बिहार के नेताओं में कुछ तो समानता होगी ही ना । मुख्यमंत्री रहने के दौरान बिहार में लालू यादव अखबार वालों के साथ कैसा सुलूक करते थे, ये तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन दिल्ली में रेलमंत्री रहने के दौरान मैने देखा कि वो भी अपने खिलाफ अखबार में खबर देख कर भड़क जाते थे। जैसे नीतीश कुमार पर आरोप है कि वो सरकार के खिलाफ खबर लिखने वालों का विज्ञापन रोक देते हैं, ठीक वैसा ही लालू यादव के राज में रेल मंत्रालय में भी होता था। दिल्ली में भी बड़े-बड़े तुर्रम खां रिपोर्टर की हालत बेचारे जैसी बनी रहती थी। लिहाजा ज्यादातर अखबारी मित्रों ने हालात से समझौता कर लिया था। यही हालत आज बिहार में नीतीश कुमार की है। उनकी सरकार के खिलाफ जिसने भी अखबार रंगा, अगले दिन से उसका विज्ञापन रोक दिया जाता है, बस फिर क्या पूरा प्रबंधतंत्र सरकार के दरवाजे पर उल्टे सिर खड़ा दिखाई देता है।
बिहार सरकार के खिलाफ ये आरोप मैं नहीं लगा रहा हूं, बल्कि प्रेस परिषद ने शिकायत के आधार पर एक तीन सदस्यीय जांच कमेटी बनाई थी। जांच कमेटी ने बकायदा महीने भर से भी ज्यादा समय तक विभिन्न पहलुओं पर जांच पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में जो कुछ कहा गया है वो नीतीश सरकार की असल तस्वीर दिखाने के लिए काफी है। बिहार सरकार पर आरोप लगा है कि राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता करना अब कत्तई संभव नहीं है। यहां मीडिया को इमरजेंसी जैसी सेंसरशिप का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में अखबारों का भविष्य खतरे में है, क्योंकि विज्ञापन का भय दिखाकर प्रेस को सरकार का अघोषित मुखपत्र बनाने की कोशिश हो रही है। इस स्थिति से उबरने के लिए जांच दल ने दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन करते हुए विज्ञापन जारी करने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी के गठन की वकालत की है।
प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू द्वारा बनाई गयी तथ्यान्वेषी समिति ने कहा है कि बिहार में अखबार सरकार के दबाव के चलते भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को कम तरजीह दे रहे हैं। प्रेस परिषद की समिति का कहना है कि बिहार में पूरा मीडिया उद्योग खासकर राज्य सरकार के विज्ञापनों पर निर्भर करता है क्योंकि औद्योगिक रूप से पिछड़ा होने के कारण यहां निजी विज्ञापनों का टोटा रहता है। रिपोर्ट में टीम ने कहा है कि उसने छोटे और मझोले अखबारों के प्रतिनिधियों तथा बड़े प्रकाशनों के संपादकों से मिलने के विशेष प्रयास किये। रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री की सैकड़ों गतिविधियों को बड़े अखबारों में प्रमुखता से छापा गया जो पत्रकारिता के मानकों पर न तो प्रासंगिक थीं और ना ही खबर लायक थी। रिपोर्ट में कहा गया है, इमरजेंसी के दिनों में स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता पर जैसी सेंसरशिप लगी हुई थी, वह स्थिति वर्तमान में नीतीश सरकार के कार्यकाल में देखने को मिल रही है।
रिपोर्ट जो खुलासा हुआ है, उससे नीतीश सरकार की असल तस्वीर देश के सामने आ गई है। समिति ने यहां तक कहा है कि मौजूदा हालात में ज्यादातर पत्रकार यहां घुटन महसूस कर रहे हैं। स्वतंत्रतापूर्वक काम करने में वह खुद को असहाय पा रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार सरकारी खौफ के चलते आंदोलन, प्रदर्शन, प्रशासन की कमियों को उजागर करने वाली और जनसमस्याओं से जुड़ी खबरों को अखबारों में स्थान ही नहीं मिल पा रहा है। सरकार के दबाव के कारण भ्रष्टाचार उजागर करने वाली खबरों को जगह नहीं मिल पा रही है। कवरेज में विपक्ष की अनदेखी कर सत्तापक्ष की मनमाफिक खबरों को तरजीह देना पत्रकारों की मजबूरी बन गई है। जांच टीम ने यहां तक कहा है कि मीडिया के ऊपर इस तरह के अप्रत्यक्ष नियंत्रण से लोगों के सूचना हासिल करने का अधिकार बाधित हो रहा है। इससे अनुच्छेद 19 [1] के तहत प्रदत्त संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।
रिपोर्ट में कुछ मजेदार बातें भी हैं। सूबे की सरकार जो खबर अखबार में छपवाने के लिए बेचैन रहती है, वो खबर पत्रकारों या संपादकीय विभाग को ना भेज कर सीधे अखबार के प्रबंधन को दी जाती है। प्रबंधन ही संपादकीय विभाग पर दबाव बनाकर ये खबर प्रकाशित कराते हैं। समिति ने कहा, ‘‘सरकारी विज्ञापनों का लाभ उठाने वाले अखबारों के प्रबंधन लाभकारी संस्थानों के प्रति शुक्रगुजार रहते हैं और उनकी नीतियों की तारीफ करते हैं।’’ समिति के अनुसार अनेक पत्रकारों ने टीम के सदस्यों को फोन करके इस संबंध में अपनी दिलचस्पी दिखाई लेकिन दबाव के चलते नाम नहीं जाहिर करने का भी अनुरोध किया। बताइये क्या हाल हो गया है वहां बेचारे पत्रकारों का।
रिपोर्ट के अनुसार अनेक पत्रकारों ने किसी कथित घोटाले से जुड़ी खबर के प्रकाशन के चलते वरिष्ठ दर्जे के पत्रकारों के स्थानांतरण का भी जिक्र किया। पीसीआई के दल ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें भी की हैं। दल ने सुझाव दिया है कि बिहार सरकार को प्रदेश में निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए सकारात्मक माहौल बनाना चाहिए और पत्रकारों के खिलाफ लंबित सभी मामलों की समीक्षा एक स्वतंत्र न्यायिक आयोग द्वारा की जानी चाहिए। समिति ने सरकार से पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का भी आग्रह किया है। समिति की रिपोर्ट से ये साफ हो गया है कि सूबे की सरकार अखबारों के जरिए बिहार की जो तस्वीर देश को दिखा रही है, दरअसल वो सही नहीं है। असल तस्वीर कुछ और ही है, यानि भयावह और डरावनी है।
अब नीतीश सरकार पर ये आरोप किसी विरोधी दल ने लगाया होता तो कहा जाता कि विपक्ष का काम ही है सरकार का विरोध करना। लेकिन ये आरोप तो प्रेस परिषद ने लगाया है। वैसे इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद भला लालू कहां चूकते, उन्होंने अपने ही अंदाज में कह दिया कि सरकार के लोगों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। चलिए लालू का सुझाव सरकार तक पहुंच जाएगी, लेकिन लालू जी दिल्ली में रेल मंत्रालय में बैठकर आप क्या करते थे, पता नहीं आपको याद भी है या नहीं। नहीं याद है तो मैं बता देता हूं। आप भी कमोवेश यही काम करते थे, लेकिन आपके चंगुल में सिर्फ अखबार का प्रबंधन भर नहीं था, तमाम पत्रकार भी आपके हां में हां मिलाते रहे और आप उन्हें रेल का फ्री पास देकर खुश कर दिया करते थे।
बहरहाल इस रिपोर्ट के बाद मुझे लगता है कि अब बिहार में इलेक्ट्रानिक मीडिया को मोर्चा संभालना चाहिए, क्योंकि कम से कम इलेक्ट्रानिक मीडिया को बिहार सरकार के विज्ञापन की उतनी जरूरत बिल्कुल नहीं है, जितनी प्रिंट को है। मैं काफी समय तक प्रिंट में रह चुका हूं, इसलिए मुझे पता है कि बिहार में अखबार बगैर सरकारी विज्ञापन के वाकई नहीं निकल सकते। मैं अगर बिहार को उद्योग शून्य कहूं तो गलत नहीं होगा, मुझे नहीं लगता है कि वहां कोई भी ऐसा उद्योग है जो साल में एक बार भी पूरे पेज का विज्ञापन दे सकने की क्षमता रखता हो। अगर जनता की अखबार की जरूरत पूरी करनी है तो विज्ञापन चाहिए और विज्ञापन के लिए अगर सरकार इस हद तक नीचे गिरती है तो प्रबंधन के सामने दो ही रास्ता है या तो वो सरकार से समझौता करे या फिर अखबार को बंद कर दिया जाए। एक अखबार के बंद होने का मतलब आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि इससे हजारों लोगों की रोजी रोटी जुडी होती है। लिहाजा मैं तो कहूंगा कि इलैक्ट्रानिक मीडिया कम से कम नीतीश का असली चेहरा देश के सामने लाए।