Friday 28 December 2012

गैंगरेप : जिम्मेदार बने मीडिया !

आज ही खबर मिली है दिल्ली गैंगरेप की शिकार बेटी की तड़के सवा दो बजे के करीब मौत हो गई। हमें पता है  कि  दिल्ली की संवेदनशील जनता आज एक बार फिर सड़कों पर होगी, बेटी को श्रंद्धांजलि देने के लिए। मुझे लगता है कि इसके बाद लोग भी घर बैठ जाएंगे और न्यूज चैनलों का ये पखवाड़े भर का टीवी शो भी बंद हो जाएगा। कल से टीवी पर नए साल का जश्न शुरू हो जाएगा। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का ये कहना कि वो नया साल सादगी से मनाएंगी, इससे आम जनता का भला क्या लेना देना है, बंगले  की चारदीवारी के भीतर उनके यहां नए साल का जश्न कैसे होता है ये तो वही जान सकते हैं जिसे वहां मौजूद होने का निमंत्रण मिलता है। आम आदमी से भला इसका क्या लेना देना है। लेकिन  अभी  तक किसी चैनल ने ये ऐलान नहीं किया कि इस बार चैनल नए साल पर खुद को रंगारंग कार्यक्रमों से दूर रखेंगे। अगर बेटी को सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो न्यूज चैनल और मनोरंजक चैनल भी  ऐलान करें कि वो नए साल पर सादगी बरतेगें।


दिल्ली गैंगरेप का मुद्दा काफी संवेदनशील है, मैं बेवजह किसी की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता , लेकिन मुझे लगता है कि मीडिया से जुड़े होने के कारण मुझे कम से कम इस पूरे मामले में मीडिया की भूमिका पर जरूर अपनी बात रखनी चाहिए। अगर ये बात मैं ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि मीडिया को इस पूरे मामले में जितना संवेदनशील और सतर्क होकर काम करना चाहिए था, कहीं ना कहीं उसमें कमी रही। कमी थोड़ी बहुत नहीं, बल्कि मैं कहूंगा कि बहुत ज्यादा कमी रही। मुझे ये कहने में कत्तई संकोच नहीं है कि मीडिया को जहां इस संवेदनशील मुद्दे पर आगे बढ़कर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभानी चाहिए थी, वो जिम्मेदारी निभाने में मीडिया चूक गई, बल्कि मीडिया महज जंतर मंतर और इंडिया गेट पर जमीं भीड़ का हिस्सा भर बनकर रह गई। सच्चाई तो ये है कि मीडिया भीड़ के उबाल में अपनी टीआरपी बटोरने में लगी रही। हां वैसे हिंदी समाचार पत्र दैनिक भाष्कर ने जरूर कुछ अलग करने की कोशिश की, मगर उसमें भटकाव दिखा, वो क्या करना चाहते हैं, उनका फोकस क्लीयर नहीं था।

23 साल की इस लड़की के साथ जो हुआ वो देश को शर्मसार करने वाला है। कितना भी पत्थर दिल इंसान हो, जो भी इस घटना को सिलसिलेवार सुनता है, उसकी आंखें डबडबा जाती हैं। लेकिन ये वक्त रोने पीटने का नहीं है, बल्कि सबक लेने का है, सोचने का समय है कि आखिर देश में ऐसा क्या किया जाए, जिससे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने से रोका जा सके। पहले मेरा सवाल मीडिया और सामाजिक संस्थाओं से है। जब समाज के बड़े सफेदपोशों के मामले खुलते हैं तो क्यों नहीं जनता इस तरह सड़कों पर उतरती है ? क्यों नहीं उस समय फांसी की मांग होती है। हरियाणा के पूर्व डीजीपी को हम सब नहीं भूल सकते, जिसने एक नाबालिक लड़की से छेड़खानी की। लंबी मूंछो वाला ये सख्स कोर्ट में भी मुस्कुराता रहता था। उत्तर प्रदेश में कवियित्री मुधमिता के साथ क्या हुआ, एक पूर्वमंत्री अभी भी जेल में हैं। हरियाणा के एक पूर्वमंत्री के दुर्व्यवहार  से परेशान होकर एयर होस्टेज ने खुदकुशी कर ली। पूर्वमंत्री, पूर्व राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के बारे में तरह तरह की बातें सामने आती रहती हैं। ये तमाम मुद्दे ऐसे थे कि मीडिया को इन सबके खिलाफ उसी समय एक ऐसा देशव्यापी अभियान छेड़ देना चाहिए था कि अब तक ना सिर्फ सख्त कानून बन चुका होता, बल्कि दो चार नेता और अफसर सूली पर चढाए जा चुके होते।

मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर मीडिया ये भीड़ की आड़ में कब तक अपनी टीआरपी की बटोरती रहेगी। अन्ना ने दिल्ली में भीड़ जमा किया, मीडिया उनके पीछे खड़ी हो गई। बाबा रामदेव ने भीड़ जमा किया हम उनके साथ जा खड़े हुए। दिल्ली में गैंगरेप से उबली जनता सड़कों पर आई, मीडिया उनके पीछे खड़ी हो गई। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ इतना कमजोर है कि इसे अपनी बात कहने के लिए भीड़ का सहारा लेना होता है ? क्या मीडिया गंभीर मुद्दों पर एकराय बनाकर अपनी राय आगे नहीं बढ़ा सकती। मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया गया है कि मीडिया को भी अपनी लक्ष्मण रेखा लांघ कर आगे आना होगा और हर मुद्दे पर अपनी सख्त और तर्कपूर्ण राय रखनी ही होगी। लेकिन ये तभी संभव है, जब मीडिया के लोग भी सामाजिक जीवन में खुद बेदाग रहेंगे। देश में ही ऐसे तमाम उदाहरण है जब कार्यपालिका और व्यवस्थापिका अपना काम जिम्मेदारी के साथ नहीं निभाती है तो न्यायपालिका आगे आती है, जबकि हम सभी जानते है कि तीनों के कार्यक्षेत्र बटे हुए है, फिर न्यायपालिका अपनी भूमिका निभाने से पीछे नहीं रहती और हम बस इस्तेमाल भर होते रहते हैं।

आइये अब मुद्दे की बात करते हैं। गैंगरेप के बाद लड़की की हालत नाजुक बनी हुई थी, इस घृणित वारदात के बाद पूरे देश में गुस्सा है। दिल्ली समेत देश के दूसरे हिस्से में भी लोग सड़कों पर हैं। मांग हो रही है कि बलात्कारियों को फांसी दी जाए। इस गुस्से के पीछे  भावना साफ है कि अभियुक्तों को इतनी सख्त सजा दी जानी चाहिए,  जिससे भविष्य में ऐसी घटनाएं ना हों, लोगों में कानून का डर हो। मैं बार-बार एक बात जोर देकर कहता हूं कि सख्त कानून तो बन जाएगा, लेकिन ये दो कौड़ी के नेताओ से हम कैसे निपटेंगे ? ईमानदारी से सोचिए जिन लोगों को पूरी न्यायिक प्रक्रिया के बाद फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, ये नेता उन अभियुक्तों को फांसी देने को तैयार नहीं है। ये यहां भी वोट की राजनीति देख रहे हैं। सच बताऊं उस समय हम सबको ज्यादा तकलीफ होगी जब किसी बलात्कारी को फांसी की सजा तो सुनाई जा चुकी होगी, लेकिन वो देश के किसी नेता का बेटा होगा,  जिसकी वजह से फांसी पर लटकाया नहीं जाएगा।

इसी मामले में ले लीजिए, इस घटना के बाद देश गुस्से में था, पर सरकार की चिंता कुछ और ही थी। सरकार को लग रहा था कि लड़की की हालत नाजुक है, अगर कुछ ऐसा वैसा हो गया तो कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है, लिहाजा इसे इलाज के लिए बाहर भेज दिया जाए। इससे देश में संदेश जाएगा कि लड़की की जान बचाने को लेकर सरकार बहुत गंभीर थी, इसी वजह से उसे विदेश यानि सिंगापुर भेजा गया। सच्चाई ये है कि लड़की की हालत नाजुक बनी हुई थी, ऐसे में उसे विदेश ले जाना ही खतरे से खाली नहीं था। इसलिए ये सवाल भी  उठ रहा है कि विदेश भेजने का फैसला डाक्टरों का था या सरकार का। अंदर की बात पता करने के लिए मीडिया को सामने आना होगा, गृहमंत्री तो इसे चिकित्सकों का फैसला बता रहे हैं। हालाकि मुझे सरकार की बातों पर बिल्कुल भरोसा नहीं है।

सरकार का कहना है कि अगर जरूरत पड़ी तो इंगलैंड और अमेरिका के डाक्टरों को सिंगापुर बुलाया जाएगा और इलाज में उनकी मदद ली जाएगी। मेरा सवाल है कि अगर डाक्टर अमेरिका और इंगलैंड से सिंगापुर आ सकते हैं तो भारत क्यों नहीं आ सकते ? इसी से लगता है कि सरकार की पूरे मसले पर नीयत साफ नहीं है। कहा तो ये जा रहा है कि लड़की को यहां बेहतर चिकित्सा सुविधा मिल रही थी, उसका इलाज सही दिशा में चल रहा था। रही बात आंत के ट्रांसप्लांट की तो पहले उसे संक्रमण और अन्य घाव से आराम मिलता फिर उसे बाहर भेजा जाता। यहां के डाक्टरों की भी यही राय बताई जा रही है। अगर ये बात सही है कि उसका इलाज यहां नहीं हो सकता था तो उसे बाहर भेजने में इतनी देरी क्यों की गई, पहले दूसरे दिन ही क्यों नहीं उसे भेज दिया गया। 10 दिन से ज्यादा यहां रखकर समय क्यों खराब किया गया। बहरहाल लड़की स्वस्थ हो और दीर्घायु हो, हम तो यही कामना करते हैं, लेकिन सरकार की सोच वाकई नकारात्मक दिखाई दे रही है।  

दिल्ली के इस गैगरेप  के बाद देशवासियों का गुस्सा भले ही उबाल पर है,लोग सड़कों पर गुस्सा उतार रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि ये सियासी जमात भी इसके  लिए कम जिम्मेदार नहीं है। क्योंकि ये भी तो दूध के धुले नहीं हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में ऐसे कई नेता हैं जिन पर बलात्कार के आरोप लगे हैं। ऐसा नहीं है कि ये आरोप इन नेताओं के विरोधी लगा रहे हैं या फिर उनपर झूठा इल्ज़ाम है,  बल्कि इन नेताओं ने चुनाव आयोग के सामने जो शपथ पत्र दिया है उसमें उन्होंने खुद कहा है कि उनके खिलाफ बलात्कार के आरोप हैं। पाँच सालों की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो नेशनल इलेक्शन वाच के आंकड़ों के अनुसार 6 एमएलए ऐसे हैं जिन पर बलात्कार के आरोप हैं। इन में तीन का संबंध उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी से हैं। इन बलात्कारी एम एल ए के नाम हैं भगवान शर्मा, अनूप संदा और मनोज कुमार पारस। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के मोहम्मद सलीम, गुजरात में बीजेपी के जेठा भाई और आंध्र प्रदेश में टीडीपी के कंडीकुंटा वेंकटा प्रसाद पर भी बलात्कार के आरोपी हैं।

36 एमएलए ऐसे हैं जिन्होंने अपने शपथ पत्र में बताया था कि उनपर महिलाओं के खिलाफ अतत्याचार के आरोप हैं। इन 36 एमएलए में से 6 का संबंध कांग्रेस से , पाँच का संबंध बीजेपी से और 3 का संबंध समाजवादी पार्टी से है। यानि अपराधियों को और महिलाओं के खिलाफ ज़ुल्म करने वालों को टिकट देने में बड़ी पार्टियां भी पीछे नहीं रहती हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा 8 एमएलए ऐसे हैं जिन पर किसी न किसी रूप में महिलयों पर ज़ुल्म के आरोप हैं। उड़ीसा और बंगाल में ऐसे 7-7 एमएलए हैं जिन पर महिलाओं पर ज़ुल्म करने का आरोप है।

दिल्ली में गैंग रेप के बाद लंबे चौड़े भाषण देने वाली बड़ी बड़ी पार्टियों हमेशा आरोपियों को टिकट दिये, इनमें वह आरोपी भी शामिल हैं जिनपर महिला से रेप के आरोप लगे हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पाँच सालों में विभिन्न पार्टियों ने ऐसे 27 लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया जिन पर बलात्कार के आरोप थे। इन 27 उम्मीदवारों में से 10 का संबंध उत्तर प्रदेश से है जबकि 5 बिहार से संबंध रखते हैं। पार्टियों की बात करें तो इन 27 रेप के आरोपियों में से सात आज़ाद उम्मीदवार थे, 5 समाजवादी के उम्मीदवार थे, जबकि 2-2 को भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया था।

पाँच वर्षों के दौरान राजनीतिक पार्टियों ने 260 ऐसे लोगों को टिकट दिया था जिनपर किसी न किसी रूप में महिलाओं के खिलाफ आरोप लगे थे। ऐसे उम्मीदवार सिर्फ छोटी पार्टियों के नहीं थे बल्कि देश कि बड़ी बड़ी पार्टियों ने भी ऐसे लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया था जिन पर यह आरोप थे कि उनहों ने किसी न किसी रूप में महिला का अपमान किया। महिलाओं पर ज़ुल्म के आरोपी ऐसे उम्मीदवारों में 72 आज़ाद उम्मीदवार थे जबकि कांग्रेस ने 26 और बीजेपी ने 24 आरोपियों को अपना उम्मीदवार बनाया। बहुजन समाज ने ऐसे 18 जबकि समाजवादी पार्टी ने 16 लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया था। राज्यों कि बात करें तो ऐसे सबसे अधिक 41 उम्मीदवार महाराष्ट्र में थे जिनपर महिलाओं के अपमान के आरोप लगे थे। उत्तर प्रदेश में ऐसे 37 जबकि बंगाल में ऐसे 22 लोगों को पार्टियों ने अपना उम्मीदवार बनाया था। 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टियों ने 6 ऐसे व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया था जिन पर बलात्कार के आरोप थे। कुछ  समय पहले कांग्रेस के एक प्रवक्ता की सीडी सामने आई थी, उसके बाद कांग्रेस ने उसे कुछ दिन के लिए प्रवक्ता के पैनल से हटा दिया और अब उन्हें दोबारा ये जिम्मेदारी दे दी गई है। देश की मीडिया आज तक इस मामले में क्यों खामोश है ? कौन जवाब दे सकता है।

इस रिपोर्ट का जिक्र महज  इसलिए कर  रहा हूं ताकि मैं नेताओं की असल तस्वीर आपके सामने रख सकूं। आज भी सरकार और विपक्ष में तमाम नेताओं के चरित्र को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। ऐसे में अब वक्त आ गया है कि सबको अपनी अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आना होगा। खासतौर पर मीडिया को अपनी भूमिका पर फिर से विचार करने की जरूरत है, मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि मीडिया को भीड़ के पीछे नहीं भीड़ के आगे रहने की जरूरत है। मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मीडिया कब तक भीड़ का हिस्सा बनती रहेगी। मैं दैनिक भाष्कर के प्रयासों को सलाम करता हूं, कम  से कम उन्होंने कुछ अलग करने का सोचा तो। ये अलग बात है कि उनकी दिशा और फोकस साफ नहीं है।

( नोट.. आपको याद है कि आपने एनडी तिवारी, गोपाल कांडा, अमरमणि त्रिपाठी, स्वामी नित्यानंद, स्वामी चिन्मयानंद, महिपाल मदेरणा, एसपीएस राठौर, चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद, रवीन्द्र प्रधान ये सब नाम कहां सुना है, कुछ याद आ रहा है आपको । नहीं याद, कोई बात नहीं। देखिए मेरा ब्लाग "आधा सच"  http://aadhasachonline.blogspot.in/2012/12/blog-post_30.html#comment-form )



Saturday 1 December 2012

खुद खबर बन गए बेचारे संपादक "जी "


दूसरों की खबर बनाने वाले संपादक आज खुद खबर बन गए हैं। जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी के खिलाफ पहले तो ब्लैकमेंलिग का केस दर्ज किया गया अब संपादक जी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है, पहले तीन दिन के लिए पुलिस ने उन्हें पूछताछ के लिए रिमांड पर लिया अब उन्हें जेल भेज दिया गया हैं। खअगर जमानत ना मिली तो जेल में सपादक को 14 रातें बितानी पड़ेंगी। सवाल ये है कि क्या अब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ लड़खड़ाने लगा है ? क्या अब ये स्तंभ जिम्मेदार कंधो पर नहीं है ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिससे मीडिया को भी गुजरना होगा। मैं तो खुद इलैक्ट्रानिका मीडिया का हिस्सा हूं, फिर भी मुझे ये कहने मे संकोच नहीं है की इस माध्यम को अभी बहुत जिम्मेदार बनाने की जरूरत है। जिम्मेदार बनाने की प्रक्रिया क्या हो, इस पर जरूर  बहस हो सकती है। लेकिन अगर समय रहते इलेक्ट्रानिक मीडिया ने खुद को दुरुस्त नहीं किया तो आने वाले समय में इसकी कीमत चुकानी होगी। 

आप जानते ही है कि पहली बार नामचीन चैनल जी न्यूज के संपादक ही बेचारे कैमरे की चपेट में आ गए। स्टिंग आपरेशन का जो हिस्सा सामने आया है, उसे देखने से साफ है कि वो अपने चैनल पर चल रही खबर को रोकने के लिए 100 करोड़ रुपये का सौदा कर रहे हैं। वैसे तो सुधीर चौधरी किसी परिचय के मोहताज नहीं है। आपको याद होगा दिल्ली में एक टीवी चैनल ने लगभग दो साल पहले एक खबर चला दी कि महिला टीचर स्कूल की बच्चियों से वैश्यावृत्ति कराती है। इस खबर के बाद बेचारी टीचर का जीना मुहाल हो गया। उसे पब्लिक के गुस्से का भी सामना करना पड़ा। बाद में जांच हुई तो ये खबर गलत साबित हुई। इस मामले को केंद्र सरकार ने काफी गंभीरता से लिया और चैनल को पूरे महीने भर के लिए आफ एयर ( यानि बंद ) कर दिया। ये एतिहासिक काम तब हुआ जब इस चैनल में यही सुधीर चौधरी ही संपादक थे। वैसे श्री चौधरी का पहले भी सीबीआई से भी पाला पड़ चुका है।

न्यूज चैनलों के संपादकों की संस्था ब्राडकास्टिंग एडीटर्स एसोसिएशन ( बीएई) ने अपनी संस्था की साख बचाए रखने के लिए संपादक चौधरी की सदस्यता को खत्म कर उन्हें कोषाध्यक्ष पद से मुक्त कर दिया है। माना जा रहा था कि चैनल की साख बचाए रखने के लिए जी न्यूज का प्रबंधन चौधरी के खिलाफ कोई सख्त  कार्रवाई करेगा, लेकिन प्रबंधन इसे गलत नहीं मानता है। बहरहाल संपादकों और प्रबंधन दोनों को इलेक्ट्रानिक मीडिया की छवि की चिंता करनी चाहिए, वरना मीडिया की साख का क्या होगा ? सवाल तो ये भा बना हुआ है कि अगर मीडिया की नैतिक शक्ति ही नहीं बचेगी और वह मुनाफे की भेंट चढ़ जाएगी तो लोकतंत्र के एक मजबूत खंभे को ढहने से भला कौन बचा पाएगा ?

संक्षेप में पूरा मामला  आपको  बता दूं, दरअसल पिछले दिनों देश मे कोल ब्लाक आवंटन का मामला छाया रहा, सभी चैनल और अखबारों ने इस मामले में बहुत खबरें कीं। जी न्यूज पर भी तमाम खबरें चलीं। बाद में जी न्यूज ने सीधे सीधे जिंदल की कंपनी को टारगेट कर एक सीरीज ही चला दी। खबर गलत और सही पर हम बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन आरोप ये लग रहा है कि खबर रोकने की कीमत लगाई गई सौ करोड रुपये। आरोप है कि इस सौदे को अंतिम रुप देने के लिए संपादक सुधीर चौधरी खुद एक होटल पहुंच गए। वहां पहले से ही कैमरे लगाए गए थे, जिसमें बेचारे संपादक जी की आवाज रिकार्ड हो गई। हालाकि मैं एक बात साफ कर दूं कि संपादक सौ करोड़ रुपये अपने लिए नहीं मांगे, उन्होंने 100 करोड का विज्ञापन चैनल को देने का प्रस्ताव रखा था।
न्यूज चैनल में पहली बार एक नई बात पता चल रही है। कहा जा रहा है कि सुधीर चैनल के संपादक के साथ ही विजिनेस हेड भी हैं। लिहाजा विज्ञापन के लिए वो तमाम लोगों के साथ जहां तहां मीटिंग करते रहते हैं। सच कहूं तो ये तर्क सही हो सकता है, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया में शायद ये पहला उदाहरण हो कि संपादक ही चैनल का विजिनेस हेड है। ऐसे में सवाल उठता है कि कोई संपादक खबर को लेकर निर्णय करे और वही आदमी खबर को लेकर बिजनेस का निर्णय करे तो खबर हावी होगी या बिजनेस? स्पष्ट है बिजनेस के लिए खबर हावी होगा और उस खबर से बिजनेस होगा। जी न्यूज से यही खेल चल पड़ा है और यह खेल पेड न्यूज से कहीं ज्यादा बदबूदार है।

मेरा मानना है कि अगर ये बात साबित हो जाती है कि  जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी चैनल प्रंबधन की जानकारी में ये सौदा करने गए थे तो अकेले चौधरी ही सजा क्यों भुगतें ? फिर तो उतनी ही जिम्मेदारी प्रबंधन की भी है। वैसे स्टिंग आपरेशन का खुलासा हो जाने के बाद भी आज तक प्रबंधन ने चौधरी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, इससे तो यही लगता है कि इस पूरे मामले की जानकारी प्रबंधन को थी। खैर पुलिस  अपना  काम  कर रही है, कुछ दिन में सारे तथ्य सामने आ जाएंगे। लेकिन मीडिया का जो रूप  सामने आया है वो बहुत डरावना है। आज देश भर में भ्रष्टाचार एक  बड़ा मुद्दा बना हुआ है। लोगों को भरोसा  की इस आंदोलन को मीडिया का भरपूर सहयोग मिलेगा। लेकिन संपादक की गिरफ्तारी से लोगों का इस संस्था पर से भरोसा भी कम हुआ है।   

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