर पर मुहर लगा रहा है। हां वो अपने सूत्र का नाम नहीं खोलना चाहता, इसलिए नाम नहीं ले रहा है।

मुझे लगता है कि इससे आप सब ही नहीं चैनल के " संपादक जी " लोग भी सहमत होंगे। जानते हैं इस जल्दबाजी के चक्कर मे एबीपी न्यूज ने क्या-क्या गुल खिलाया ? विस्तार से बताना जरूरी है। जैसे ही एक लाइन की खबर आई कि  मोदी चेयरमैन नहीं संयोजक बनेंगे। चैनला का एंकर एकदम से उछल गया। उसकी आवाज एकाएक तेज हो गई। कहने लगा कि मोदी को बहुत बड़ा झटका लगा है। बोला ! चलिए चलते हैं सीधे गोवा और बात करते हैं अपने रिपोर्टर से। अब ये रिपोर्टर मेरा मित्र ही नहीं छोटे भाई जैसा है, इसलिए मैं नाम नहीं ले सकता। बहरहाल ब्रेकिंग न्यूज में भले ही खबर सूत्र के हवाले से कही गई हो, लेकिन रिपोर्टर ने ऐलान कर दिया कि " बीजेपी कार्यकारिणी की ये आज की सबसे बड़ी खबर है कि मोदी को अब प्रचार समिति का चेयरमैन नहीं बनाया जा रहा है। उन्हें समिति का संयोजक बनाया जाएगा। रिपोर्टर ने अपनी ओर से इसके दो तीन कारण भी गिना दिए। हास्यास्पद तो ये रहा है कि उसने पार्टी के संविधान की दुहाई देते हुए कहाकि पार्टी में संयोजक ही बनाए जाने का प्रावधान है। क्योंकि प्रचार समिति के प्रस्ताव पर अंतिम फैसला अध्यक्ष ही लेते हैं।

मैं फील्ड में काम कर चुका हूं, रिपोर्टर के दबाव को समझ सकता हूं। लेकिन चैनल के एसी बक्से में बैठे लोग कैसे बहक सकते हैं ? जब रिपोर्टर से बातचीत में ये बात साफ हो गई कि वो सारी बातें हवा में कर रहा है, कोई पुख्ता बात नहीं कर पा रहा है, उसके बाद भी चैनल इस विषय को आगे कैसे बढ़ा सकता हैं ? अच्छा मान भी लें कि चैनल अपने रिपोर्टर की बात को आगे बढा रहा है तो ये तथाकथित "वरिष्ठ पत्रकार" क्या कर रहे थे ? सबसे हल्की बात तो हिंदुस्तान टाइम्स के राजनैतिक संपादक विनोद शर्मा ने की ! वो बिना जानकारी को पुख्ता किए कमेंट देने लगे। कहाकि " खोदा पहाड़, निकले राजनाथ " ! अब क्या कहूं, एक राष्ट्रीय पार्टी के बारे में आप इतना भद्दा कमेंट किस हैसियत से करते हैं ? एक पत्रकार के नाते, आम नागरिक के नाते या फिर कांग्रेस में अटूट आस्था रखने की वजह से ? ये जवाब तो विनोद शर्मा ही दे सकते हैं । इस मजमें में एक शख्स गुलाबी शर्ट में और भी मौजूद था। वो भी खबर को पुख्ता होने का इंतजार किए बगैर जिस तरह मुद्दे पर रियेक्ट कर रहा था, लगा कि जैसे बीजेपी ने उसकी जमीन हड़प ली है। संयोजक बनाए जाने को लेकर ये पत्रकार लोग अपने अंदाज में बीजेपी का चिट्ठा खोल रहे थे, कई बार तो ऐसा भी लगा कि या तो ये लोग बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में खुद मौजूद थे, या फिर इनका पत्रकारिता से लेना देना नहीं रहा, ये कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं।


बहरहाल 10 मिनट में ही ये इतनी गंदगी कर चुके थे कि उसे समेटना आसान नहीं था। इस बीच सच्ची खबर आ गई कि " मोदी प्रचार समिति के चेयरमैन यानि अध्यक्ष होंगे" । इस खबर के बाद तो मैं इन पत्रकारों का चेहरा देखना चाहता था कि अब ये अपना बचाव कैसे करते हैं? लेकिन इनकी बात सुनकर लगा कि ये जितना खाते हैं, उससे कहीं ज्यादा उल्टी करते हैं। मैं तब और हैरान रह गया कि जब मैने देखा कि ये अपनी बातों पर शर्मिंदा होने के बजाए, पूरी चर्चा को दूसरा रूप देने में लग गए। यहां अब बारी थी ट्रेनी वरिष्ठ पत्रकार दिबांग की । दिबांग तो पत्रकार के बजाए मनोचिकित्सक ही बन गए। वो नेताओं की बाँडी लंग्वेज पढ़ने लगे और उन्होंने विनोद शर्मा की बात को आगे बढ़ाते हुए कहाकि ये मौका था कि बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ आनंदित होकर इस बात का ऐलान करते, लेकिन वो मायूस दिख रहे हैं, उन्होंने लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज के बाँडी लंग्वेज पर भी सवाल खड़े किए। ये भी पूछा कि राजनाथ मीडिया के सामने मोदी को साथ क्यों नहीं लाए ? सवाल ये भी उठाया गया कि नरेन्द्र मोदी को अध्यक्ष चुने जाने के बाद उन्हें माला पहनाया गया या नहीं,  जिस समय ये ऐलान हुआ, वहां क्या माहौल था। दिबांग जिस तरह का सवाल उठा रहे थे, सच बताऊं तो लगा नहीं कि एक पत्रकार न्यूज चैनल की बहस में ये बातें नहीं  कर रहा है, बल्कि ऐसा लग रहा था कि कोई व्यक्ति 24 अकबर रोड यानि कांग्रेस दफ्तर से पत्रकारों को संबोधित कर रहा है।

आगे बात करूं, इसके पहले दो बातें और कह दूं। ये राजनीति भी किसी को ईमानदार नहीं रहने देती। भाई कोई सरकार हिम्मत करे और सबसे पहले एक काम कर दे कि पत्रकारों और संपादकों को पद्म सम्मान न देने का फैसला कर दे, इसके अलावा ये भी ऐलान कर दिया जाए कि पत्रकारों को राज्यसभा में भी नामित नहीं किया जाएगा। केवल इतने भर से पत्रकारिता में थोड़ा बहुत बेईमानी पर अंकुश जरूर लग जाएगा। मैं देख रहा हूं कि पत्रकार भी आज पार्टी बनते जा रहे हैं। ये वरिष्ठ पत्रकार राजनीतिक दलों के प्रवक्ता से भी ज्यादा बदबू देने लगे हैं। यही वजह है कि तमाम नेता इन्हें चैनलों की चर्चा में " कुत्ता " बना देते हैं, और ये दांत निपोरते हुए चुपचाप सुनते रहते हैं। अगर आप वाकई चैनलों की चर्चा पर पत्रकारों को सुनते होंगे तो अब तक आपको पता चल गया होगा कि आजकल के तथाकथित वरिष्ठ पत्रकार किस पार्टी का राशन तोड़ रहे हैं। चलिए जब गंदगी समाज में आ चुकी हो तो देश के 10 वरिष्ठ पत्रकारों के ईमान बेच देने से ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ने वाला है।

एबीपी न्यूज पर फिर वापस लौटता हूं। एबीपी न्यूज के संपादक जी ! क्या आपको नहीं लगता कि ब्रेकिंग न्यूज की विश्वसनीयता के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिए ? आप एक जिम्मेदार चैनल हैं, क्या आपके न्यूज चैनल का एक आम दर्शक होने के नाते मुझे ये जानने का हक है कि इतनी बड़ी ब्रेकिंग न्यूज कैसे गलत हुई ? आपने स्टूडियो में जो पत्रकारों को जो मजमा लगाया था, और उन्हें आपने ही गलत जानकारी देकर उनके मुंह से जो गाली दिलवाई, उसके लिए क्या आपने किसी की जिम्मेदारी तय की है ? पूरे आधे घंटे तक जो ड्रामा आपने क्रियेट किया, और वो बाद में गलत साबित हुआ, क्या उसके लिए देश की जनता से आपको माफी नहीं मांगनी चाहिए? आखिर में एक सवाल और ? आपने दिल्ली और गुजरात के तमाम रिपोर्टर गोवा में झोंक दिए, फिर भी इतनी बड़ी गलती हुई तो आपको नहीं लगता कि चैनल को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए ?  क्या हम विश्वास कर सकते हैं कि आगे से आप ब्रेकिंग न्यूज को लेकर ज्यादा गंभीर होगें ? अगर इतने बड़े चैनल पर हम भरोसा नहीं कर सकते तो प्लीज आप बताएं कि हम कौन सा चैनल देंखें ? जो कम से कम विश्वसनीयता के मानकों को पूरा करता हो।



Saturday 1 June 2013

धोनी पर क्यों खामोश है मीडिया ?

देश में एक बार फिर मीडिया का गैरजिम्मेदाराना रवैया देखने को मिला। आप सबको पता है कि आईपीएल 6 में क्या नहीं हुआ ? सट्टेबाजी हुई, स्पाँट फिक्सिंग हुई, खेल को प्रभावित करने के लिए लड़कियों की सप्लाई हुई, देश के करोंडो खेल प्रेमियों के आंख में धूल झोंका गया। इतने गंभीर अपराधों का खुलासा होने के बाद तो इसके जिम्मेदार लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए उन्हें जेल भेजने की बात होनी चाहिए थी। लेकिन देश का अपरिपक्व मीडिया श्रीनिवासन के इस्तीफे के लिए गिड़गिड़ाता रहा। एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है कि क्या बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन और आईपीएल चेयरमैन राजीव शुक्ला के इस्तीफा दे देने से सब कुछ ठीक हो जाएगा ? दो महीने से जो खेलप्रेमी हजारों रुपये का टिकट लेकर मैच देख रहे थे या जो लोग मैच के दौरान सारे काम छोड़कर टीवी से चिपके रहते थे, उन्हें जो धक्का लगा है, उसकी जवाबदेही किसकी होगी? इस्तीफा हो जाने के बाद मीडिया भी खामोश होकर किनारे बैठ जाएगा। मेरा मानना है कि मीडिया ने अगर सूझबूझ और जिम्मेदारी से अपना काम किया होता तो उसके कैमरे श्रीनिवासन के आगे पीछे नहीं घूमते, बल्कि देश के करोड़ों लोगों को सरेआम ठगने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार के गृहमंत्री के पीछे कैमरा घूमता दिखाई देता।  मीडिया की मांग भी ये होनी चाहिए थी कि दर्शकों से वसूले गए टिकट के पैसे वापस किए जाएं और बीसीसीआई और आईपीएल से जुड़े अधिकारियों को जेल भेजा जाए।

मैं कई बार मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के कामकाज के तरीकों पर सवाल उठा चुका हूं। मेरा मानना है जल्दबाजी और अनुभवहीनता के चलते मीडिया बगैर जाने समझे कुछ भी शोर मचाने लगती है। हफ्ते भर से ज्यादा हो गया, ये सब एक प्राईवेट संस्था के अध्यक्ष से इस्तीफा मांग रहे है। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि इस्तीफे से भला क्या हो जाएगा ? क्या  क्रिकेट को जो धक्का लगा है, क्रिकेट प्रेमियों के विश्वास को जो छला गया है, वो ठीक हो जाएगा ? चलिए मान लीजिए श्रीनिवासन ने इस्तीफा दे दिया और जेटली अध्यक्ष बन गए ! इससे क्या बदल जाएगा ? मुझे पक्का यकीन है मीडिया ने अगर इस विवादित, ढीठ, गैंडे की खाल ओढ़े श्रीनिवासन के बजाए केंद्र सरकार के खिलाफ एकजुट होकर ऐसा अभियान चलाया होता तो शायद आज क्रिकेट की तस्वीर बदल गई होती। देश भर के क्रिकेट प्रेमियों की आंख में जिस तरह से धूल झोंका गया और आईपीएल के मैंचो में सट्टेबाजी, फिक्सिंग हुई, ये एक संगठित अपराध की श्रेणी में है। इसमें खिलाड़ी, टीम के मालिक, अंपायर और बुकीज सब मिले हुए है। इन सबको जेल होनी चाहिए। लेकिन मीडिया यहां अपनी कम जानकारी की वजह से चूक गया, जिसका फायदा निश्चित ही बीसीसीआई को हुआ। मीडिया ने अपनी पूरी ताकत एक गैंडे जिसका कोई वजूद नहीं, उसके खिलाफ लगा दिया।

मैं ये भी जानता हूं एक दो दिन में श्रीनिवासन का इस्तीफा हो जाएगा। सभी न्यूज चैनल इसे अपनी जीत बताने लगेंगे। न्यूज चैनलों पर पहले मैं, पहले मैं की होड़ लग जाएगी। और इस  गंभीर मुद्दे की यहीं हत्या हो जाएगी। राजस्थान रायल्स की टीम के कुछ खिलाड़ी स्पाँट फिक्सिंग में धरे गए, उसके बाद बीसीसीआई ने उन पर दबाव बनाया कि वो भी खिलाड़ियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराएं। बीसीसीआई के कहने पर राजस्थान टीम मैनेजमैंट ने अपने खिलाड़ियों के खिलाफ खुद भी रिपोर्ट दर्ज करा दिया। मेरा सवाल है कि चेन्नई सुपर किंग को बीसीसीआई अध्यक्ष श्रीनिवासन ने क्यों नहीं कहा कि वो अपने मालिक यानि गुरुनाथ मयप्पन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराएं ? बस इसीलिए ना कि चेन्नई सुपर किंग के बाप जी यानि श्रीनिवासन खुद बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं ? आईपीएल का नियम है कि अगर किसी फ्रैंचाइजी का मालिक गलत काम में शामिल पाया जाता है तो उस टीम को ब्लैक लिस्टेड कर दिया जाना चाहिेए। चेन्नई टीम के मालिक मयप्पन को तो पुलिस ने गिरफ्तार तक कर लिया, फिर भी उसे आईपीएल में आज तक क्यों बनाए रखा गया ? मीडिया ने ये सवाल आज तक नहीं उठाया।

आजकल मीडिया नैतिकता पर बहुत जोर दे रही है। जिससे भी इस्तीफा मांगना होता है, उसे नैतिकता के कटघरे में खड़ा कर देती है और इस्तीफे की मांग शुरू हो जाती है। मैं कहता हूं कि नैतिकता अपेक्षा भारतीय टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी से क्यों नहीं होनी चाहिए ? आपको इसकी वजह जाननी है तो मैं गिनाता हूं। भारतीय टीम के कप्तान धोनी बीसीसीआई अध्यक्ष श्रीनिवासन की कंपनी इंडिया सीमेंट में वाइस प्रेसीडेंट हैं। पहले वो एयर इंडिया में थे,  लेकिन श्रीनिवासन जब बीसीसीआई के अध्यक्ष बने और चेन्नई सुपर किंग टीम उन्होंने ली, तब धोनी एयर इंडिया से इस्तीफा देकर उनकी कंपनी से जुड़ गए । श्रीनिवासन के दामाद जो सट्टेबाजी के आरोप में गिरफ्तार है, उसका बयान है कि वो सट्टा लगाने से पहले धोनी से राय लिया करता था। इतना ही नहीं जिस सट्टेबाज विंदु दारा सिंह पर गंभीर आरोप लगा है कि वो सट्टेबाजी करता था, स्पाँट फिक्सिंग में उसका हाथ था, बुकीज के संपर्क में था, लड़कियों की सप्लाई करता था, वो विंदु धोनी और उनकी पत्नी का अभिन्न मित्र है। स्टेडियम में विंदु दारा सिंह भारतीय टीम के कप्तान धोनी की पत्नी साक्षी के साथ बैठ कर आईपीएल का मैच देख रहा था। मेरा सवाल है कि साक्षी क्यों विंदु दारा सिंह के साथ मौजूद थी ? वहां तो बहुत सारे सलेबिटीज मौजूद होते हैं, फिर विंदु ही क्यों ? क्या यहां नैतिकता का तकाजा नहीं है कि धोनी सफाई दें और जब तक मामले की जांच पूरी ना हो जाए वो कप्तानी छोड़ दें। छोटे मोटे खिलाड़ियों को पकड़ना और जेल में डालना आसान है, लेकिन धोनी जैसों पर हाथ डालने में सब सौ बार सोचते हैं। लेकिन बात नैतिकता की है तो धोनी भी नैतिक नहीं रह गया है।

मुझे लगता है कि अगर आज मीडिया ने केंद्र सरकार को निशाने पर लिया होता तो अब तक तस्वीर बदल चुकी होती। आप सब जानते हैं कि सरकार को देश के तमाम मंदिरों का अधिग्रहण करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। जैसे माता वैष्णों देवी, माता विंध्यवासिनी देवी, बाबा विश्वनाथ, तिरुपति बाला जी समेत सैकड़ों ऐसे मंदिर हैं, जिसका अधिग्रहण करने में सरकार को कोई हिचक नहीं रही। लेकिन बीसीसीआई जिसके खिलाफ बेईमानी के पुख्ता सबूत मौजूद है, उसके खिलाफ कार्रवाई में सौ बार सोचना पड़ रहा है। अगर सरकार में इच्छाशक्ति होती तो अब तक बीसीसीआई के मुख्यालय मुंबई में तालाबंदी हो चुकी होती। बीसीसीआई को भंग कर सरकार इसे अपने नियंत्रण में ले चुकी होती। लेकिन इसमें मुश्किल ये है कि बीसीसीआई में काग्रेस और बीजेपी के नेता ही नहीं बल्कि सरकार के सहयोगी दलों के भी तमाम नेता शामिल हैं। क्रिकेट एक ऐसा मामला है जहां हमाम में सभी नंगे हैं। बताइये गुजरात के मुख्यमंत्री जो बीजेपी से प्रधानमंत्री पद के लिए सशक्त दावेदारों में हैं, वो भी बीसीसीआई के आगे ऐसे दबे हुए हैं कि पूरे मामले में एक बार भी मीडिया के सामने नहीं आए। ऐसे नेता जब भ्रष्टाचार को लेकर आग उगलते हैं तो उनकी जुबान से बदबू आने लगती है। जेटली साहब की क्या बात है,  राज्यसभा में इनकी बड़ी-बड़ी बाते सुन लीजिए। लेकिन श्रीनिवासन के मामले में उसका तलुवा चाटते नजर आए। बिल्कुल बोलती बंद थी।

आपको पता है कि जब बात होती है कि बीसीसीआई को आरटीआई में शामिल किया जाए। यानि ये संस्था भी देश के नागरिकों के प्रति जवाबदेह हो। जो जानकारी आम आदमी चाहता है वो देने को बीसीसीआई मजबूर हो। इस पर कहा जाता है कि बीसीसीआई गैरसरकारी संस्था है, इसलिए इस पर आरटीआई नहीं लागू हो सकती। इन गैंडो से कोई पूछे कि इन पर सट्टेबाजी, स्पाँट फिक्सिंग, लड़कियों का शोषण ये सब इस्तेमाल करने की छूट है? आपको पता है कि खिलाडियों को अगर कोई सम्माम दिया जाता है तो उसकी प्रक्रिया क्या है ? मैं बताता हूं । देश में लगभग 40 खेलसंघ सरकार के खेल मंत्रालय से मान्यता प्राप्त है। पुरस्कार देने के लिए ये संघ ही खिलाड़ियों का नाम प्रस्तावित करते हैं, तभी खिलाड़ियों को पद्मश्री, अर्जुन पुरस्कार या अन्य राष्ट्रीय सम्मान मिलता है। लेकिन आज तक तमाम क्रिकेटर्स को राष्ट्रीय सम्मान मिल चुका है, कोई पूछे कि इनके नाम की सिफारिश किसने की ? पता चल जाएगा, यही विवादित बीसीसीआई इनका नाम भेजती है और हमारी सरकार उसे मान भी लेती है। मेरा सवाल है कि जब सरकार की बात मानने के लिए बीसीसीआई बाध्य नहीं है, तो इनके भेजे नाम पर राष्ट्रीय पुरस्कार भला कैसे दिए जा सकते हैं ? जवाब यही है कि हमाम में सब नंगे हैं।

सच कहूं ! बहुत सारी वजह हो सकती है जिससे बीसीसीआई पर नकेल कसी जा सके। लेकिन इस गोरखधंधे में लगभग सभी राजनीतिक दल के लोग शामिल हैं। इसलिए आज तक ये धंधा यूं ही चलता चला आ रहा है। दरअसल मीडिया की मजबूरी है, उसे लगता है कि देश में क्रिकेट बिकता है, इसलिए उसे क्रिकेट की खबरें दिखाना मजबूरी है। मै पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि मीडिया ने श्रीनिवासन के इस्तीफे को लेकर जिस तरह की एकजुटता दिखाई है, अगर यही एकजुटता बीसीसीआई पर लगाम कसने को लेकर दिखाती तो अब तक इसमें काफी सुधार हो चुका होता। वैसे अब ये मुद्दा गरम है, मीडिया को यहां ईमानदार होना पडेगा, उसे भूल जाना होगा कि धोनी उन्हें इंटरव्यू देता है या नहीं, बीसीसीआई के अधिकारी उन्हें अपने पास बैठाते हैं या नहीं। निष्पक्ष होकर वो बात करनी होगी, जिससे क्रिकेटप्रेमी कभी निराश ना हों। अगर मीडिया को लगता है कि आईपीएल में चीयरगर्ल यानि महिलाओं का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, तो इसी तरह एकजुटता दिखानी होगी। वरना तो इस खेल में सट्टेबाजी, स्पाँट फिक्सिंग और लकडीबाजी यूं ही चलती रहेगी।






Wednesday 22 May 2013

मीडिया : सरकार के खिलाफ हल्ला बोल !



लोकसभा का चुनाव कब होगा, ये अभी तय नहीं है, यूपीए में कौन से दल शामिल रहेंगे, ये भी तय नहीं है, एनडीए की मुख्य सहयोगी पार्टी जेडीयू का क्या रुख होगा, तय नहीं है। बात तीसरे मोर्चें की भी बहुत हो रही, इसमें कौन कौन शामिल होगा, जिम्मेदारी से कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन मीडिया ने सरकार के भविष्य का फैसला सुना दिया। एक जाने माने न्यूज चैनल ने अपने सर्वे में साफ किया है कि इस बार यूपीए का प्रदर्शन निराशाजनक रहेगा, खासतौर पर कांग्रेस का प्रदर्शन तो और भी बुरा होगा। वहीं एनडीए और बीजेपी के प्रदर्शन को बेहतर तो बताया गया है, लेकिन ये भी कहा गया है कि बहुमत एनडीए को भी नहीं मिलेगा। हालाकि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने ही अभी प्रधानमंत्री पद के लिए किसी नेता का नाम आगे नहीं किया है, लेकिन मीडिया ने इस बात पर भी सर्वे कर लिया और कहाकि प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी 36 फीसदी से ज्यादा लोगों की पहली पसंद हैं, जबकि  राहुल गांधी को महज 16 फीसदी लोग भी पसंद करते हैं। आईबीएन 7 के सर्वे में 65 फीसदी से ज्यादा लोग कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सीधे जिम्मेदार मानते हैं, मसलन मिस्टर क्लीन अब साफ सुथरे बिल्कुल नहीं रह गए। अच्छा मीडिया ने और विपक्ष यानि बीजेपी ने एक काम तो बढिया किया, कि उन्होंने यूपीए-2 के चार साल के कामकाज पर रिपोर्ड कार्ड पहले ही जारी कर दिया, वरना सरकार ने जो रिपोर्ट कार्ड पेश किया है, उसमें भी ईमानदारी नहीं दिखाई दे रही है।

अपनी बात शुरू करें, इसके पहले चैनलों के सर्वे पर एक नजर डाल लेते हैं। एबीपी न्यूज- नील्सन के सर्वे की माने तो 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 116 सीटों पर सिमट जाएगी,  मतलब उसे 90 सीटों का नुकसान होगा। लेकिन इससे बीजेपी को ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कांग्रेस के इस नुकसान का फायदा छोटी और क्षेत्रिय पार्टियों को ज्यादा होगा। 2009 में हुए लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार एनडीए को 27 सीटे ज्यादा मिलेगी, जबकि तीसरे मोर्चे की छोटी-छोटी पार्टियों को 68 से भी ज्यादा सीटों का फायदा होने वाला है।  भाजपा अखिल भारतीय स्तर पर सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरने वाली है। सर्वे के मुताबिक भाजपा को 137 मिल सकती है, तो कांग्रेस 206 सीटों से घट कर 116 पर आ गिरेगी। मतलब साफ है कि उसे 90 सीटों का नुकसान होने जा रहा है। अगर बीजपी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करती है तो भाजपा की सीटे बढेगी। छोटी सी चर्चा यूपी की कर दें, अभी यूपी में कांग्रेस के पास 21 सीटें है, सर्वे बता रहा है कि अगले चुनाव में सिर्फ सात रह जाएंगी। सर्वे रिपोर्ट में एक दिलचस्प जानकारी है, पिछली लोकसभा चुनाव में दिल्ली में बीजेपी को एक भी सीट नहीं मिली थी, इस बार चुनाव में कांग्रेस को यहां से एक भी सीट नहीं मिलने वाली है। मतलब दमदार नेता कपिल सिबब्ल की भी कुर्सी गई।

दूसरा सर्वे मैं अपने चैनल आईबीएन 7 का बता दूं। IBN7 और GFK-mode ने देश के 12 शहरों में 2466 लोगों से पूछे यूपीए-2 के चार साल के कार्यकाल पर कुछ अहम सवाल। इसके लिए पहले लोगों से सरकार और उसके मुखिया से जुड़े सवाल पूछे गए। नतीजा बताऊं, देश में ऐसी नाराजगी है सरकार को लेकर जो इसके पहले किसी भी सरकार के खिलाफ नहीं देखी गई। मसलन 68 फीसदी लोग चाहते हैं कि इस सरकार को सत्ता में बने रहने का अब कोई हक नहीं है। और तो और मिस्टर क्लीन बोले तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 65 फीसदी लोग कोयला घोटाले के लिए सीधे जिम्मेदार मानते हैं। बड़ा बुरा वक्त है प्रधानमंत्री जी। इतना गंभीर आरोप इसके पहले किसी प्रधानमंत्री पर नहीं लगा। बोफोर्स वगैरह तो फिर भी ठीक था, कोयले की कालिख ने तो सच में सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है। आईबीएन 7 के सवाल पर जवाब सुन लीजिए। 71 फीसदी ने कहा भ्रष्टाचार बढ़ा है, 20 फीसदी ने कहा जस का तस, 8 फीसदी मानते हैं कि भ्रष्टाचार घटा है, धन्य हैं प्रभु, कुछ लोग ये मानते तो हैं कि भ्रष्टाचार कम हुआ है। मंहगाई के बारे में पूछे गए सवाल पर 51 फीसदी ने कहा महंगाई तो बढ़ी है, 43 फीसदी का कहना है पहले जैसी ही है, 5 फीसदी लोगों की नजर में हर चीज का दाम बढ़ा है। पूछा गया कि क्या कोयला घोटाले के लिए प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं ? भाई 65 फीसदी ने हां में सिर हिलाया, लेकिन 28 फीसदी लोग प्रधानमंत्री के साथ भी हैं, उन्होंने कहा बिल्कुल नहीं। एक सवाल और हुआ कि क्या प्रधानमंत्री कार्यालय कोयला और टूजी घोटालों को दबा रहा है? यहां भी प्रधानमंत्री के खिलाफ ही जवाब आया। 64 फीसदी ने कहा हां, 25 फीसदी ने कहा नहीं,11 फीसदी का कहना है पता नहीं। आखिरी सवाल हुआ प्रधानमंत्री को लेकर, पूछा गया कि अगला प्रधानमंत्री कौन हो ? जवाब चौंकाने वाला रहा, 56 फीसदी ने कहा नरेंद्र मोदी जबकि सिर्फ 29 फीसदी का कहना है राहुल गांधी। जाहिर है झटका सिर्फ यूपीए सरकार को ही नहीं कांग्रेस के युवराज और प्रधानमंत्री पद के दावेदार के लिए भी है।

बहरहाल सर्वे तो कई और न्यूज चैनल और समाचार पत्रों ने भी किया है। कमोवेश इसी तरह के सवाल हैं और जवाब भी मिलते जुलते ही हैं। लेकिन अहम सवाल ये है कि आखिर अभी जब चुनाव की तारीख तय नहीं, गठबंधन की सूरत साफ नहीं, उम्मीदवार कौन होगा, ये पता नहीं, तो इस सर्वे की विश्वसनीयता भला क्या हो सकती है ? मैं तो एक और सवाल पूछना चाहता हूं कि आखिर मीडिया में हो रही इस बेमौसम बरसात की वजह क्या है। वैसे सच तो ये है कि किसी एक चैनल ने कुछ शुरू किया तो यहां प्रतियोगिता शुरू हो जाती है,  कौन पहले सर्वे कर लेता है। सर्वे में क्या क्या बातें बता देता है। यही एक ऐसा मामला है कि यहां कोई पिछड़ना नहीं चाहता। बहरहाल अगर आप व्यक्तिगत रूप से मेरी राय जानना चाहें तो मैं इसे बेमतलब का काम समझता हूं। मैं तो ऐसे सर्वे को "राजनीति का आईपीएल" ही समझता हूं। मतलब बाहर से ये आपका खूब मनोरंजन करेगा, लेकिन इसके अंदर क्या है, इस बारे में विश्वास के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता। सच कहूं तो इस बात का जवाब किसी भी मीडिया संस्थान के पास नहीं होगा कि जब राजनीतिक दलों ने अभी कुछ भी तय ही नही किया है तो ऐसे सर्वे पर भरोसा कैसे किया जा सकता है?  ना अभी राहुल गांधी को कांग्रेस ने उम्मीदवार घोषित किया है और ना ही नरेन्द्र मोदी को बीजेपी ने। ऐसे मे इन दोनों को केंद्र में रखकर किया गया सर्वे कितना भरोसे मंद होगा, ये तो मीडिया से जुड़े जिम्मेदार लोग ही बता सकते हैं। खैर मीडिया संस्थानों को अगर ऐसे सर्वे से खुशी मिलती है तो हमें आपको भला क्यों तकलीफ होनी चाहिए। आप भी देखते रहिए राजनीति का आईपीएल।

वैसे बड़ी बात ये है कि सरकार पर विपक्ष का हमला तो होता रहता है, लेकिन आज सरकार के खिलाफ मीडिया जिस तरह हमलावर है। कम से कम ये तो सरकार के लिए खतरे की घंटी ही कही जाएगी। ऐसे में सवाल ये है कि माहौल के मुताबिक सरकार कुछ सबक ले भी रही है या नहीं ! मैं तो यही कहूंगा कि मीडिया भले गैरजिम्मेदारी के साथ पेश आ रही हो, लेकिन सरकार को उन मसलों पर गहराई से विचार करना ही होगा, जो मामले मीडिया की सुर्खियों में हैं। इतना तो तय है कि ये सरकार अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है, मंत्रियों की करतूतों से सरकार का चेहरा दागदार है। बहुत जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं कि आज पीएम के पद की गरिमा तार-तार हो चुकी है। इस पद की हैसियत एक घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं रह गई है। लगता ही नहीं मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं, पहली नजर में तो यही दिखाई देता है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री का काम दिया गया है, जिसे वो एक नौकरशाह की तरह करने की कोशिश भर कर रहे हैं। ना वो नेता हैं और न ही उनमें नेतृत्व  का कोई गुण दिखाई दे रहा है।

वैसे सरकार के कामकाज पर उंगली उठाने का हक कम से कम आज मीडिया को तो नहीं रह गया है। देखा जा रहा है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनलों पर कुछ चुनिंदा लोगो के विचारों को थोपने की साजिश की जा रही है। एक तो ये " वरिष्ठ पत्रकार " का तमगा चैनल वाले ऐसे बांटते हैं कि पूछिए मत। सच कहूं तो ये पत्रकार कम राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि ज्यादा लगते हैं। कोई कांग्रेस से जुड़ा है, तो कोई बीजेपी में आस्था रखता है। कुछ का तो छोटे मोटे राजनीतिक दलों से ही दाना-पानी चल रहा है। आज मीडिया में काफी अत्याधुनिक तकनीक इस्तेमाल की जा रही है, सच कहूं तो पुराने लोग अब इस तकनीक के साथ चल नहीं पा रहे हैं, लिहाजा वो मजबूर हो जाते हैं नौकरी छोड़ने के लिए। अखबार या चैनल से नौकरी जाते ही वो बन जाते हैं वरिष्ठ पत्रकार। अच्छा इतने ज्यादा चैनल हो गए हैं कि उन्हें शाम की पंचायत के लिए राजनीतिक गेस्ट मिलते ही नहीं। ऐसे में मजबूरी हो जाती है कि कुछ पत्रकारों से ही काम चला लिया जाए। सच्चाई ये है कि चैनलों को अगर अच्छे गेस्ट मिल जाएं तो बेचारे "वरिष्ठ पत्रकार" को कोई पूछने वाला नहीं है।

अच्छा सम्मान किसे अच्छा नहीं लगता। चैनल के चौपाल में अगर एंकर उन्हें आठ-दस बार वरिष्ठ पत्रकार कह कर संबोधित करता है तो ये छोटी बात तो है नहीं। आपको नहीं पता  होगा, लेकिन जान लीजिए जैसे नेता लोग टिकट पाने के लिेए अखबारों की कटिंग लगाकर आवेदन करते हैं, वैसे ही पत्रकार जी लोग भी "पद्मश्री"  हासिल करने के लिेए इन पंचायतों की सीडी बनाकर नेताओं को सुनाते हैं, कहते हैं कि देखिए चुनाव के पहले से हम आपके बारे में कितनी बढ़िया-बढिया बातें करते रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार लोग अपने संस्थान में नौकरी पक्की करने के लिए ये "पद्मश्री" अखबार के मालिक को भी दिलाते रहते हैं। खैर मैं विषय से भटक रहा हूं, पर मेरा मानना है कि पत्रकारिता की पवित्रता को बनाए रखने के लिए पद्मम् सम्मान से पत्रकारिता की श्रेणी को तत्काल प्रभाव से खत्म कर दिया जाना चाहिए। इससे कम से कम कुछ हद तक सत्ता की दलाली पर रोक लग सकेगी। मैं पदम सम्मान हासिल किए हुए वरिष्ठ पत्रकारों को जब चैनलों की पंचायत में सुनता हूं तो मुझे उनकी सोच पर हैरानी होती है, फिर लगता है कि दोष इनका नहीं है, ये तो सिर्फ कर्ज उतार रहे हैं। लेकिन जिन्हें ये सम्मान अभी नहीं मिला है, वो तो इसे हासिल करने के लिए सारी मर्यादाएं तार-तार कर देते हैं। बहरहाल यूपीए की सरकार का क्या होगा ? ये तो भविष्य तय करेगा, लेकिन इतना तो सच है कि मीडिया ने सरकार के खिलाफ हल्ला बोल दिया है।