Monday 25 March 2013

हद है फिल्मी पत्रकारिता की !


टीवी जर्नलिज्म वैसे ही विश्वसनीयता के संकट से गुजर रहा है, उसमें फिल्मी पत्रकारिता का हाल तो भगवान ही जानें। यहां तो अभिनेता जब भी पत्रकारों से मिलते हैं तो उसे बताते हैं कि आपके चेहरे पर कैसी दाढी अच्छी लगेगी और आपका हेयर स्टाइल क्या होना चाहिए। कुछ पत्रकार जो अभिनेता के ज्यादा करीब होते हैं, अभिनेता अपने स्टाइलिस को बोल देते हैं कि जरा पत्रकार जी को भी स्टाइल बताइये। रही बात अभिनेत्रियों की तो वो विदेशों से लौटते वक्त कुछ लिपिस्टिक और क्रीम साथ लाती हैं, जिससे महिला पत्रकारों की खूबसूरती में चार चांद लग सके। जो हालात हैं उससे तो यही लगता है कि इन पत्रकारों को पत्रकारिता से कोई लेना देना ही नहीं है। वरना शनिवार 23 मार्च को सलमान खान जैसे अभिनेता को लेकर जो खबरें घंटो चलती रहीं, उससे तो हर चैनल के फिल्मी पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। तमाम चैनलों पर दोपहर तक फिल्मी पत्रकार चीखते रहे कि काले हिरन के शिकार के मामले मे कोर्ट में पेश होने के लिए सलमान खान मुंबई से चार्टर प्लेन से जोधपुर रवाना हो गए, जबकि सलमान देश में ही नहीं थे वो अमेरिका में इलाज करा रहे थे।

फिल्मी पत्रकारिता में ऐसा तो होता नहीं है कि बड़े-बड़े अभिनेता या अभिनेत्रियों के खिलाफ इतनी खबरें चैनल में चल रही हैं कि वो रिपोर्टर से सीधे मुंह बात ना करते हों। अरे भाई फिल्मी पत्रकारिता तो वैसे भी फिल्मी कलाकारों को " ओब्लाइज " करने वाली हो गई है। अब तो एक फिल्म बनी नहीं कि बड़े से बड़े कलाकार दिल्ली में डेरा डाल देते हैं और हर चैनल में जाकर इंटरव्यू देते हैं। आप देखते होगें कि पहले इन कलाकारों से चैनल का बहुत सीनियर एंकर इंटरव्यू करता था, परंतु अब बिल्कुल ऐसा नहीं है। दो दिन पहले चैनल ज्वाइन करने वाले को भी इन कलाकारों के इंटरव्यू करने को कह दिया जाता है। अव्वल तो अब रिपोर्टर से कह देते हैं कि आप ही बातचीत कर लो। बहरहाल मुद्दा ये है कि जब चैनल इनके लिए इतना कुछ करते हैं तो क्या ये कलाकार आपसे एक मिनट की फोन पर बात नहीं कर सकते। शनिवार की शर्मनाक घटना से तो यही साबित होता है । आपको पता ही है कि काले हिरन के शिकार के मामले में 23 मार्च शनिवार को सलमान खान को जोधपुर की अदालत में पेश होना था। चैनलों के रिपोर्टर सुबह से चीखने लगे कि सलमान जोधपुर जाएंगे। चैनल का रिपोर्टर जो सलमान के घर के बाहर खड़ा है वो बता रहा है कि सलमान काली कार से एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए। थोड़ी देर बाद खबर चली कि मुंबई से सलमान चार्टर प्लेन से जोधपुर के लिए उड़ गया।

मुंबई मीडिया की इस खबर के बाद चैनलों की ओवी वैन जोधपुर एयरपोर्ट की ओर रवाना हो गई। रिपोर्टर और कैमरामैन ने भी वहां मोर्चा संभाल लिया। अब बारी थी जोधपुर के रिपोर्टर के चीखने की, उसने भी शुरू कर दिया कि कुछ देर में सलमान का चार्टर प्लेन यहां उतरने वाला है। सब हवा में बातें कर रहे हैं, क्योंकि इसी बीच न्यायालय में सलमान के वकील ने एक अर्जी दी, जिसमें कहा गया कि सलमान इलाज के लिए अमेरिका गए हैं, उन्हें डाक्टरों ने सफर की इजाजत नहीं दी, लिहाजा उन्हें आज कोर्ट में उपस्थिति से छूट दे दी जाए। सच कहूं पहले तो हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया, फिर तकलीफ भी हुई कि क्या चैनल के रिपोर्टर्स की पहुंच इतनी भी नहीं है कि वो ये पता कर पाएं कि सलमान देश में है या नहीं। कोर्ट में पेशी के लिए जोधपुर जाएंगे या नहीं। अब न्यायालय में खड़े रिपोर्टर ने जब बताया कि सलमान के वकील तो बता रहे हैं कि सलमान अमेरिका में है तो मुंबई के रिपोर्टर ने बड़े ही आसानी से कह दिया कि फिर वो सही कह रहा होगा। अरे भाई मेरा सवाल है कि इतनी बड़ी चूक के लिए जिम्मेदार कौन है ?

आपको  पता है कि ये फिल्मी कलाकार सेलेब्रेटी हैं, जब जोधपुर के लोगों को पता चला कि वो एयरपोर्ट पर आने वाले हैं तो जाहिर है बड़ी संख्या में लोग वहां पहुंच गए अपने हरदिल अजीज कलाकार से मिलने के लिए, उसकी एक झलक पाने के लिए। अब ये प्रशंसक किससे शिकायत करें। इनकी सुनवाई कहां होगी। बहरहाल शनिवार की गलती का असर आज दिखाई दिया। सलमान अमेरिका से कल रविवार को मुंबई वापस लौटे और एयरपोर्ट से सीधे संजय दत्त से मिलने चले गए, हालाकि ये खबर फिल्मी रिपोर्टरों को नहीं पता है । बहरहाल आज तो चैनल के रिपोर्टर ने जिस तरह की बात की, उससे साफ हो गया कि फिल्मी कलाकारों पर इनकी दो पैसे की पकड़ नहीं है। सलमान के खिलाफ हिट एंड रन के मामले में गैर इरादतन हत्या का केस चल रहा है। इसकी आज यानि 25 मार्च को मुंबई की ही एक कोर्ट में सुनवाई होनी थी। लिहाजा चैनल के रिपोर्टर सुबह सुबह जम गए सलमान के घर के बाहर। अब चैनल के एंकर ने अपने रिपोर्टर से कहा कि आपकी तो अकसर सलमान से बात होती रहती है, अंदर से क्या खबर आ रही है, बताइये सलमान आज कोर्ट में पेश होंगे के नहीं ? रिपोर्टर ने कोई रिस्क नहीं लिया और कैमरा उनके घर पर टिका दिया और कहा कि आप देख सकते हैं कि सलमान के घर में रेनोवेशन का काम चल रहा है, इसलिए चारो ओर हरे रंग का पर्दा डाल दिया गया है। इसलिए हमलोग उनके घर में कोई ताक झांक नहीं कर पा रहे हैं। अब क्या कहूं, क्या बकवास करते हैं ये फिल्मी रिपोर्टर....... । अगर आप दो लाइन सलमान के बारे में सही नहीं बोल सकते तो क्या डाक्टर ने बताया है कि उसके घर के बाहर खड़े होकर ज्ञान दो ?

फिल्मी पत्रकारों अपनी नहीं तो कम से अपने चैनल और दर्शकों के लिए इतना भर कर लो, कि जरूरत पड़ने पर आपको सही खबर मिल जाए। सलमान जोधपुर जाएंगे या नहीं, ये बाद की बात है, ये मालूम होना चाहिए कि सलमान देश में है या नहीं। पेज थ्री की शानदार पार्टी का लजीज खाना भी तभी हजम होगा जब वो काम भी सही हो, जिसके लिए आप वहां है, जिसके बूते पर आप सब इस पार्टी में शरीक होते हैं। वरना तो सभी कलाकार और फिल्म निर्माता किसी ना किसी पीआर एजेंसी को हायर कर अपनी बात मीडिया तक भेज ही लेते हैं। दरअसल सच्चाई ये है कि फिल्मी पत्रकारिता को देश में कभी गंभीर पत्रकारिता माना ही नहीं गया है। अखबारों की चकल्लस से चैनल भी प्रभावित नजर आते हैं। हम सब देखते हैं कि फिल्मी कलाकारों को लेकर अखबारों के पूरे पेज रंगे रहते हैं, जिसमे किसी भी खबर के सच होने की गारंटी नहीं होती है। देर रात की पार्टी में क्या हुआ, कौन दारू पीकर किससे झगड़ गया, किस  हिरोइन का किससे चल रहा है, उसके घर गए तो दरवाजा किसने खोला। इसी तरह की खबरें फिल्मी पत्रकारिता में धूम मचा रही हैं। सलमान के मामले की रिपोर्ट के बाद तो बहुत निराशा हुई। खैर ये सब यूं ही चलता रहेगा, मै जानता हूं कि इसमे कोई बदलाव नहीं होने वाला।





 

Thursday 14 March 2013

दारू के नशे में पिट गए बेचारे बिग बाँस !


शुतोष कौशिक का वाकई मैं नाम ही भूल गया था, कल रात शराब पीकर सड़क पर हंगामा करते हुए दिखा तो याद आया कि अरे ये तो वही आशु है, जो बिगबास सीजन दो का विजेता रहा है। आपको मालूम होना चाहिए कि बिग बास के पहले आशुतोष अपना ढाबा चला रहे थे, ये तो मुझे पता है। इसके अलावा क्या करते थे, इसकी मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है। अब ढाबे पर तो शराब मुर्गा कोई नई बात नहीं है, ये सब यहां होता रहता है। बहरहाल बिग बास के घर मे मैने उन्हें पहली बार देखा, यहां आशुतोष जीत भी गए, ये अलग बात है।  लेकिन मुझे तो शुरू से ही इनमें वो क्लास नजर नहीं आया, जिससे मेरा मन स्वीकार कर सके कि ये भी विजेता बन सकते हैं। खैर ! वैसे आपको एक बात बताऊं, देश में मूर्खों की एक बड़ी जमात है, उन्हें दूसरों को ये बताने में अच्छा लगता है कि मेरे यहां जन्मदिन की पार्टी थी, उसमें बड़े-बड़े लोग आए थे। अच्छा कुछ के तो वो नाम गिना जाते हैं। अब आप ही बताएं कि आशुतोष में ऐसा क्या है कि जो कोई उसे अपने यहां जन्मदिन की पार्टी में बुलाए और वो भी पैसे देकर। आपको ये बात नागवार लग सकती है, लेकिन होता ये है कि बच्चे के जन्मदिन पर ऐसे ही लोगों को बुलाकर लोग दारू मुर्गा में बिजी हो जाते हैं और घर के कोने वाले कमरे में बूढे दादा-दादी इंतजार करतें हैं कि पार्टी खत्म हो तो भी बच्चे को चूम कर प्यार कर लें।
आइये पहले पूरा वाकया जान लीजिए, फिर आगे की बात करते हैं। मुंबई में कल रात दारू के नशे में पूरी तरह टुन्न आशुतोष अपने कपड़े फाड़ता हुआ सड़कों पर चीख रहा था। शोर-शराबा सुन कर कुछ लोगों ने इसकी जानकारी पुलिस को दी। पुलिस के पहुंचने के बाद भी आशुतोष शांत नहीं हुए, बल्कि वो उनसे भी उलझने की कोशिश करते रहे। उनका कहना था कि यहां एक रेस्त्रां में वो जन्मदिन की पार्टी में बतौर मेहमान मित्रों के साथ आए हुए थे। जहां लोगों ने उनसे और उनके मित्रों के साथ पहले तो अभद्रता की, बाद में उन्हें मारा पीटा गया। किस बात पर झगड़ा हुआ, किसने आशुतोष को मारा, पूरी सच्चाई क्या है ?  ये सब तो जांच का विषय है, जांच रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा,  लेकिन बिग बास विजेता आशुतोष का जो रूप लोगों ने देखा, वो वाकई हैरान करने वाला था। वैसे आशुतोष का कहना है कि रेस्टोरेंट में उनके साथ मारपीट की गई। पार्टी में शामिल लोगों के बीच फोटो खिंचवाने को लेकर इस हंगामे की शुरुआत हुई। किसी ने आशुतोष के फोटोग्राफर दोस्त से हाथापाई की, जिसके बाद पार्टी में मौजूद लोगों में आपस में मारपीट शुरू हो गई।

खैर मुंबई की पार्टी में दारू पीकर हंगामा, गाली गलौच, मारपीट कोई नई बात नहीं है। इस तरह की घटनाएं आमतौर पर होती ही रहती हैं। मुझे तो हैरानी वहां के लोगों पर है, जो ऐसे लोगों को अपने घर की पार्टी में बतौर मेहमान पैसे देकर बुलाते हैं। नाम का उल्लेख करना ठीक नहीं रहेगा, लेकिन दो साल पहले की बात है, एक निर्यातक परिवार ने अपने बेटे की शादी दिल्ली के एक नामी गिरामी होटल में की। यहां एक पंजाबी गायक को मेहमान के तौर पर बुलाया गया था। एक ओर शादी की रस्में चल रही थीं, दूसरी ओर तमाम लोग जो पहले  ही शराब पीकर शादी के जश्न मे आए थे और फिर यहां भी दारू वारू का बढिया इंतजाम था, तो यहां  भी शुरू हो गए। जब सब दारू पीकर मस्त हो गए तो उनकी नजर पंजाबी गायक  पर पड़ी, बस फिर क्या, उन्होंने गायक से कहा कि वो अब गाना गाएं। बस  इसी बात पर मामला बिगड़ गया। गायक ने साफ कर दिया कि उन्होंने जो पैसे लिए हैं, वो शादी में शरीक होने के लिए, वो गाना-वाना नहीं गाएंगे। बस फिर क्या शुरू हो गई गाली-गलौच। शादी का मजा किरकिरा हो गया। बहरहाल काफी मान मनौवल और गायक ने कुछ और पैसे लेकर दो चार गाने जरूर गा दिए, लेकिन लोगों  का नशा तो झगड़े  में ही किरकिरा हो गया, तो भला वो गाने पर ठुमका क्या लगा पाते। यहां भी कोने में बैठे बुजुर्गवार लोग बार बार पूछ रहे थे कि माजरा क्या है, उनकी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था।

चलिए लगे हाथ एक ज्ञान की बात भी कर लूं,  फिर आगे बढ़ते हैं। मित्रों आप जब कभी बच्चे के जन्मदिन की पार्टी करें और अगर आपके घर में बच्चे के दादा-दादी या नाना-नानी मौजूद हैं, तो पहले उनकी मौजूदगी में केक जरूर कटवा दें। जन्मदिन पर बच्चे को टीका करके इन बुजुर्गों को ना सिर्फ खुशी मिलती है, बल्कि सच कहें तो इससे इनकी उम्र भी बढ़ जाती है। ऐसा कभी ना करें कि बुजुर्गों को कोने के कमरे में बैठा दें और वो बेचारे पार्टी  खत्म होने का इंतजार करते हुए बिना खाए पिए ही रात गुजार दें। बड़े-बड़े शहरों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती हैं, लेकिन सच कहूं ये बुजुर्गों के लिए बहुत बड़ी बात होती है और वो इसे जीवन पर नहीं भूल पाते हैं। खैर छोड़िए, मैं आपको  ज्यादा बोर नहीं करने वाला, क्योंकि आज बुजुर्गों की बात कीजिए तो आमतौर पर यही कहा जाता है कि बस कीजिए, बहुत हो गया।

आशुतोष की बात पर वापस लौटते हैं, क्योंकि आज के हीरो भी तो वही हैं। आप सवाल कर सकते हैं यूपी के सहारनपुर का रहने वाला ये लड़का जो महज एक ढाबे का मालिक था, हिंदी के अलावा और भाषा की जानकारी भी नहीं है। आखिर ये बिग बास के घर में पहुंचा कैसे ? दरअसल आप सब जानते हैं मनोरंजक चैनलों के निशाने पर मध्यम वर्ग है, जिनके बीच में वो अपनी पैंठ बनाने में लगे हुए हैं। इसलिए शो में प्रतियोगियों के नाम पर अधिक पैसा खर्च नहीं कर सकते। ऐसे में ये दो एक ऐसे लोगों को उठा लाते हैं, फिर मुंबई में बहुत सारे लोग हैं जो स्ट्रगल कर रहे हैं, उन्हें अगर तीन महीने बढिया रहने और खाने के इंतजाम के साथ कुछ पैसे भी मिल जाएं तो भला क्या बुरा है। इसके अलावा दो एक खाली पड़े फिल्मी कलाकर भी ये लोग तलाश ही लेते हैं। खैर शो के बारे में तो आप सब जानते ही हैं। मैं तो ये कहने आया हूं कि टीवी वाले क्या कर रहे हैं, ये तो वो जानें, पर जब आपका एक कद बन गया है तो उसकी मर्यादा तो कम से कम कलाकार को बनाकर ही रखनी चाहिए। लेकिन मुंबई की चकाचौंध और पैसा लोगों को पटरी से उतार देता है।

आपको याद होगा राजा चौधरी जो बिग बास के घर में रह चुके हैं,  उन्होंने भी एक पार्टी में शराब पीकर खूब हंगामा किया था। कई दिन तो वो भी मीडिया की सुर्खियों में रहे हैं। अब आशुतोष ने शराब के नशे में मुंबई की सड़कों पर हंगामा काटा। सच कहूं तो मनोरंजक चैनलों को इस बारे में अब गंभीरता से सोचना चाहिए। क्योंकि आज भी जब किसी  रियलिटी शो का विजेता गलत काम में फंस जाता है तो उसका परिचय यही कह कर कराया जाता है कि वो फला शो का विजेता रहा है। मसलन अगर लोगों को बताया जाता कि  आशुतोष कौशिक ने शराब के नशे में हंगामा किया, तो सच बताएं कोई इन्हें पहचानता भी नहीं। क्योंकि उनकी पहचान आज भी यही है कि वो बिग बास सीजन दो के विजेता हैं। हां वैसे आशुतोष को एक पहचान मिल गई थी, अगर वो चाहते तो अपनी मेहनत के बल पर अपना नाम रोशन कर सकते थे, लेकिन उनकी हालत ये है कि आज चार साल बीत जाने के बाद भी उनके नाम के आगे जब तक बिग बास का जिक्र ना हो, उनकी अपनी कोई पहचान नहीं है।


Sunday 10 March 2013

ये हैं शहादत के सौदागर, मीडिया भी मौन !


कुंडा में सीओ जियाउल हक की हत्या की जितनी भी निंदा की जाए वो कम है। मैं जानता हूं कि परिवार में किसी अहम सदस्य के ना होने से कैसी मुश्किलें आतीं हैं। परिवार के दुख के साथ मैं खुद को शामिल करता हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि इस दुख को सहने की ताकत सीओ के परिवार को प्रदान करें। इसके अलावा मैं ये भी चाहूंगा कि इस मामले में जो लोग  भी शामिल हैं, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। अभियुक्त कितने ही ताकतवर क्यों ना हों, परिवार को न्याय हर हाल में मिलना ही चाहिए। ये तो रही मेरी बात। लेकिन सच बताऊं उनकी  हत्या की जितनी निंदा की जाए उससे कहीं ज्यादा निंदा उनकी 13 महीने पुरानी पत्नी परबीन आजाद की भी होनी चाहिए, जिसकी मांगो की सूची लगातार बढ़ती जा रही है। इसके अलावा समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को तो इसमें मुस्लिम वोट बैंक दिखाई दे रहे हैं। सबकी बात करुंगा, लेकिन सबसे पहले मीडिया की चर्चा !



कुंडा में सीओ जियाउल हक की हत्या के कुछ देर बाद ही उनकी पत्नी परवीन मीडिया के सामने आ गईं और उन्होंने सूबे की सरकार में मंत्री रहे रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भइया को निशाने पर लिया और कहा कि इस वारदात के लिए वही जिम्मेदार हैं। ये भी कहाकि कुछ दिन से जिया बहुत परेशान थे। राजा भइया की गिनती बाहुबलियों में होती है, वो इलाके के असरदार नेता हैं, इसके साथ ही उनके खिलाफ दर्जनों अपराधिक मामले दर्ज हैं। मैने देखा की राजा भइया का नाम आते ही मीडिया ने सब कुछ छोड़ दिया और दो बातों को लेकर शोर मचाना शुरू किया। पहला राजा भइया के इलाके में सीओ की हत्या और दूसरा राजा भइया इस्तीफा कब देंगे ? मीडिया ने ये जानने की कोशिश ही नहीं की कि आखिर पूरा घटनाक्रम है क्या ? कैसे एक पुलिस अधिकारी की हत्या हो गई, जबकि उसके साथी पुलिस वालों को खरोंच तक नहीं आई। फिर क्या गोली आमने-सामने चली या धोखे से मारा गया सीओ को। मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया में आधी अधूरी खबरों पर गला फाडते दिखाई दिए रिपोर्टर।

बहरहाल सूबे की सरकार पर दबाव बढ़ता देख राजा भइया से इस्तीफा तो ले लिया गया, या ये कहें कि राजा भइया ने इस्तीफा दे दिया, पर क्या इतने से बात बन जाती है। जांच पड़ताल हुई नहीं मीडिया ने दूसरी लाइन ले ली, राजा भइया गिरफ्तार कब होंगे ? अरे भाई गिरफ्तार तो तुरंत किया जा सकता है, लेकिन बिना जांच पड़ताल और ठोस सबूत के गिरफ्तार करने से फायदा क्या है? अगले ही दिन कोर्ट में पुलिस की ऐसी तैसी हो जाएगी कि किस आधार पर गिरप्तार किया गया है। बहरहाल घटना के बाद लगभग सप्ताह भर तो मीडिया ट्रायल चलता रहा और मुख्यमंत्री ये नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें करना क्या चाहिए, वो मीडिया की रिपोर्ट के आधार पर दौड़ भाग करते नजर आए। नतीजा ये हुआ कि जो सुबूत  पुलिस गांव से या और पूछताछ से जमा कर सकती थी, उससे चूक गई। अब गांव में सन्नाटा पसरा है, ज्यादातर युवा  गांव से पलायन कर चुके हैं। कुछ सुवूत पुलिस या सीबीआई के हाथ लगती भी है तो मुझे नहीं लगता कि कोई गवाह उन्हें मिल पाएगा। बहरहाल ये तो सरकारी काम है, चलता रहेगा।

अब कई तरह की बातें सामने आ रही हैं। एक टीवी चैनल की ग्राउंड रिपोर्ट में कहा जा रहा है कि गांव के प्रधान को गोली मारे जाने की खबर मिलने पर सीओ तीन पुलिस वालों को साथ लेकर गांव पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि प्रधान को गोली लगी है और खून से लथपथ है। खुद सीओ प्रधान को लेकर अस्पताल पहुंचे, लेकिन यहां डाक्टरों ने प्रधान को मृत घोषित कर दिया।  बताया जा रहा है कि सीओ प्रधान के शव को वापस लेकर गांव पहुंचे, जहां कई सौ लोग  गुस्से में बैठे हुए थे। इनमें कई लोगों के पास तो हथियार भी था। यहां दोबारा सीओ आए तो उनके साथ आठ पुलिस वाले थे। इस समय तक कुछ अंधेरा भी हो चुका था। बताया गया कि  जिया और उनके साथ पुलिस वालों ने भीड़ को हटाने  की कोशिश की, इसी दौरान सीओ अपने साथी पुलिस वालों से बिछड़ गए और भीड़ उन्हें धकियाते हुए मृतक प्रधान के घर के पीछे ले गई। अब सीओ बुरी तरह फंस चुके थे, बताया जा रहा है कि यहां आत्मरक्षा में सीओ ने गोली चलाई, जो वहां मौजूद प्रधान के भाई को लगी और उसकी भी मौत हो गई। इससे भीड़ में से ही किसी ने गोली दाग दी, जो सीओ को लगी और उनकी भी मौत हो गई।

हालाकि एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। जब खून से सने प्रधान को सीओ अस्पताल ले गए और डाक्टरों ने उसे मृत घोषित किया तो वो शव को कैसे वापस गांव ले गए। क्योंकि ये  आपराधिक मामला था और परिवार को बिना पोस्टमार्टम के शव नहीं सोंपा जा सकता था फिर सीओ बिना पोस्टमार्टम के शव वापस लेकर कैसे आ गए ? ये सब जांच का विषय है, जांच रिपोर्ट में इसका खुलासा होगा। बाद में एक कहानी और देखने को मिली की सीओ ने राजा भइया की हिस्ट्रीशीट बनाई थी, इस हिस्ट्रीशीट पर सीओ के हस्ताक्षर थे, इससे राजा भइया के लोग उनसे नाराज थे। एक पुरानी बात आपको बताता चलूं। मायावती के शासन में जब राजा भइया के खिलाफ सख्त कार्रवाई चल रही थी और उन्हें उनके पिता को भी गिरफ्तार किया गया था, उस वक्त मैं अमर उजाला अखबार में प्रतापगढ जिले का प्रभारी था। उसी दौरान उन पर पोटा लगा था। तब तो उनकी हिस्ट्रीशीट वहां आम थी, सब को पता था कि उनके खिलाफ कितने मामले कहां कहां किन किन धाराओं में चल रहे हैं। अच्छा अब तो चुनावों में आपराधिक मामलों की जानकारी देनी होती है, लिहाजा ये कहना कि हिस्ट्रीशीट की वजह से राजा भइया सीओ से नाराज थे आसानी से ये बात गले नहीं उतरती। बहरहाल मैं अपने अनुभव  के आधार पर कह सकता हूं कि अब मामले की निष्पक्ष जांच संभव है ही नहीं। सीबीआई की जांच के लिए ठोस गवाहों की जरूरत पडेगी और उस इलाके में गवाह मिलना ही मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि खुद पुलिस वाले आसानी  से गवाही को तैयार नहीं होंगे। खैर जांच  होने दीजिए, सब सामने आएगा। यहां हम इतना जरूर कहेंगे कि पूरे प्रकरण मे मीडिया का रोल बहुत ही बचकाना था।

अब बारी आती है सीओ की पत्नी परवीन आजाद की। उनके प्रति मेरी पूरी सहानिभूति है। लेकिन उनका रवैया बहुत ही निंदनीय है, जिस तरह से वो अपने पति की मौत का सौदा कर रही हैं, देखकर हैरानी हो रही है। परबीन को ये नहीं भूलना चाहिए कि सीओ जियाउल हक पर उनकी  जिम्मेदारी तो थी, लेकिन परिवार में वो अपने बूढे माता पिता के भी सहारा थे। जो रवैया परवीन अपनाए हुए हैं, उससे तो यही लगता है कि जिया की मौत के बाद सरकार से मिलने वाली सभी सुविधाएं वो खुद और अपने परिवार वालों को दिलाना चाहती हैं। मसलन उन्होंने मृतक आश्रित के तौर पर नौकरी के लिए एक दो नहीं आठ लोगों के नाम यूपी सरकार को दिए हैं, आइये देखिए किसका-किसका नाम दिया है।

1.   परबीन  आजाद ( पत्नी )
2.   सोहराब अली,  ( देवर )
3.   फहरीन आजाद,  ( छोटी बहन)
4.   इस्माइल अहमद  ( जीजा )
5.   मुजीबुर्हमान      ( ननद के पति )
6.   कनीज फातिमा   ( ननद )
7.   रजिया खातून     ( ननद )
8.   रुस्तम अली    ( चचेरे देवर )

ये सूची परबीन आजाद ने सरकार को सौंपी है। वैसे कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री ने पांच लोगों को नौकरी देने का भरोसा दिलाया था, जिसमें कहा गया था कि उसे सीओ स्तर की नौकरी दी जाएगी और बाकी लोगों को उनकी योग्यता के अनुसार समायोजित करने की कोशिश होगी। बहरहाल मुख्यमंत्री ने परबीन आजाद को विशेष कार्याधिकारी ( ओएसडी ) और उनके  भाई सोहराब को सिपाही के पद पर नियुक्ति के आदेश कर दिए हैं। मालूम हो कि परवीन आजाद को सीधे डीएसपी रैंक की नौकरी देने की मांग उठ रही थी लेकिन यह पद लोक सेवा आयोग से सृजित होने की वजह से उक्त पद पर सीधे तैनाती नही दी जा सकती। ऐसे में डीएसपी के समकक्ष वेतनमान में परवीन को विशेष कार्याधिकारी का दर्जा दिया गया है। लेकिन परबीन ने इस पद पर तैनाती से इनकार कर दिया है। परवीन का कहना है कि उसे मुख्यमंत्री ने डीएसपी बनाने का ऐलान किया था और वह उसी पद पर तैनाती लेगी। परवीन इतना ही नहीं वो सीओ तो बनना ही चाहती है और अपनी तैनाती भी कुंडा मांग रही है।

अब मैडम को कौन समझाए कि ये सब हिंदी सिनेमा में तो हो सकता है, लेकिन सरकार में संभव नहीं है। उन्हें पता होना चाहिए कि डिप्टी एसपी लोकसेवा आयोग का पद है और सरकार इस पर सीधे नियुक्ति कर ही नहीं सकती है। निरीक्षकों को प्रोन्नति देकर जब डीएसपी पद पर तैनाती दी जाती है, तब भी उनकी प्रोन्नति शासन नहीं करता है। ये प्रक्रिया लोकसेवा आयोग से पूरी की जाती है। ऐसे में परवीन आजाद की मांग पूरी होना संभव ही नहीं है। वैसे पहले भी ऐसी स्थितियों में अधिकारियों की पत्नियों को ओएसडी का ही दर्जा दिया गया है। अच्छा परबीन को ना जाने कौन क्या समझा रहा है वो चाहती हैं सीबीआई के जितने अधिकारी जांच में लगे हैं, सभी का बायोडेटा सरकार उन्हें  मुहैया कराए। हाहाहहाहाहहाहहा। परबीन मैडम मेरी पूरी सहानिभूति आपके साथ है, लेकिन आप कुछ ज्यादा ही डिमांडिंग होती जा रही हैं। पहले तो आपको मालूम होना चाहिए कि आपको मृतक आश्रित के तौर पर नौकरी दी जा रही है, जिससे आप अपना और जिया के परिवार का भरण पोषण आसानी से कर सकें। ये नौकरी आपको  बदला लेने के लिए नहीं दी जा रही है। वीरता पुरस्कार  भी मांगा जा रहा है, अब पूरे  प्रकरण में कहीं वीरता तो दिखाई नहीं दी।

वैसे मेरा अनुभव रहा है कि मृतक आश्रित के तौर पर पत्नी को नौकरी दी जाती है, वो तो कुछ समय बाद दूसरी शादी कर लेती हैं, इससे सबसे बड़ी मुश्किल माता-पिता को होती है। क्योंकि एक तो वो अपने बेटे को खो देते हैं, दूसरे मिली हुई सरकारी सुविधाएं पत्नी लेकर दूसरे के घर चली जाती है। मुझे लगता है कि भविष्य में मृतक आश्रित की नौकरी देने पर कुछ शर्तें भी जरूर होनी चाहिए, जिससे माता पिता के भी अधिकारों की रक्षा हो सके। खैर ये सब बाद की बातें है, अभी तो परबीन आजाद की ऐसी ऐसी मांगे सामने आ रही हैं,  जिससे हैरानी भी होती है और हंसी भी आती है। अब बताइये मृतक आश्रित के तौर पर आठ लोगों को नौकरी दिए जाने की मांग की गई है। मुझे नहीं पता कि सीओ साहब जब जिंदा थे तो अपने वेतन से इन लोगों की कितनी मदद किया करते थे।

बात मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की। उन्हें कानून व्यवस्था ही नहीं पार्टी का वोट बैंक  भी  तो देखना है। राजा भइया के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हैं तो ठाकुर मतदाता नाराज हो जाएंगे, प्रधान परिवार की अनदेखी हो ही नहीं सकती, क्योंकि वो यादव है और बेचारे सीओ साहब अल्पसंख्यक । सच तो यही है कि मुसलमान, यादव और ठाकुर ही समाजवादी पार्टी के आज की तारीख में ठोस वोटर हैं। बेचारे तय ही नहीं कर पा रहे हैं कि उन्हें आखिर करना क्या चाहिए। अब एक बात बताइये इस पूरे घटनाक्रम  में या तो पुलिस की गलती होगी या फिर प्रधान और ग्रामीणों की। अब मुख्यमंत्री दोनों ही परिवार में जाकर मत्था टेक आए। देवरिया तो इसलिए चले गए कि परबीन आजाद ने सीओ के शव को दफन करने से ही इनकार कर दिया था। उनका कहना था कि जब तक मुख्यमंत्री यहां नहीं आएंगे तब तक शव को दफन नहीं किया जाएगा। बेचारे पार्टी के एक  मुस्लिम चेहरे को साथ लिए और पहुंच गए परबीन आजाद की अदालत में।

देवरिया से लखनऊ पहुंचे तो उन्हें लगा  कि राजा भइया इस्तीफा दे चुके हैं। ऐसे में अगर प्रधान परिवार के लोगों से ना मिला गया तो सूबे में यादव बिरादरी पर भी  बुरा असर पड़ सकता है, लिहाजा मुख्यमंत्री ने बिना देरी किए अगले दिन कुंडा पहुंच गए। अब भाई कोई एक आदमी तो इस पूरे मामले के लिए जिम्मेदार होगा ही ना। रिपोर्ट में किसी का नाम तो आएगा ही, अब क्या संदेश जाएगा कि मुख्यमंत्री ने कथित अभियुक्तों के घर का चक्कर लगाया था। खैर राजनीति है बहुत कुछ करना होता है। लेकिन मुख्यमंत्री जी आपको एक सलाह है, राजनीति और वोट के चक्कर में कुछ ऐसा वैसा ना कर दें कि आगे मुश्किल में पड़ जाएं। आपने सीओ के परिवार के पांच लोगों को नौकरी देने का भरोसा दिया है, अगर आगे दूसरे लोग भी ऐसी ही मांग करने लगे तो फिर आपके सामने बहुत मुश्किल होगी। वैसे भी अगर ये मामला कोर्ट में पहुंच गया तो मुझे लगता है कि सरकार की किरकिरी तय है।


हाहाहा चलते-चलते कांग्रेस के युवा नेता राहुल गांधी की भी बात करनी जरूरी है। राहुल  को लगा कि वो तो चूक गए, बेचारे काफी परेशान थे। इस बीच जब उन्होंने देखा कि यूपी की सरकार ने पूरे मामले की सीबीआई की जांच की संस्तुति कर दी है और सीबीआई ने इसे स्वीकार कर लिया है तो राहुल ने भी अपनी गाड़ी देवरिया की ओर मोड़ दी। हो सकता है वो बताने गए हों कि अब ये मामला उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं रह गया है, ये मामला अब दिल्ली से देखा जाएगा। क्योंकि सीबीआई का मुख्यालय दिल्ली में है। वैसे भी कांग्रेस पर आरोप लगता रहता है कि सीबीआई का मतबल सेंट्रल ब्यूरो आफ इन्वेस्टिगेशन नहीं बल्कि कांग्रेस ब्यूरो आफ इन्वेस्टिगेशन है। राहुल गांधी को लग रहा था कि अब तमाम नेता यहां आकर जा चुके हैं, लिहाजा उनके  जाने का कोई खास मतलब नहीं है, लेकिन सीबीआई का मामला ऐसा था कि उन्हें पूरा भरोसा था कि परिवार के लोग उन्हें भी बैठने के लिए कुर्सी जरूर देंगे।


हुआ भी ऐसा ही। लगभग घंटे भर सीओ की पत्नी परबीन और उनका पूरा परिवार राहुल गांधी  के साथ रहा। राहुल बार-बार समझाते रहे कि आप सबके साथ न्याय होगा। लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर राहुल किस न्याय की बात कर रहे हैं, लेकिन कुछ  देर बाद सीओ के परिवार को समझ में आ गया कि अरे भाई अब तो मामला सीबीआई  के पास है और सीबीआई के मालिक तो राहुल गांधी की कांग्रेस ही है ना। खैर किसी ने राहुल के कान में फूंका कि अगर सच में नंबर वन बनना चाहते हैं तो कुछ और करना होगा, क्योकि अभी तक एक भी फोटो नहीं हो पाया है। विचार होने लगा कि आखिर क्या किया जाए, तय हुआ कि राहुल को कब्रिस्तान ले चला जाए और वहां जियाउल के कब्र के पास खड़ा कर तस्वीर खिंचवा दी जाए, कम से कम  अखबारों में कुछ तो छपेगा ही। बस फिर क्या, राहुल पहुंच गए कब्र और खिंच गई फोटो।   तभी तो अब देश के शायर भी नेताओं से मजे लेते रहते हैं।

ये कैसी अनहोनी मालिक, ये कैसा संयोग ।
कैसी-कैसी कुर्सी पर हैं, कैसे- कैसे लोग।।

राजनीति में सौ-सौ जूते खाने पड़ते हैं।
कदम कदम पर सौ-सौ बाप बनाने पड़ते हैं।।





मित्रों !  मेरे दूसरे ब्लाग आधा सच पर भी आपका स्वागत है। यहां मैं बताने की कोशिश करुंगा कि कैसे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की निजी यात्रा को सरकारी बनाया गया। मंत्री शिष्टाचार की बात कर रहे हैं, बात शिष्टाचार की है तो घर पर भोजन कराइये ना, अपने खर्च से। सरकारी पैसे की बर्बादी क्यों ?
जिसने सिर काटा, उसे सिर पर बैठाया !
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Friday 1 March 2013

मीडिया के मास्टर माइंड का सच !


लेक्ट्रानिक मीडिया का बचकाना काम देखकर कई दफा हैरानी होती है। आप सब जानते हैं कि इस वक्त संसद का सबसे महत्वपूर्ण यानि बजट सत्र चल रहा है। संसद में रेल और आम बजट पेश किया जा चुका है और अब इस पर चर्चा शुरू होगी। लेकिन बजट के पहले मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का हुडदंग देखने लायक होता है। मैं तो पांच-सात साल से देख रहा हूं कि बजट सत्र के पहले चैनल के बड़े दम खम भरने वाले जर्नलिस्ट ट्रेन पर सवार हो जाते हैं और वो सीधे बाथरूम को कैमरे पर दिखाते हुए साफ सफाई को लेकर रेल मंत्रालय को कोसते हैं, जो ज्यादा उत्साही पत्रकार होता है वो ट्रेन के खाने की बात करते हुए घटिया खाने की शिकायत करता है और उम्मीद करता है शायद इस बजट में रेलमंत्री का ध्यान इस ओर जाएगा। अच्छा आम बजट के पहले भी इसी तरह की एक घिसी पिटी कवायद शुरू होती है, चैनल की अच्छी दिखने वाली लड़की को किसी बडे आदमी के घर के किचन में भेज दिया जाता है। पांच तोले सोने की जेवरों से लदी उस घर की महिला वित्तमंत्री को समझाने की कोशिश करती है कि घर चलाना कितना मुश्किल हो गया है। सच तो ये है कि जिस घर में महिला पत्रकार जाती है, उस महिला को आटे चावल का सही सही दाम तक पता नहीं होता है।

हां आप सवाल पूछ सकते हैं कि आखिर गरीबों के यहां या फिर झोपड़ पट्टी में पत्रकार  जाकर खाने की थाली पर रिसर्च क्यों नहीं करते ? मैं कहूंगा कि आपने बहुत अच्छा सवाल किया है, पर चैनल खासतौर पर हिंदी चैनल मध्यम वर्गीय परिवार में देखा जाता है, गरीबों के यहां किचन तो होता नहीं है, वही चूल्हे में फूंक  मारती महिला से बात करनी पड़ेगी जो इतनी सारी समस्या गिना देगी कि उतना सब दिखाने का समय भी चैनल के पास नहीं है। अच्छा ये काम कोई ऐसा वैसा चैनल करे तो बात समझ में आती है, मुश्किल तो तब होती है जब खुद को नंबर एक कहने वाला चैनल ये काम करता है। अब देखिए ना " आज तक "  ने अपने 10 महिला पत्रकारों को रेल बजट से पहले ट्रेन की यात्रा कराई, उनसे कहा गया कि ट्रेन के सफर के दौरान होने वाली मुश्किलों को बताएं। अब चैनल के मास्टर माइंड को कौन समझाए कि ट्रेनों में होने वाली दिक्कतें तो आप कभी भी उठा सकते हैं, इसके लिए बजट का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। संपादक जी अगर आज रेलवे स्टेशन पर गंदगी है, ट्रेनों में गंदगी है तो इंतजार करेंगे कि बजट के पहले ये स्टोरी की जाएगी। उसी समय, उसी दिन क्यों नहीं ? मजेदार तो ये कि शाम को इसी चैनल ने इतने फूहड़ तरीके से रेल बजट पर रिपोर्ट प्रसारित की माथा ठनक गया। शीर्षक सुनेंगे " छुपा कर क्यों बढाया रे " । अब इस दिमागी दिवालिएपन को आखिर क्या कहा जाए ? अरे भाई बजट में लुका छिपा क्या है, बजट की कापी तो संसद में पेश की गई है, इतना ही पत्रकारों के हाथ में भी वही बजट है। अब आपको समझ में ही देर से आया तो इसके लिए क्या किया जा सकता है।

सच कहूं तो चैनल के मास्टर माइंड कहे जाने वाले लोगों को बजट की एबीसीडी ही नहीं पता है। वरना वो सवाल उठाते कि पिछले बजट मे जो कुछ ऐलान किया गया था, वो अभी तक पूरा क्यों नहीं हुआ ? अगर पिछले बजट में घोषित सभी ट्रेनें पटरी पर अभी तक नहीं आईं तो नई ट्रेन का ऐलान क्यों किया जा रहा है ? अच्छा एक बहुत गलत फहमी है पत्रकारों को कि ये बजट रेलमंत्री का होता है, अरे भाई अगर बजट पर संसद की मुहर लग गई है तो रेलमंत्री कोई भी उस पर सवाल तो खड़े किए ही जा सकते हैं। लेकिन ममता बनर्जी गईं तो पत्रकार उनके बजट के साथ ही उनके विजन ट्वेंटी - ट्वेंटी को भी भूल गए, जिसमें  तमाम बड़ी बड़ी बातें की गईं थीं। ममता बनर्जी ने दर्जन भर कमेंटिया बनाईं थी, जिन पर लाखों  रुपये खर्च हुए, उन कमेटियों की रिपोर्ट क्या है और उन रिपोर्टों  पर काम क्या हुआ? किसे ने ये सवाल नहीं उठाया। चलिए रेल बजट पर बहुत चर्चा हो गई। वैसे रेल बजट की बारीकियां आपको  जाननी है तो आप मेरे दूसरे ब्लाग " आधा सच " को  जरूर पढें। यहां आपको ऐसी जानकारी मिलेगी जो आपके लिए संग्रहणीय भी हो सकती है।

लिंक..   http://aadhasachonline.blogspot.in/2013/02/blog-post_27.html#comment-form

वैसे सच बताऊं तो आम बजट पर मैं भी उतना बात नहीं कर पाऊंगा। लेकिन मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि बजट को लेकर जो रिपोर्टिंग चैनलों पर होती है, वो बहुत ही सतही स्तर की होती है। अगर इसे आपको और आसान शब्दों मे समझाना हो तो मैं कह सकता हूं कि चैनल देखते हुए लगता है कि ग्रेजुएट कर चुका छात्र सौ तक गिनती तक नहीं जानता। बजट के एक दिन पहले हमने देखा कि कई चैनलों के पत्रकारों ने एक-एक साफ-सुथरे किचन का इंतजाम कर लिया। चूंकि इस दिन उन्हें सुबह से फील्ड में भिड़ना होता है तो ऐसा किचन ज्यादा बेहतर साबित होता है जहां नाश्ता पानी का भी जुगाड़ बना रहे और काम धाम भी चलता रहे। मतलब भइया के साथ तो कहीं भी छन जाती है, आज बारी भाभी और बच्चों की भी है। भाभी को पता चला कि चैनल वाले उनके घर के किचन से लाइव करेंगे तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं। पूरे दिन अपने रिश्तेदारों को फोन लगाती रहीं बजट वाले दिन सुबह मुझे टीवी पर देखना। छोटी बहन को फोन लगाया कि कौन सी साड़ी में जचूंगी। फटाफट बैंक के लाकर से सारे गहने निकाल लाईं। अब टनाटन सजी भाभी से सब्जियों के दाम पूछे जाते हैं तो वो आधा अंग्रेजी और आधा हिंदी में बताती हैं कि आलू यानि पोटेटो 20 रुपये किलो, टोमैटो तो और मंहगा है। पत्रकार को समझ मे आ गया कि भाभी को सब्जी के बारे में कुछ भी पता नहीं है, क्योंकि आलू तो आज कल 10 रुपये का सवा किलो मिल रहा है। फिर बेचारी भाभी  टमाटर का तो दाम भी नहीं बता पाती हैं, वो  टौमेटो को और मंहगा कह कर काम चल रही हैं। जबकि टमाटर भी 10 से 15 रुपये किलो है इन दिनों।

भाभी तो लाइव हैं, पत्रकार बेचारे की मुश्किल बढ़ जाती है, वो तुरंत अनाज के दाम पर आ जाता है। उसे लगता है कि अगर चावल के दाम गलत भी बताए तो कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि चावल तो आज मार्केट में 20 रुपये लेकर 120 रुपये किलो तक का है। यही हाल दाल और अन्य अनाज का भी है, तो बेचारा पत्रकार किसी तरह अनाज के दाम पूछ कर समय काटता है। अब भाभी तो निकली बासमती चावल और आशीर्वाद आटा खाने वाली, लेकिन पत्रकारो को तो ये बताना है कि आप देख सकते हैं कि आज सामान्य घर में खाने की थाली कितनी मंहगी हो गई है। मंहगाई से हालत ये है कि भाभी को थाली से सब्जी हटानी पड़ गई है। बेचारा पत्रकार स्टोरी की लाइन से खत्म करना चाहता है, लेकिन भाभी ने तुरंत टोक दिया, अरे भइया ये क्या कह रहे हैं आप ? मैने अपने तमाम रिश्तेदारों को बताया कि वो आज फलां चैनल देखें, मैं अपना किचन दिखाऊंगी, आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं कि हमारे रिश्तेदार मेरे घर ही आना ही छोड़ देंगे। उन्हें लगेगा कि बेचारे पूरा खाना भी नहीं खा रहे हैं, ऐसे में क्यों उन पर बोझ बना जाए। भाभी बोलना शुरू हुई तो चुप ही नहीं हुई, उन्होने कहा कि जिस तरह से आप खाने की थाली से सब्जी हटा रहे हैं,  हो सकता है कि शाम तक मेरे पापा यहां ना आ जाएं और पूरे महीने का अनाज सब्जी वो खुद ही दिलाने की जिद्द करने लगेंगे। प्लीज भैया ऐसे मत बोलिए।

हाहाहा अब तो पत्रकार जी का नशा काफूर हो गया। वो तो आए थे मंहगे किचन में अपने दिन भर के बढिया लाइव के इंतजाम से, लेकिन पहले ही लाइव में उन्हें नाश्ता ही नहीं भरपेट भोजन मिल गया। समझ गए कि  यहां से तो जाना ही बेहतर है, अब बेचारे किसी और के घर फोन करते तो अचानक कोई तैयार नहीं होता। फिर तो बेहतर यही था कि सब्जी मंडी पहुंच जाए और वहीं सब्जी खरीदने आने वालों से सीधी बात चीत हो। जब भी आप किसी इवेंट को मैनेज करने की कोशिश करेंगे तो ऐसी मुश्किल आएगी ही। अब भाभी को ये तो पता नहीं था कि उन्हें रोनी सूरत बनाकर मंहगाई को लेकर हाय तौबा करनी हैं। उन्हें तो जैसे ही पता चला कि अरे वो टीवी पर आएंगी, सबसे पहले बैंक जाकर लाकर में रखे सारे गहने उठा लाईं और शादी में मिले इन मोटे-मोटे जेवर को पहन कर गरीबी की बात भी करतीं हई भी  तो बेईमानी लग रही थी। खैर कोई नहीं टीवी पत्रकारों के साथ ये सब चलता रहता है।

दिल्ली गैंगरेप पीडित बेटी को लेकर मैं बहुत मर्माहत हूं, सच कहूं तो उसकी मौत की खबर ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया। लेकिन उस बेटी के नाम पर हो रही सियासत से मुझे घिन्न आ रही है। वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने जब बजट पढ़ते हुए ऐलान किया कि  महिलाओं की सुरक्षा के लिए "निर्भया फंड" की व्यवस्था की गई है, तो मुझे अपने उस पत्रकार भाई की याद आई, जिसने प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान मंत्री पर जूता उछाल दिया था। हालाकि मैं हिंसा और बेहूदगी में कत्तई यकीन नहीं करता, लेकिन जब ऐसी घटिया बात सदन में की जाती है तो मैं कहता हूं कि मेरे पत्रकार भाई ने कुछ भी गलत नहीं किया था। मुझे लगा कि क्या ये भी ऐसा विषय है जिस पर राजनीति की जाए ? निर्भया, जिसने दिल्ली ही नहीं, देश के तमाम हिस्सों में नौजवानों को आन्दोलित किया, जो महिलाओं की बढ़ती असुरक्षा एवं उनके खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा का प्रतीक बन कर देश में उभरी, उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसकी कुर्बानी को एक दिन सरकार इस तरह भुनाने की कोशिश करेगी। अपना आठवां बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री पी चिदम्बरम ने ऐलान किया कि  सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष निर्भया फंड बनाने जा रही है और जिसके लिए एक हजार करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं।

एक  हजार करोड़ का फंड बनाकर क्या संदेश देने की कोशिश की गई है। ये बात मेरी समझ में तो नहीं आ रही है। मुझे डर है कि कहीं सरकार अब राज्यों को ये टारगेट ना थमा दे कि जो फंड दिया गया है इसे निश्चित अवधि में खत्म भी करना है। फंड इस्तेमाल तभी होगा जब महिलाएं शोषण का शिकार होगीं। मेरा कहने का आशय ये है कि जब मंत्री और सरकार इतने असंवेदनशील हो जाएं तो इनसे किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है। जो सरकार बेटी की अस्मिता को बाजार में ढकेलने की साजिश करे, उसके बारे में क्या चर्चा की जाए। इस मुद्दे पर चैनल और समाचार पत्र दोनों खामोश रहें तो लगता है कि बाजार सब चीजों पर कितना हावी है। मीडिया भले खामोश हो, पर मैं वित्तमंत्री के आम बजट को कांग्रेस पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र से ज्यादा कुछ नहीं समझ पा रहा हूं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ये देश का बजट नहीं हो सकता, इसे अगले साल  होने वाले चुनाव की तैयारी कहें तो गलत नहीं होगा।

वैसे भी आम आदमी बजट में दो चीजें देखता है। अगर रेल बजट है तो वो देखता है किराया कम हुआ या नहीं। किराया कम हुआ तो बजट बढिया और नहीं हुआ तो घटिया। रेलमंत्री ने तो किराए में भारी वृद्धि कर दी है तो रेल बजट को बढिया कहने का सवाल  ही नहीं। इसी तरह आम बजट में आम आदमी देखता है कि इनकम टैक्स में कोई राहत दी गई या नहीं। महिलाएं देखती हैं कि गैस सिलेंडर की कीमतें कुछ कम हो रही है या नहीं। मजदूर तपके को उम्मीद होती है कि क्या वो अब दो वक्त शुकून से रोटी खा सकता है या नहीं। मुझे कांग्रेस सरकार बताएगी कि क्या आम आदमी के मानदंड पर उसका बजट कहीं से खरा उतरता है? यहां मीडिया एक अहम भूमिका निभा सकती थी, लेकिन मीडिया की पहुंच वास्तविक लोगों तक शायद नहीं रही, यही वजह है कि मीडिया और बजट दोनों मूल विषय से भटके रहे। अब सवाल ये उठता है कि जब सरकार गूंगी और बहरी हो और देश की मीडिया नासमझ हो गई हो तो फिर मूल समस्या पर भला कौन आवाज उठाएगा।