Friday 28 December 2012

गैंगरेप : जिम्मेदार बने मीडिया !

आज ही खबर मिली है दिल्ली गैंगरेप की शिकार बेटी की तड़के सवा दो बजे के करीब मौत हो गई। हमें पता है  कि  दिल्ली की संवेदनशील जनता आज एक बार फिर सड़कों पर होगी, बेटी को श्रंद्धांजलि देने के लिए। मुझे लगता है कि इसके बाद लोग भी घर बैठ जाएंगे और न्यूज चैनलों का ये पखवाड़े भर का टीवी शो भी बंद हो जाएगा। कल से टीवी पर नए साल का जश्न शुरू हो जाएगा। हालांकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का ये कहना कि वो नया साल सादगी से मनाएंगी, इससे आम जनता का भला क्या लेना देना है, बंगले  की चारदीवारी के भीतर उनके यहां नए साल का जश्न कैसे होता है ये तो वही जान सकते हैं जिसे वहां मौजूद होने का निमंत्रण मिलता है। आम आदमी से भला इसका क्या लेना देना है। लेकिन  अभी  तक किसी चैनल ने ये ऐलान नहीं किया कि इस बार चैनल नए साल पर खुद को रंगारंग कार्यक्रमों से दूर रखेंगे। अगर बेटी को सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो न्यूज चैनल और मनोरंजक चैनल भी  ऐलान करें कि वो नए साल पर सादगी बरतेगें।


दिल्ली गैंगरेप का मुद्दा काफी संवेदनशील है, मैं बेवजह किसी की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता , लेकिन मुझे लगता है कि मीडिया से जुड़े होने के कारण मुझे कम से कम इस पूरे मामले में मीडिया की भूमिका पर जरूर अपनी बात रखनी चाहिए। अगर ये बात मैं ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि मीडिया को इस पूरे मामले में जितना संवेदनशील और सतर्क होकर काम करना चाहिए था, कहीं ना कहीं उसमें कमी रही। कमी थोड़ी बहुत नहीं, बल्कि मैं कहूंगा कि बहुत ज्यादा कमी रही। मुझे ये कहने में कत्तई संकोच नहीं है कि मीडिया को जहां इस संवेदनशील मुद्दे पर आगे बढ़कर महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभानी चाहिए थी, वो जिम्मेदारी निभाने में मीडिया चूक गई, बल्कि मीडिया महज जंतर मंतर और इंडिया गेट पर जमीं भीड़ का हिस्सा भर बनकर रह गई। सच्चाई तो ये है कि मीडिया भीड़ के उबाल में अपनी टीआरपी बटोरने में लगी रही। हां वैसे हिंदी समाचार पत्र दैनिक भाष्कर ने जरूर कुछ अलग करने की कोशिश की, मगर उसमें भटकाव दिखा, वो क्या करना चाहते हैं, उनका फोकस क्लीयर नहीं था।

23 साल की इस लड़की के साथ जो हुआ वो देश को शर्मसार करने वाला है। कितना भी पत्थर दिल इंसान हो, जो भी इस घटना को सिलसिलेवार सुनता है, उसकी आंखें डबडबा जाती हैं। लेकिन ये वक्त रोने पीटने का नहीं है, बल्कि सबक लेने का है, सोचने का समय है कि आखिर देश में ऐसा क्या किया जाए, जिससे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने से रोका जा सके। पहले मेरा सवाल मीडिया और सामाजिक संस्थाओं से है। जब समाज के बड़े सफेदपोशों के मामले खुलते हैं तो क्यों नहीं जनता इस तरह सड़कों पर उतरती है ? क्यों नहीं उस समय फांसी की मांग होती है। हरियाणा के पूर्व डीजीपी को हम सब नहीं भूल सकते, जिसने एक नाबालिक लड़की से छेड़खानी की। लंबी मूंछो वाला ये सख्स कोर्ट में भी मुस्कुराता रहता था। उत्तर प्रदेश में कवियित्री मुधमिता के साथ क्या हुआ, एक पूर्वमंत्री अभी भी जेल में हैं। हरियाणा के एक पूर्वमंत्री के दुर्व्यवहार  से परेशान होकर एयर होस्टेज ने खुदकुशी कर ली। पूर्वमंत्री, पूर्व राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के बारे में तरह तरह की बातें सामने आती रहती हैं। ये तमाम मुद्दे ऐसे थे कि मीडिया को इन सबके खिलाफ उसी समय एक ऐसा देशव्यापी अभियान छेड़ देना चाहिए था कि अब तक ना सिर्फ सख्त कानून बन चुका होता, बल्कि दो चार नेता और अफसर सूली पर चढाए जा चुके होते।

मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि आखिर मीडिया ये भीड़ की आड़ में कब तक अपनी टीआरपी की बटोरती रहेगी। अन्ना ने दिल्ली में भीड़ जमा किया, मीडिया उनके पीछे खड़ी हो गई। बाबा रामदेव ने भीड़ जमा किया हम उनके साथ जा खड़े हुए। दिल्ली में गैंगरेप से उबली जनता सड़कों पर आई, मीडिया उनके पीछे खड़ी हो गई। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ इतना कमजोर है कि इसे अपनी बात कहने के लिए भीड़ का सहारा लेना होता है ? क्या मीडिया गंभीर मुद्दों पर एकराय बनाकर अपनी राय आगे नहीं बढ़ा सकती। मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया गया है कि मीडिया को भी अपनी लक्ष्मण रेखा लांघ कर आगे आना होगा और हर मुद्दे पर अपनी सख्त और तर्कपूर्ण राय रखनी ही होगी। लेकिन ये तभी संभव है, जब मीडिया के लोग भी सामाजिक जीवन में खुद बेदाग रहेंगे। देश में ही ऐसे तमाम उदाहरण है जब कार्यपालिका और व्यवस्थापिका अपना काम जिम्मेदारी के साथ नहीं निभाती है तो न्यायपालिका आगे आती है, जबकि हम सभी जानते है कि तीनों के कार्यक्षेत्र बटे हुए है, फिर न्यायपालिका अपनी भूमिका निभाने से पीछे नहीं रहती और हम बस इस्तेमाल भर होते रहते हैं।

आइये अब मुद्दे की बात करते हैं। गैंगरेप के बाद लड़की की हालत नाजुक बनी हुई थी, इस घृणित वारदात के बाद पूरे देश में गुस्सा है। दिल्ली समेत देश के दूसरे हिस्से में भी लोग सड़कों पर हैं। मांग हो रही है कि बलात्कारियों को फांसी दी जाए। इस गुस्से के पीछे  भावना साफ है कि अभियुक्तों को इतनी सख्त सजा दी जानी चाहिए,  जिससे भविष्य में ऐसी घटनाएं ना हों, लोगों में कानून का डर हो। मैं बार-बार एक बात जोर देकर कहता हूं कि सख्त कानून तो बन जाएगा, लेकिन ये दो कौड़ी के नेताओ से हम कैसे निपटेंगे ? ईमानदारी से सोचिए जिन लोगों को पूरी न्यायिक प्रक्रिया के बाद फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, ये नेता उन अभियुक्तों को फांसी देने को तैयार नहीं है। ये यहां भी वोट की राजनीति देख रहे हैं। सच बताऊं उस समय हम सबको ज्यादा तकलीफ होगी जब किसी बलात्कारी को फांसी की सजा तो सुनाई जा चुकी होगी, लेकिन वो देश के किसी नेता का बेटा होगा,  जिसकी वजह से फांसी पर लटकाया नहीं जाएगा।

इसी मामले में ले लीजिए, इस घटना के बाद देश गुस्से में था, पर सरकार की चिंता कुछ और ही थी। सरकार को लग रहा था कि लड़की की हालत नाजुक है, अगर कुछ ऐसा वैसा हो गया तो कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है, लिहाजा इसे इलाज के लिए बाहर भेज दिया जाए। इससे देश में संदेश जाएगा कि लड़की की जान बचाने को लेकर सरकार बहुत गंभीर थी, इसी वजह से उसे विदेश यानि सिंगापुर भेजा गया। सच्चाई ये है कि लड़की की हालत नाजुक बनी हुई थी, ऐसे में उसे विदेश ले जाना ही खतरे से खाली नहीं था। इसलिए ये सवाल भी  उठ रहा है कि विदेश भेजने का फैसला डाक्टरों का था या सरकार का। अंदर की बात पता करने के लिए मीडिया को सामने आना होगा, गृहमंत्री तो इसे चिकित्सकों का फैसला बता रहे हैं। हालाकि मुझे सरकार की बातों पर बिल्कुल भरोसा नहीं है।

सरकार का कहना है कि अगर जरूरत पड़ी तो इंगलैंड और अमेरिका के डाक्टरों को सिंगापुर बुलाया जाएगा और इलाज में उनकी मदद ली जाएगी। मेरा सवाल है कि अगर डाक्टर अमेरिका और इंगलैंड से सिंगापुर आ सकते हैं तो भारत क्यों नहीं आ सकते ? इसी से लगता है कि सरकार की पूरे मसले पर नीयत साफ नहीं है। कहा तो ये जा रहा है कि लड़की को यहां बेहतर चिकित्सा सुविधा मिल रही थी, उसका इलाज सही दिशा में चल रहा था। रही बात आंत के ट्रांसप्लांट की तो पहले उसे संक्रमण और अन्य घाव से आराम मिलता फिर उसे बाहर भेजा जाता। यहां के डाक्टरों की भी यही राय बताई जा रही है। अगर ये बात सही है कि उसका इलाज यहां नहीं हो सकता था तो उसे बाहर भेजने में इतनी देरी क्यों की गई, पहले दूसरे दिन ही क्यों नहीं उसे भेज दिया गया। 10 दिन से ज्यादा यहां रखकर समय क्यों खराब किया गया। बहरहाल लड़की स्वस्थ हो और दीर्घायु हो, हम तो यही कामना करते हैं, लेकिन सरकार की सोच वाकई नकारात्मक दिखाई दे रही है।  

दिल्ली के इस गैगरेप  के बाद देशवासियों का गुस्सा भले ही उबाल पर है,लोग सड़कों पर गुस्सा उतार रहे हैं। लेकिन मुझे लगता है कि ये सियासी जमात भी इसके  लिए कम जिम्मेदार नहीं है। क्योंकि ये भी तो दूध के धुले नहीं हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में ऐसे कई नेता हैं जिन पर बलात्कार के आरोप लगे हैं। ऐसा नहीं है कि ये आरोप इन नेताओं के विरोधी लगा रहे हैं या फिर उनपर झूठा इल्ज़ाम है,  बल्कि इन नेताओं ने चुनाव आयोग के सामने जो शपथ पत्र दिया है उसमें उन्होंने खुद कहा है कि उनके खिलाफ बलात्कार के आरोप हैं। पाँच सालों की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो नेशनल इलेक्शन वाच के आंकड़ों के अनुसार 6 एमएलए ऐसे हैं जिन पर बलात्कार के आरोप हैं। इन में तीन का संबंध उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी से हैं। इन बलात्कारी एम एल ए के नाम हैं भगवान शर्मा, अनूप संदा और मनोज कुमार पारस। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के मोहम्मद सलीम, गुजरात में बीजेपी के जेठा भाई और आंध्र प्रदेश में टीडीपी के कंडीकुंटा वेंकटा प्रसाद पर भी बलात्कार के आरोपी हैं।

36 एमएलए ऐसे हैं जिन्होंने अपने शपथ पत्र में बताया था कि उनपर महिलाओं के खिलाफ अतत्याचार के आरोप हैं। इन 36 एमएलए में से 6 का संबंध कांग्रेस से , पाँच का संबंध बीजेपी से और 3 का संबंध समाजवादी पार्टी से है। यानि अपराधियों को और महिलाओं के खिलाफ ज़ुल्म करने वालों को टिकट देने में बड़ी पार्टियां भी पीछे नहीं रहती हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा 8 एमएलए ऐसे हैं जिन पर किसी न किसी रूप में महिलयों पर ज़ुल्म के आरोप हैं। उड़ीसा और बंगाल में ऐसे 7-7 एमएलए हैं जिन पर महिलाओं पर ज़ुल्म करने का आरोप है।

दिल्ली में गैंग रेप के बाद लंबे चौड़े भाषण देने वाली बड़ी बड़ी पार्टियों हमेशा आरोपियों को टिकट दिये, इनमें वह आरोपी भी शामिल हैं जिनपर महिला से रेप के आरोप लगे हैं। आंकड़े बताते हैं कि पिछले पाँच सालों में विभिन्न पार्टियों ने ऐसे 27 लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया जिन पर बलात्कार के आरोप थे। इन 27 उम्मीदवारों में से 10 का संबंध उत्तर प्रदेश से है जबकि 5 बिहार से संबंध रखते हैं। पार्टियों की बात करें तो इन 27 रेप के आरोपियों में से सात आज़ाद उम्मीदवार थे, 5 समाजवादी के उम्मीदवार थे, जबकि 2-2 को भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया था।

पाँच वर्षों के दौरान राजनीतिक पार्टियों ने 260 ऐसे लोगों को टिकट दिया था जिनपर किसी न किसी रूप में महिलाओं के खिलाफ आरोप लगे थे। ऐसे उम्मीदवार सिर्फ छोटी पार्टियों के नहीं थे बल्कि देश कि बड़ी बड़ी पार्टियों ने भी ऐसे लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया था जिन पर यह आरोप थे कि उनहों ने किसी न किसी रूप में महिला का अपमान किया। महिलाओं पर ज़ुल्म के आरोपी ऐसे उम्मीदवारों में 72 आज़ाद उम्मीदवार थे जबकि कांग्रेस ने 26 और बीजेपी ने 24 आरोपियों को अपना उम्मीदवार बनाया। बहुजन समाज ने ऐसे 18 जबकि समाजवादी पार्टी ने 16 लोगों को अपना उम्मीदवार बनाया था। राज्यों कि बात करें तो ऐसे सबसे अधिक 41 उम्मीदवार महाराष्ट्र में थे जिनपर महिलाओं के अपमान के आरोप लगे थे। उत्तर प्रदेश में ऐसे 37 जबकि बंगाल में ऐसे 22 लोगों को पार्टियों ने अपना उम्मीदवार बनाया था। 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टियों ने 6 ऐसे व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया था जिन पर बलात्कार के आरोप थे। कुछ  समय पहले कांग्रेस के एक प्रवक्ता की सीडी सामने आई थी, उसके बाद कांग्रेस ने उसे कुछ दिन के लिए प्रवक्ता के पैनल से हटा दिया और अब उन्हें दोबारा ये जिम्मेदारी दे दी गई है। देश की मीडिया आज तक इस मामले में क्यों खामोश है ? कौन जवाब दे सकता है।

इस रिपोर्ट का जिक्र महज  इसलिए कर  रहा हूं ताकि मैं नेताओं की असल तस्वीर आपके सामने रख सकूं। आज भी सरकार और विपक्ष में तमाम नेताओं के चरित्र को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। ऐसे में अब वक्त आ गया है कि सबको अपनी अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आना होगा। खासतौर पर मीडिया को अपनी भूमिका पर फिर से विचार करने की जरूरत है, मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है कि मीडिया को भीड़ के पीछे नहीं भीड़ के आगे रहने की जरूरत है। मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर मीडिया कब तक भीड़ का हिस्सा बनती रहेगी। मैं दैनिक भाष्कर के प्रयासों को सलाम करता हूं, कम  से कम उन्होंने कुछ अलग करने का सोचा तो। ये अलग बात है कि उनकी दिशा और फोकस साफ नहीं है।

( नोट.. आपको याद है कि आपने एनडी तिवारी, गोपाल कांडा, अमरमणि त्रिपाठी, स्वामी नित्यानंद, स्वामी चिन्मयानंद, महिपाल मदेरणा, एसपीएस राठौर, चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद, रवीन्द्र प्रधान ये सब नाम कहां सुना है, कुछ याद आ रहा है आपको । नहीं याद, कोई बात नहीं। देखिए मेरा ब्लाग "आधा सच"  http://aadhasachonline.blogspot.in/2012/12/blog-post_30.html#comment-form )



Saturday 1 December 2012

खुद खबर बन गए बेचारे संपादक "जी "


दूसरों की खबर बनाने वाले संपादक आज खुद खबर बन गए हैं। जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी के खिलाफ पहले तो ब्लैकमेंलिग का केस दर्ज किया गया अब संपादक जी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है, पहले तीन दिन के लिए पुलिस ने उन्हें पूछताछ के लिए रिमांड पर लिया अब उन्हें जेल भेज दिया गया हैं। खअगर जमानत ना मिली तो जेल में सपादक को 14 रातें बितानी पड़ेंगी। सवाल ये है कि क्या अब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ लड़खड़ाने लगा है ? क्या अब ये स्तंभ जिम्मेदार कंधो पर नहीं है ? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिससे मीडिया को भी गुजरना होगा। मैं तो खुद इलैक्ट्रानिका मीडिया का हिस्सा हूं, फिर भी मुझे ये कहने मे संकोच नहीं है की इस माध्यम को अभी बहुत जिम्मेदार बनाने की जरूरत है। जिम्मेदार बनाने की प्रक्रिया क्या हो, इस पर जरूर  बहस हो सकती है। लेकिन अगर समय रहते इलेक्ट्रानिक मीडिया ने खुद को दुरुस्त नहीं किया तो आने वाले समय में इसकी कीमत चुकानी होगी। 

आप जानते ही है कि पहली बार नामचीन चैनल जी न्यूज के संपादक ही बेचारे कैमरे की चपेट में आ गए। स्टिंग आपरेशन का जो हिस्सा सामने आया है, उसे देखने से साफ है कि वो अपने चैनल पर चल रही खबर को रोकने के लिए 100 करोड़ रुपये का सौदा कर रहे हैं। वैसे तो सुधीर चौधरी किसी परिचय के मोहताज नहीं है। आपको याद होगा दिल्ली में एक टीवी चैनल ने लगभग दो साल पहले एक खबर चला दी कि महिला टीचर स्कूल की बच्चियों से वैश्यावृत्ति कराती है। इस खबर के बाद बेचारी टीचर का जीना मुहाल हो गया। उसे पब्लिक के गुस्से का भी सामना करना पड़ा। बाद में जांच हुई तो ये खबर गलत साबित हुई। इस मामले को केंद्र सरकार ने काफी गंभीरता से लिया और चैनल को पूरे महीने भर के लिए आफ एयर ( यानि बंद ) कर दिया। ये एतिहासिक काम तब हुआ जब इस चैनल में यही सुधीर चौधरी ही संपादक थे। वैसे श्री चौधरी का पहले भी सीबीआई से भी पाला पड़ चुका है।

न्यूज चैनलों के संपादकों की संस्था ब्राडकास्टिंग एडीटर्स एसोसिएशन ( बीएई) ने अपनी संस्था की साख बचाए रखने के लिए संपादक चौधरी की सदस्यता को खत्म कर उन्हें कोषाध्यक्ष पद से मुक्त कर दिया है। माना जा रहा था कि चैनल की साख बचाए रखने के लिए जी न्यूज का प्रबंधन चौधरी के खिलाफ कोई सख्त  कार्रवाई करेगा, लेकिन प्रबंधन इसे गलत नहीं मानता है। बहरहाल संपादकों और प्रबंधन दोनों को इलेक्ट्रानिक मीडिया की छवि की चिंता करनी चाहिए, वरना मीडिया की साख का क्या होगा ? सवाल तो ये भा बना हुआ है कि अगर मीडिया की नैतिक शक्ति ही नहीं बचेगी और वह मुनाफे की भेंट चढ़ जाएगी तो लोकतंत्र के एक मजबूत खंभे को ढहने से भला कौन बचा पाएगा ?

संक्षेप में पूरा मामला  आपको  बता दूं, दरअसल पिछले दिनों देश मे कोल ब्लाक आवंटन का मामला छाया रहा, सभी चैनल और अखबारों ने इस मामले में बहुत खबरें कीं। जी न्यूज पर भी तमाम खबरें चलीं। बाद में जी न्यूज ने सीधे सीधे जिंदल की कंपनी को टारगेट कर एक सीरीज ही चला दी। खबर गलत और सही पर हम बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन आरोप ये लग रहा है कि खबर रोकने की कीमत लगाई गई सौ करोड रुपये। आरोप है कि इस सौदे को अंतिम रुप देने के लिए संपादक सुधीर चौधरी खुद एक होटल पहुंच गए। वहां पहले से ही कैमरे लगाए गए थे, जिसमें बेचारे संपादक जी की आवाज रिकार्ड हो गई। हालाकि मैं एक बात साफ कर दूं कि संपादक सौ करोड़ रुपये अपने लिए नहीं मांगे, उन्होंने 100 करोड का विज्ञापन चैनल को देने का प्रस्ताव रखा था।
न्यूज चैनल में पहली बार एक नई बात पता चल रही है। कहा जा रहा है कि सुधीर चैनल के संपादक के साथ ही विजिनेस हेड भी हैं। लिहाजा विज्ञापन के लिए वो तमाम लोगों के साथ जहां तहां मीटिंग करते रहते हैं। सच कहूं तो ये तर्क सही हो सकता है, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया में शायद ये पहला उदाहरण हो कि संपादक ही चैनल का विजिनेस हेड है। ऐसे में सवाल उठता है कि कोई संपादक खबर को लेकर निर्णय करे और वही आदमी खबर को लेकर बिजनेस का निर्णय करे तो खबर हावी होगी या बिजनेस? स्पष्ट है बिजनेस के लिए खबर हावी होगा और उस खबर से बिजनेस होगा। जी न्यूज से यही खेल चल पड़ा है और यह खेल पेड न्यूज से कहीं ज्यादा बदबूदार है।

मेरा मानना है कि अगर ये बात साबित हो जाती है कि  जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी चैनल प्रंबधन की जानकारी में ये सौदा करने गए थे तो अकेले चौधरी ही सजा क्यों भुगतें ? फिर तो उतनी ही जिम्मेदारी प्रबंधन की भी है। वैसे स्टिंग आपरेशन का खुलासा हो जाने के बाद भी आज तक प्रबंधन ने चौधरी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, इससे तो यही लगता है कि इस पूरे मामले की जानकारी प्रबंधन को थी। खैर पुलिस  अपना  काम  कर रही है, कुछ दिन में सारे तथ्य सामने आ जाएंगे। लेकिन मीडिया का जो रूप  सामने आया है वो बहुत डरावना है। आज देश भर में भ्रष्टाचार एक  बड़ा मुद्दा बना हुआ है। लोगों को भरोसा  की इस आंदोलन को मीडिया का भरपूर सहयोग मिलेगा। लेकिन संपादक की गिरफ्तारी से लोगों का इस संस्था पर से भरोसा भी कम हुआ है।   

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Sunday 18 November 2012

टीवी न्यूज : निकालते रहो टमाटर से हनुमान !


टीवी न्यूज चैनलों से धीरे धीरे खबरें गायब होती जा रही हैं। कहने को न्यूज चैनल 24 घंटे के हैं और हमेशा खबर दिखाए जाने का दावा भी करते हैं, लेकिन इन दावों में कोई सच्चाई नजर नहीं आती है। सुबह ज्यादातर चैनल पर ज्योतिष और पंडित बैठे रहते हैं, वो लोगों बताते हैं कि आज किस रंग के कपड़े पहने कि सब कुछ अच्छा बीते। ज्योतिषियों के जाने के कुछ देर बाद ही सास,बहू, साजिश टाइप शो शुरू हो जाते हैं। शाम होते होते एक बार फिर चैनलों पर अखाड़ा सजने लगता है, जिसमें किसी भी बात पर बहस होती है, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलता। देर रात में ज्यादातर चैनल खोई हुई जवानी हासिल करने के लिए ताकत की दवा बेचते नजर आते हैं। कुछ चैनल तो सुबह से शाम तक प्रोमों चलाते हैं कि शाम को देखिए बड़ा खुलासा और शाम होती है तो वो टमाटर से हनुमान निकालने लगते हैं। अच्छा न्यूज चैनलों का काम मनोरंजक चैनलों ने लिया है। वो सामाजिक सरोकारों और अपराध की बड़ी घटनाओं से जुड़े मुद्दों पर बकायदा स्पेशल प्रोग्राम दिखा रहे हैं, जबकि धार्मिक चैनलों पर धर्म के अलावा सबकुछ है।

हम देखें तो पत्रकारिता में काफी बदलाव आया है। पहले रिपोर्टर को कोई खबर मिलती थी तो रिपोर्टर मौके पर जाकर पूरी जानकारी करता था, आफिस आकर कहानी लिखता था, फिर एक सब एडीटर कापी चेक कर उस पर हैडिंग लिखता था और ये खबर अखबार में प्रकाशित हो जाती थी। आज हालात बदल गए हैं,  अब सब एडीटर पहले हैडिंग तैयार करता है, वो रिपोर्टर को थमाई जाती है और कहा जाता है कि इसी आधार पर खबर लिखी जानी चाहिए। न्यूज चैनलों का हाल तो और बुरा है। यहां तो रात में तैयार हो जाता है अगले दिन का डे प्लान और सुबह सुबह तैयार होता है कि रात में क्या चलाया जाएगा। मतलब ये कि चैनल ही तैयार करते है कि कल क्या खबर होगी। देश के लोगों को क्या खबर दिखाई जानी है। अच्छा अगर चैनल में किसी  रिपोर्टर को बड़ी खबर हाथ लग जाए तो उसकी और मुसीबत है। पहले तो वो ये जवाब दे कि आपके पास इस खबर का प्रमाण क्या है ? रिपोर्टर बताता है कि खबर से संबंधित सारे डाक्यूमेंट हैं हमारे पास। फिर  सवाल डाक्यूमेंट सही हैं ना ? हां क्यों नहीं, सारे पेपर सही हैं। अच्छा ये स्टोरी ली गई तो दिखाएंगे क्या? बस इसी सवाल पर स्टोरी खत्म हो जाती है।

अकसर किसी समारोह या फिर सफर के दौरान कोई परिचित मिलता है, तो उनका एक सवाल होता है, वो कहते हैं, आप पत्रकारिता में दखल रखते हैं, आप बताएगें कि न्यूज चैनलों का इस कदर पतन क्यों हो गया है? जब भी समाचार देखने को मन होता है, किसी भी चैनल पर खबर नहीं चल रही होती। जो चैनल सबसे सर्वोच्च होने का दावा करते है, उसमें तो विज्ञापन ही विज्ञापन होते हैं। खबरों को वह फिलर की तरह इस्तेमाल करते है। जो चैनल खुद को बौद्धिक होने का दावा करते है, वह शाम को एक के बाद दूसरी अनर्गल परिचर्चाओं में उलझे रहते हैं। चैनल मामूली खबर को भी ऐसे दिखाते हैं, जैसे कि कोई तूफान आ गया हो। मजबूर होकर हमें अपने रीजनल चैनल पर आना पड़ता है, लेकिन वहां हिंदी इतनी खराब होती है, सच कहूं तो उबकाई आने लगती है। वैसे रही बात विज्ञापन की तो मैं चैनल के साथ रहूंगा, क्योंकि आज जिस तरह के चैनलों के खर्चे हैं, बिना विज्ञापन के चैनल को चलाना बहुत मुश्किल है। लेकिन खबरों को लेकर उनकी शिकायत मुझे भी जायज लगती है।

एक बात मुझे वाकई परेशान करती है। मैं देखता हूं कि आज किसी भी न्यूज चैनल पर ऐसा कोई प्रोग्राम नहीं है, जिसका लोगों को इंतजार हो। मतलब लोग अपने सारे काम छोड़कर इंतजार करें कि फलां चैनल पर ये कार्यक्रम आने वाला है, उसे देखकर ही दूसरा काम निपटाया जाएगा। देश में सर्वोत्तम चैनल का पुरस्कार लगातार 12 साल से आजतक  को मिल रहा है। मैं आजतक से ही ये जानना चाहूं कि क्या वो कोई भी ऐसा कार्यक्रम या बुलेटिन बता सकते हैं, जिसका देश में लोग इंतजार हो ? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इसका कोई जवाब इनके पास नहीं होगा। मुझे आज भी याद है कि छोटे पर्दे पर एक जमाने में तमाम  ऐसे शो रहे हैं,  जिसका लोगों को पूरे हफ्ते इंतजार रहता था। इसमें रामायण, हमलोग, कहानी घर घर की, सास भी कभी बहू थी जैसे शो को ना सिर्फ लोग पसंद करते थे, बल्कि इस शो का लोगों को इंतजार भी रहता  था। न्यूज चैनल पर आखिर ऐसा क्यों नहीं है ?

हां मैं बहुत ईमानदारी से एक बात जरूर कहना चाहूंगा । अगर इलेक्ट्रानिक मीडिया में कभी रचनात्मक पत्रकारिता की बात होगी तो मैं अपने चैनल यानि IBN7 को पहले स्थान पर रखूंगा। यहां हर तपके की समस्याओं को लेकर कुछ ना कुछ खास कार्यक्रम आज भी हैं। मसलन जिंदगी लाइवएक  ऐसा कार्यक्रम है, जिसमें सामाजिक बुराइयों को लेकर एक से बढ़कर एक शो बनाए गए और लोगों  ने इसे खूब सराहा भी  है। आप  ibnkhabar.com पर इस शो को आज भी देख सकते हैं। अगर मैं आमिर खान के लोकप्रिय  शो सत्यमेव जयतेको  जिंदगी लाइवशो का नकल कहूं तो गलत नहीं होगा। यही वजह है कि ये शो आज भी चैनल की जान है। आईटीए अवार्ड में भी इस शो को पुरस्कृत किया गया है।

आज कौन सा न्यूज चैनल है जो स्पेशल (विकलांग) लोगों की फिक्र करता है। लेकिन ये हिम्मत भी करता है IBN7। दरअसल इसके पीछे चैनल के एडीटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई और मैनेजिग एडीटर आशुतोष  की सकारात्मक सोच है। मैने तो दूसरे चैनल में कभी काम नहीं किया तो मुझे नहीं पता कि वहां एडीटर्स की क्या सोच है, लेकिन मैने न्यूज रूम में कई बार राजदीप को सुना है। उनका कहना है कि बेहतर पत्रकार होने के लिए सबसे जरूरी है बेहतर इंसान होना, जो बेहतर इंसान नहीं बन सकता वो बेहतर पत्रकार तो कभी नहीं हो सकता। चार साल पहले चैनल पर सुपर आयडल अवार्ड शुरू किया गया है, जिसमें ऐसे लोगों को प्रोत्साहित किया जाता है जो विकलांग होते हुए भी देश के लिए बड़ा काम करते हैं। इसी तरह एक खास कार्यक्रम है सिटिजन जर्नलिस्ट। आमतौर  पर देखा जाता है कि बहुत से लोग हैं तो तरह तरह की मुश्किलों को लेकर संघर्ष करते हैं, लेकिन उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती है। ऐसे लोगों के संघर्ष को ताकत देने वाला प्रोग्राम है सिटिजन जर्नलिस्ट।

खैर ये तो एक चैनल की बात हुई, सवाल ये है कि आखिर न्यूज चैनल का फोकस क्या है ? चैनल करना क्या चाहते हैं और जो करना चाहते हैं उसका रास्ता क्या है ? अब आज की ही बात ले लें। सुबह नींद खुली तो चैनल पर बाल ठाकरे की शवयात्रा से दिन की शुरुआत हुई, रात तक यही खबर चलती रही, बस फर्क इतना रहा कि सुबह ये शव ट्रक पर था, रात को चिता पर। अब क्या इतने बड़े देश में आज पूरे दिन एक ही खबर थी ठाकरे की शवयात्रा। सच ये है कि दूसरी खबर चैनल पर चलाने की हिम्मत चाहिए, और वो  हिम्मत आज कोई भी एडीटर आसानी से नहीं कर सकता। दरअसल सबको पता है कि चैनल की टीआरपी के हिसाब से मुंबई एक महत्वपूर्ण महानगर है। इसीलिए चैनल इस शवयात्रा से भी टीआरपी खींचने में लगे रहे। वैसे भी आप सब जानते हैं कि रविवार के दिन लगभग सभी चैनल पर खास प्रोग्राम का दिन होता है, लेकिन जब शवयात्रा से ही टीआरपी का जुगाड़ हो गया हो, तो प्रोग्राम रोक लिए गए, चलिए अगले संडे को आराम रहेगा।

अच्छा ये गिरावट महज न्यूज चैनल तक नहीं है, बल्कि मनोरंजक चैनलों पर भी ऐसा ही कुछ है। घिसे पिटे कार्यक्रम देखकर लोग बोर हो रहे हैं। कुछ कार्यक्रम हैं जो कई साल से चल रहे हैं, उसमें कोई नयापन नहीं है। अच्छा आज कल छोटे पर्दे पर एक और चीज हो रही है, विभिन्न शो में नई फिल्मों के प्रमोशन के लिए हीरो हीरोइन पहुंचते हैं। ये सभी जगह एक ही बात करते हैं, वैसे भी इनके पास अपनी फिल्म के बारे में हर जगह नया कहने के लिए भला क्या हो सकता है ? बस बोर करते हैं दर्शकों को। हां पहले तो ये न्यूज चैनलों पर फिल्म का प्रमोशन करते हैं, उसके बाद ये टीवी शो में जाते हैं। बस कहना इतना है कि मनोरंजक चैनल पर मनोरंजन को छोड़कर सबकुछ है। इसीलिए कहता हूं कि छोटे पर्दे को भी पहले अपना रास्ता तलाशना होगा, फिर उस रास्ते पर चलने के लिए ठोस कार्यक्रम बनाना होगा। चलिए अब इंतजार करते, हम भी और आप भी कीजिए।




  



Saturday 10 November 2012

न्यूज चैनल में भी हैं राजा और कांडा !


टीवी न्यूज चैनलों को अब आत्ममंथन करने की जरूरत है। जी न्यूज के मैनेजिंग एडीटर सुधीर चौधरी का जिंदल ग्रुप के साथ खबरों को लेकर सौदेबाजी का मामला अभी ठंडा नहीं पड़ा है कि हिंदी के जाने माने न्यूज चैनल "आज तक" के मैनेजिंग एडीटर सुप्रिय प्रसाद का अपने  ही चैनल की एक महिला कर्मी से अभद्र व्यवहार का मामला सुर्खियों में है। जो हालात हैं उसे अगर टीवी यानि न्यूज चैनल की भाषा में कहूं तो हम कह सकते हैं कि अब न्यूज चैनल भी ए राजा और गोपाल कांडा से अछूते नहीं रहे। फर्क बस इतना है कि राजा और कांडा की करतूतें सामने आ चुकी हैं, जबकि टीवी के राजा और कांडा तक अभी पुलिस नहीं पहुंच पाई है। मैं बहुत जिम्मेदारी से ब्राडकास्टिंग एडीटर एसोसिएशन का ध्यान इस ओर ले जाना चाहता हूं कि अगर समय रहते ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई नहीं हुई तो इलेक्ट्रानिक मीडिया अपनी बची खुची विश्वसनीयता और सम्मान से भी हाथ धो बैठेगा।

खबरों को लेकर सुर्खियों में रहने वाली मीडिया आज खुद खबरों में है। मीडिया से जुड़ा हूं तो जाहिर है बहुत सी चीजें देखता भी हूं, आज एक बार फिर उन्हीं बातों पर चर्चा करूंगा। मैं हमेशा इस मत का रहा हूं कि अगर आप अपने गिरेबां में झांकने की हिम्मत नहीं रखते तो आपको दूसरों पर उंगली उठाने का हक नहीं है। इसी ब्लाग पर मैने दो लेख जी न्यूज के मैनेजिंग एडीटर सुधीर चौधरी को लेकर लिखा है। आप सब को पता है कि जो साक्ष्य अब तक सामने आए हैं, उससे साफ है कि जी न्यूज के एडीटर जिंदल ग्रुप के अफसरों के साथ खबरों की सौदेबाजी कर रहे थे। मसलन अगर जिंदल ग्रुप उन्हें सौ करोड रुपये का विज्ञापन  देने को तेयार हो जाता तो वो फिर जिंदल ग्रुप के खिलाफ खबरें ना चलाते। स्टिंग आपरेशन में इसी तरह की बेहूदी बातें करते हुए चौधरी पकड़े गए, जिसके बाद बीइए यानि ब्राडकास्टिंग एडीटर एसोसिएशन ने उन्हें बीइए के कोषाध्यक्ष पद से बेदखल कर उनकी एसोसिएशन की सदस्यता भी समाप्त कर दी। बहरहाल अब जी न्यूज और जिंदल ग्रुप दोनों ही इस मामले में अदालत में है।

अब ताजा मामला जाने माने न्यूज चैनल  "आज तक"  के मैनेजिंग एडीटर सुप्रिय प्रसाद का है। जो जानकारी अभी तक सामने आई है, उसके अनुसार इंडियन टेलीवीजन अवार्ड (आईटीए) के सिलसिले में सुप्रिय प्रसाद दिल्ली से मुंबई गए थे। दरअसल आज तक को लगातार 12 वीं बार सर्वश्रेष्ठ हिंदी न्यूज चैनल घोषित किया गया था। इसी अवार्ड को लेने सुप्रिय मुंबई में थे। सर्वश्रेष्ठ न्यूज चैनल का अवार्ड लेने वाले मैनेजिंग एडीटर ने मुंबई में अपने ही चैनल की इंटरटेंटमेंट एडीटर रुक्मनी सेन के साथ अभद्र व्यवहार किया। उन्होंने जिस तरह का संवाद इस महिलाकर्मी के साथ किया, सभ्य समाज में उसे कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता है। हालाकि ये विवाद का विषय हो सकता है कि जो बातें सुप्रिय ने अपनी महिला सहकर्मी रुक्मनी से की वो आमतौर पर "चलता" है।  लेकिन मैं इसे कत्तई जायज नहीं ठहरा सकता। महिलाओं के साथ अभद्रता की जो परिभाषा कोर्ट ने तय की है, उसके अनुसार तो अगर आप किसी महिला को बुरी नजर से देखते भर हैं तो आपके खिलाफ सख्त कार्रवाई हो सकती है।

हां, बहुत से पढ़े लिखे और खासतौर पर टीवी वाले ये सवाल जरूर उठाते हैं कि ये तय कौन करेगा कि नजर बुरी थी या ठीक थी। कोर्ट को पहले ही पता था कि ऐसे बेतुके सवालों की आड़ में गंदगी करने वाले लोग बचने की कोशिश कर सकते हैं, लिहाजा कोर्ट ने साफ कर दिया कि महिला के बयान को ही सही माना जाएगा और पुरुष को ये साबित करना होगा कि उसने  महिला पर गलत नजर नहीं डाली थी। चलिए हम इस मामले को कोर्ट कचहरी से दूर आपस में बैठकर सुलझाने का रास्ता बताते हैं। मेरा मानना  है कि जो बातें और जिस अंदाज में आज तक के मैनेजिंग एडीटर ने अपनी महिला सहकर्मी के साथ की, अगर वही बातें उसी अंदाज में एडीटर साहब अपने परिवार की किसी भी महिला सदस्य के साथ करने की हिम्मत रखते हैं,  इसमें उन्हें किसी तरह की हिचक नहीं है, तो मैं उन्हें क्लीन चिट देता हूं, कि उन्होंने कोई गलत बात नहीं की।

बहरहाल दो लोगों के बीच ये बातचीत हुई है। महिलाकर्मी ने सार्वजनिक रूप से अपने एडीटर पर आरोप लगाया है कि उन्होंने अभद्रता की है। सुप्रिय प्रसाद की फिलहाल कोई सफाई नहीं आई है। वैसे सच क्या है, ये तो खुद चैनल और सुप्रिय प्रसाद जानें। लेकिन कहा तो यहां तक जा रहा है कि "आज तक" से जब सुप्रिय ने पहली बार नौकरी छोड़ी थी, उस समय भी उन पर कुछ इसी तरह के गंभीर आरोप लगे थे। खैर रुक्मणि सेन ने न्यूज चैनल से इस्तीफा दे दिया है और उन्होंने आज तक  के मालिक अरुण पुरी को एक पत्र लिखकर पूरे मामले की जानकारी दी है। लीजिए आप भी पढ़ लीजिए ये पत्र।

Dear Mr Purie,
Supriya Prasad and I had a meeting yesterday regarding my resignation letter. The meeting ended up being very offensive and humiliating.
The conversation unfolded like this-

- So Are you leaving this job for that man?
- Where does he live?
- Oh I know because you changed your FB status!
- Why are you in a long distance relationship?
- Will you marry him?
- Boyfriend waala maamla bekaar hai.
- Oh but I am sure you have many boyfriends.
- Which number is this one?
- Will you never get married? Live like this? with many?

When I gave him the CD for anchors and mentioned the boy in the CD is good. He reacted with 'I have no interest in men'.
 Supriya Prasad has never been my friend. I have always been very professional with him. Kept my distance to be specific. He has dropped SBB left, right and centre.
 I was meaning to process what has happened and write to you. Now Arijit of HR calls me and tells me today is my last day. I don't have to serve my notice! Guess something has scared the organization deeply. Is it my sms to Supriya Pd? Is it my FB status?
 Will you take any action against him? Will you put him in a behaviour change workshop?
 Considering you re-hired a habitual offender guess this kind of behaviour is ok with you too??
 I will watch the action taken. I am not pleading. Not complaining. I am offended and I blame you and no one less for putting me through this feudal, uncouth, uncivilzed, masculine, priviledged and POWERFUL behaviour.
 Shame!!!!
Rukmini Sen
Editor (Entertainment) - Editorial TVTN
TV Today Network Ltd.
Videocon Tower,
E-1, Jhandewalan Extn.,
New Delhi-110055
+91-11- 23684878,23684888


चलिए कुछ और लोगों की भी बात कर ली जाए। इलेक्ट्रानिक मीडिया में गंदगी खबरों की सौदेबाजी और महिलाकर्मियों से अभद्रता तक सीमित नहीं है, बल्कि यहां शराब पीकर भी बहुत ड्रामेबाजी चलती है। चलिए आप शराब पीएं और सड़क पर ड्रामा करें, ये आपका व्यक्तिगत मामला हो सकता है, लेकिन शराब पीकर आप हाथ में न्यूज चैनल का माइक कैसे पकड़ सकते हैं ? ये हुआ हिमांचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान। हिमांचल में चुनाव के दौरान कई न्यूज चैनल रोजाना चौपाल लगा रहे थे। जिसमें उम्मीदवारों के साथ ही स्थानीय लोगों के बीच लाइव बहस चल रही थी। मैने देखा कि एक नामचीन चैनल के जाने माने एंकर ने मंडी में शराब पीकर बहस की शुरुआत कर दी। वैसे तो पहाड़ में शाम होते ही ज्यादातर लोग  "टुन्न " हो जाते हैं, लेकिन कोई एंकर जो एक शो करने जा रहा है, वो  भला कैसे शो के पहले शराब पी सकता है ? बस टल्ली एंकर ने शुरू किया शो, पांच मिनट में हंगामा,  मारपीट हो जाने के बाद बीच में ही शो को खत्म करना पड़ गया। अब ऐसा भी नहीं है कि जब ये मामला हिमांचल के मंडी  में आम लोगों को पता हो, तो चैनल के जिम्मेदार लोगों को पता नहीं होगा। बहरहाल सच्चाई ये है कि एंकर  का नाम इतना बड़ा है कि चैनल के कर्ता धर्ता उनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं।

जब चैनलों के बड़े-बड़े लोग ऐसा वैसा कर रहे हों तो भला छोटे कर्मचारी क्यों पीछे रहते। ब्लैकमेलिंग के एक ताजा मामले में पुलिस ने एबीपी न्यूज और इंडिया टीवी की एक रिपोर्टर के खिलाफ न्यायालय के आदेश पर मामला दर्ज किया है। इस मामले के खुलासे के बाद हालाकि एबीपी न्यूज ऩे अपने रिपोर्टर का कांट्रेक्ट फिलहाल स्थगित कर दिया है। इसके अलावा कुछ लोगों की जांच टीम बना दी है। वैसे क्या कहूं, लेकिन अब जांच टीम बनाने का  क्या मतलब है ? अब तो पुलिस भी जांच कर रही है और मामला न्यायालय में है तो कुछ दिन  में खुलासा खुद ही हो जाएगा। लेकिन मैं ये मानता हूं कि लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ भी चोरी चकारी से अछूता नहीं है। बात पेड न्यूज से बहुत आगे निकल चुकी है। हर चुनाव के दौरान  पत्रकारों की कारें कैसे बदल जाती हैं, कुछ लोग कैसे गृहप्रवेश करने लगते हैं, इन सब नजर रखने की जररूत है।

सब जानते  हैं  कि  सरकार ने जब भी मीडिया पर अंकुल लगाने की कोशिश की तो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला बताकर उसका मीडिया समूहों ने पुरजोर विरोध किया,  लिहाजा कोई भी सरकार मीडिया को नियंत्रित करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। लेकिन एक के बाद एक जिस तरह के मामलों का खुलासा हो रहा है, ऐसे में अगर मीडिया संस्थानों ने अपने कर्मचारियों पर नकेल नहीं कसी तो लोकतंत्र के इस चौथे पाए के गले में भी घंटी बांधना सरकार की मजबूरी हो जाएगी। ब्राडकास्टिंग एडीटर एसोसिएशन को सिर्फ आर्थिक मामलों  तक खुद को सीमित नहीं रखना चाहिए,  बल्कि चारित्रिक और नैतिक मामलों में भी ठोस पहल करनी होगी। मुझे हैरानी हुई है कि जी न्यूज के मैनेजिंग एडीटर पर आरोप लगने के बाद उन्हें तत्काल एसोसिएशन से बाहर  कर दिया गया, जबकि उससे कहीं गंभीर आरोप आज तक के मैनेजिंग एडीटर पर है, लेकिन बीइए खामोश है। मुझे लगता है कि इस मामले में बीइए को खुद पहल कर ठोस कार्रवाई करनी होगी, जिससे बीइए की भी विश्वसनीयता और प्रमाणिकता पर आंच ना  आए।  
 
आप सभी मित्रों  को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं ...

Saturday 3 November 2012

बिग बॉस बोले तो ख़ुराफातियों का बाप !


ये है बिग बास का घर। यहां कोई किसी का सगा नहीं। यहां सबके चेहरे तो असली है, लेकिन उनका किरदार नकली यानि बनावटी है। 24 घंटे इन सबके दिमाग में एक ही बात घूमती है कि कैसे साथी प्रतियोगियों को पटखनी देकर बिग बास की इनामी राशि पर हाथ साफ करे। अच्छा मजेदार बात ये है कि इन प्रतियोगियों से बात करें कि वो बिग बास के घर में क्यों आए हैं ? इसका जवाब सभी का लगभग एक सा है। मसलन ये सभी यहां कुछ सीखने आए हैं। भाई अगर वाकई कुछ सीखने आए हैं तो ये अच्छी बात है। लेकिन सीखने आना था तो साफ सुथरे, खुले मन और दिमाग भर लेकर आते। यहां घर में झूठ, मक्कारी, फरेब और घटियापन को अपने साथ लाने की भला क्या जरूरत थी ? वैसे भी जब दिमाग में कूड़ा भरा हो तो यहां सीखेंगे क्या ? मुझे तो कई बार लगता है कि इन घर वालों से तो पूछा ही जाना चाहिए कि इतने दिनों में कोई एक बात जो इन्होंने सीखी हो और घर के बाहर भी पूछ लिया जाए कि लोगों को इस शो से क्या सीखने को मिल रहा है।

बिग बास के घर में क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू कुछ दिन तक तो इस तरह बड़ी बड़ी बातें करते रहे, जैसे वो ही बिग बास के बाप हैं। हर बात में ज्ञान की लंबी लबी लफ्फाजी छोड़ते रहे। घर में मिलने वाले टास्क को वो गंभीरता से नहीं ले रहे थे, यहां तक की खेल के नियम यानि साप्ताहिक नामिनेशनकरने में उन्हें लग रहा था कि वो अपने धर्मविरुद्ध काम कर रहे हैं। बिग बास ने इसकी सजा जब सारे घर वालों को नामिनेट करके सुना दी, तो सिद्दू बैकफुट पर आ गए। उन्हें लग गया कि ऐसे तो घर में सब उनके खिलाफ हो जाएंगे। बस उन्होंने ऐलान कर दिया कि अब दो लोग मेरी नजर में आ गए हैं और मौका मिला तो नामिनेट करेंगे। बिग बास ने बुलाया और सिद्धू ने तड़ से दो नाम ले लिए। सिद्धू को सेवक बनाया गया तो उन्हें सेवक वाली लुंगी पहनने से इनकार किया, मालिक से पहले भोजन कर टास्क को फेल किया।

वैसे तो सिद्धू खुद कई बार ये बात कह चुके हैं कि बिग बास के घर में आने के लिए उनका परिवार रोक रहा था। लोगों ने पिछले पांच सीजन देखें है, उन्हें लग रहा था कि यहां का माहौल बड़ा गंदा होता है। सिद्धू का कहना है कि वो अपने परिवार से ये वादा करके आए हैं कि कोई ऐसा काम नहीं करेंगे, जिससे उनकी इमेज पर बट्टा लगे। लेकिन बड़ा सवाल ये भी है कि खेल कुछ नियम कायदे होते हैं, वो तो आपको मानना ही होगा। लेकिन सिद्धू मनमानी कर रहे हैं, टास्क में हिस्सा नहीं ले रहे, जिससे एक बार तो घर का लक्जरी बजट भी शून्य हो गया। सिद्धू घर के भीतर जिस तरह खुद को प्रोजेक्ट कर रहे थे, उससे मुझे तो यही लग रहा था कि जैसे वो बिग बास के भी बाप हैं। लेकिन बिग बास ने भी सिद्धू को दिखा दिया कि घर में उनकी हैसियत क्या है, और बिग बास की क्या है।

बिग बास ने देखा कि सब घरवाले सिद्धू को सर का संबोधन करते हैं। इससे सिद्धू को लगता है कि घर के बिग बास वो ही हैं। बस बिग बास ने तय कर लिया कि सिद्धू को अगर समय रहते नहीं बता दिया गया कि ये एक खेल है और खेल में कोई बड़ा छोटा नहीं होता तो आगे और मुश्किल हो सकती है। बस फिर क्या था, बिग बास ने कैप्टन के चुनाव के नाम पर घर में वोटिंग करा दी। सिद्धू और डेलनाज के बीच हुए मतदान में सिद्धू को एक भी वोट नहीं मिला। मुझे लगता है कि सिद्धू को इसी से सीख लेना चाहिए कि एक घर में लोगों का दिल जीतना कितना मुश्किल काम है। दूसरे घर वाले तो सिद्धू को सर कहकर उनका दिल जीत चुके  है, पर क्या सिद्धू ने कभी घर वालो का दिल जीतने के लिए कुछ किया। मैने तो नहीं देखा कि वो ऐसा कुछ कर रहे हैं। हां बड़े क्रिकेटर रहे हैं, हम सब सम्मान करते हैं, लेकिन घर में वो ऐसा कुछ नहीं कर पाए हैं जिससे कहा जाए कि यहां वो फिट हैं।

मुझे तो कोई हैरानी नहीं होगी अगर सिद्धू नवंबर के आखिरी हफ्ते या उसके कुछ पहले किसी बहाने घर से बाहर चले जाएं। आप सबको पता है कि गुजरात में चुनाव चल रहा है। चुनाव के दौरान बीजेपी सिद्धू को चुनाव  प्रचार में इस्तेमाल करती है। भारत निर्वाचन आयोग में बीजेपी ने गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए जिन नेताओं के नामों की सूची सौंपी है, उसमें नवजोत सिंह सिद्धू का नाम शामिल है। वहां 13 और 17 दिसंबर यानि दो चरणों में मतदान होना है। ऐसे में कम से कम 15 दिन सिद्धू को वहां प्रचार करना पड़ सकता है। पार्टी को भी पता है कि इस वक्त सिद्धू बिग बास के घर में हैं। अगर उन्हें बाहर नहीं आना होता तो पार्टी उनका नाम आयोग ना भेजती। इसलिए मुझे तो लगता है कि नवंबर के आखिर सप्ताह में सिद्धू की किसी तरह बिदाई हो जाएगी।

गुलाबी गैंग की मुखिया संपत पाल और ब्यूटिशियन सपना भी यहां है। विचित्र करेक्टर है दोनों का। पहले बात कर लेते हैं कि सपना का। सपना ने पहले दो तीन दिन जिस तरह की बातचीत की, उससे तो लगा कि आने वाले समय में देश में वो एक आदर्श महिला की तस्वीर पेश करने वाली हैं। खुद महिला होकर उन्होंने महिलाओं के पहनावे को लेकर जिस तरह की बातें नेशनल टीवी पर की, वो बात तो मुझे ब्लाग पर लिखने में भी संकोच है। बहरहाल उनका कहने के मकसद यही था कि बिग बास चाहते हैं कि महिलाएं कम कपड़े पहने, भद्दे तरीके कमर मटकाएं। सपना ने ये बताने की कोशिश की कि वो ये सब नहीं कर सकतीं। लेकिन तीन दिन बाद ही सपना खुद 8 – 10 ग्राम कपड़ों में स्विंमिंग पूल में थीं। ये देखकर मुझे जरूर हैरानी हुई।


गुलाबी गैंग की मुखिया संपत के बारे में क्या कहा जाए। घर वालों ने उनके बारे में ठीक ही कहा कि वो एड़ा बनकर पेड़ा खा रही हैं। अंदर की बात तो ये है कि संपत ही नहीं खुद बिग बास को भी नहीं लगा था कि ये इतने दिनों तक यहां टिक पाएंगी। वैसे भी संपत पाल को 28 अक्टूबर को महिला सशक्तिकरण के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने विदेश जाना था। वो इस कार्यक्रम में जाने की बहुत इच्छुक भी थीं। लेकिन घर में ऐसे चक्रव्यूह में फंस गई हैं कि निकलना मुश्किल हो गया है। पिछले दिनों शोर शराबे से लेकर बीमारी तक का जो कुछ भी नाटक उन्होंने किया, वो जानबूझ कर किया गया, जिससे अनुशासनहीनता में ही उन्हें बाहर कर दिया जाए। आईं थीं तो कहा कि वो महिलाओं के हक के लिए लड़ाई लड़ती हैं। लेकिन घर के बाहर हम जो देख रहे हैं, उससे तो यही लग रहा है कि उनकी लड़ाई महिलाओं के खिलाफ ही चल रही है। घर में झूठ बोलकर भी वो फंस गईं। 

मेरी एक शिकायत तो वाकई बिग बास से है। शो में कैसे कैसे लोगों को शामिल किया जाता है। आमतौर पर लोग सेलेब्रेटी को चाहते हैं कि उनके रहन सहन को देखें, वो कैसे रहते हैं घर में। लेकिन बिग बास विवादित और राष्ट्रविरोधी काम करने वालों की यहां मार्केंटिंग कर रहे हैं। देश में संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है,  असीम उसे नेशनल टायलेट बताते हैं। जिस असीम सरकार ने जेल भेजा, उसे बिग बास ने सम्मान देकर अपने शो में शामिल कर लिया। इनके कार्टून में कसाब भारत के संविधान पर टायलेट कर रहा है, भारत माता को तिरंगा पहनाकर गैंगरेप की बात करने वाले को घर में जगह देकर बिगबास ने साबित  कर दिया है कि वो देश की बुराइयों का सौदा करते हैं। तलाकशुदा पति पत्नी को भीतर रखा गया है। कोशिश करते ऐसे दंपत्ति को घर में रखने की जिसने दुनिया में नाम कमाया है। खैर फिर यहां वो सब ना हो पाता जो हो रहा है। बहरहाल इसीलिए कहा ना कि ये है बिग बास का घर, यहां कोई किसी का सगा नहीं।

 वैसे आपको भी पता है कि इस घर में आने का मौका उसे ही मिलता है, जिसमें बिग बास को कुछ " खास " नजर आता है। आपको हैरानी होगी, लेकिन सच ये है कि एक बार इस घर में शामिल होने का न्यौता मुझे भी मिला था। मैं इंटरव्यू के लिए बिग बास के सामने बैठा। उन्होंने मेरा नाम पूछा, मैने नाम बताया। अगला सवाल था कि क्या आप ज्वाइंट फैमिली में रहते हैं ? मैने कहा हां, बिग बास को मेरा जवाब अच्छा नहीं लगा। फिर पूछा सड़क चलते आपकी किसी से कितनीदे बार तू-तू मै-मै हुई है, मैने बताया, मेरे साथ तो ऐसा नहीं हुआ। बस इतना कहना था कि बिग बास ने एक बहुत भद्दी सी गाली दी, मैं चौंक गया और मैं उन्हें ऊपर से नीचे तक देखता रह गया। मेरे मन में बिग बास को लेकर बहुत इज्जत थी, जो एक मिनट में खत्म हो गई। बहरहाल मैं आगे कुछ बात किए बगैर निकल आया।

बाहर मेरी मुलाकात हुई ऐसे शख्स से जिसे दो दिन बाद बिग बास के घर में होना था। मेरा लटका हुआ चेहरा देखकर उसने पूछा क्या हुआ। मैने उसे पूरी बात बताई तो वो हंसने लगा। बोला आप तो वाकई बेवकूफ हैं, ज्वाइंट फैमिली में रहने वाले का यहां क्या काम है? बताइये रास्ते चलते आप चीखेगे चिल्लाएंगे नही तो आपको आगे जाने का रास्ता कौन देगा ? इसके बाद भी बिग बास ने आपको गाली देकर अंतिम समय तक जागने का मौका दिया। अगर आप बिग बास के गाली देते ही..उनकी भी मां का साकी नाका....कर देते तो भी आपका चुना जाना तय था। चलिए कोई नहीं, आप केबीसी की तैयारी कीजिए, बिग बास से आपकी नहीं बनी तो क्या हुआ बिग बी से जरूर बनेगी।

Thursday 25 October 2012

जी न्यूज : चोरी और सीनाजोरी !

कोल ब्लाक आवंटन में उद्योगपति नवीन जिंदल को मैं क्लीन चिट तो नहीं दे रहा हूं। हो सकता है पैसे और पहुंच के दम पर बहुत कुछ हेरा फेरी की गई हो, लेकिन ये सब जांच का विषय है। इस बीच आज स्टिंग आपरेशन का जो हिस्सा नवीन जिंदल ने प्रेस कान्फ्रेंस में जारी किया है, उससे अब जी न्यूज के संपादक का असली चेहरा जनता के बीच आ चुका है। स्टिंग आपरेशन में साफ-साफ जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी जिंदल ग्रुप के अधिकारियों से पैसे की डिमांड करते हुए दिखाई दे रहे हैं। पहले तो 20 करोड़ रुपये की ही मांग की गई थी, बाद में कहा गया कि 20 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष पांच साल तक यानि पूरे 100 करोड़ रुपये। अच्छा ये पैसे किस बात के हैं, तो कहा जा रहा है कि इसके बाद जी न्यूज पर जिंदल के खिलाफ चल रही श्रंखला " काला पत्थर " को रोक दिया जाएगा। चोरी और सीनाजोरी की बात इसलिए कह रहा हूं कि जी समर्थक कुछ लोगों ने प्रेस कान्फ्रेंस में व्यवधान डालने की कोशिश की, जिससे नवीन जिंदल अपनी बात ना रख सकें। लेकिन जिंदल ने ना सिर्फ अपनी बात रखी, बल्कि उन्होंने स्टिंग का सीडी भी जारी किया।

बहरहाल आज का दिन मीडिया के लिए "काला दिन" है, लेकिन मैं कहता हूं कि ये एतिहासिक दिन है। काला दिन इस लिए एक जाने माने ग्रुप के संपादक सुधीर चौधरी को कैमरे पर पैसे मांगते देश और दुनिया ने देखा। सब ने देखा कि कोट पहने ये सख्स किस तरह सामने रखे खाने पीने के सामान का स्वाद लेते हुए बेशर्मी से पैसे की मांग कर रहा है। मैने लगभग 20 साल की पत्रकारिता में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के तमाम संपादकों के साथ काम किया है, लेकिन ऐसी घिनौनी हरकत करने वाला तो दूर, इस तरह की सोच भी संपादकों में नहीं देखी, पर जी न्यूज संपादक जिस तरह से पैसे मांगते दिखाई दिया, उसने पत्रकारिता की सारी मान मर्यादाओं को तार तार कर दिया। अच्छा जी न्यूज की बेशर्मी बताऊं आपको, जिस दौरान प्रेस कान्फ्रेंस चल रही थी, सभी चैनल दिखा रहे थे कि किस तरह सुधीर पैसे की मांग कर रहे हैं। वहीं जी न्यूज पर खुद सुधीर एंकरिंग करने आ गए और उल्टा जिंदल पर आरोप लगाया कि स्टिंग तो हमने किया कि किस तरह से औद्योगिक घराना खबर रोकने के लिए मीडिया को पैसे की लालच देता है। सुधीर इतनी ताकत से बात कर हैं तो ये बताइये वो आपके आफिस में आए थे, या आप वहां गए थे ? अव वाकई ज्यादा मत बोलिये, बहुत थू थू हो चुकी है मीडिया की।

हाहाहाह। वैसे सुधीर बाबू क्या हो गया है आपको ? कैसी कैसी बातें आन एयर कह रहे हैं ? वैसे सच बताऊं आप एंकरिंग के दौरान जितनी भी बातें कह रहे थे, आपकी बाडीलंग्वेज आपके साथ नहीं थी। साफ लग रहा था कि चोरी पकड़ी गई है और अब आप सफाई दे रहे हैं। सबसे बड़ी बात तो आपके साथ खड़े समीर अहलूवालिया ही आपको देख कर परेशान नजर आ रहे थे,  बेचारे बहुत डरे सहमे से दिखाई दे रहे थे। उनके हाव भाव से लग रहा था कि वो आपकी बातों से सहमत नहीं है, आपको हैरानी की निगाह से देख रहे थे कि आप क्या क्या कहते चले जा रहे हैं। भाई मार्केटिंग के आदमी हैं, उनका काम है चैनल के लिए पैसे जुटाना। अब अगर उसकी आप किसी उद्योगपति के साथ इस स्तर तक बिगाड़ देगें तो बेचारे दूसरी जगह भी जाने के पहले सौ बार सोचेंगे। खैर आपकी बातें सुनकर मुझे हैरानी नहीं हुई। मैं सोच रहा था कि आपकी जगह कोई और भी होता तो वो क्या करता। जो आपने किया वो ही आपके और चैनल दोनों के लिए जरूरी है। अगर कुछ ना बोलते तो लगता कि चैनल ने इस आरोप को स्वीकार कर लिया है, इससे जी न्यूज ने जो वर्षों में एक साख बनाई थी उस पर धब्बा लगता। वैसे सुधीर चौधरी को तो ये दाग धोने में काफी वक्त लगेगा। बस उनके लिए थोड़ा "प्लस प्वाइंट" एक ही है कि पैसे की वो मांग जरूर कर रहे थे, लेकिन अपने लिए नहीं, पैसा चैनल के लिए मांग रहे थे। ये अलग बात है कि गंदा सौदा कर रहे थे। पैसे मिल जाते तो खबर रुक जाती, ये कहते सुना गया।               

हां आप सोच रहे होंगे कि आखिर आज के दिन को मैं एतिहासिक दिन क्यों बता रहा हूं ? तो जान लीजिए, पहली बार मैने देखा है कि एक चैनल के संपादक के खिलाफ हो रही प्रेस कान्फ्रेंस को सभी चैनलों ने पूरा लाइव प्रसारित किया है। आमतौर पर कम ऐसा होता है कि मीडिया पर आरोप लगे और चैनल उसे दिखाएं। मुझे याद है नीरा राडिया की टेप में एक न्यूज चैनल की सीनियर महिला संपादक नाम शामिल था। टेप में साफ था कि वो भ्रष्टाचार में शामिल मंत्री ए. राजा को संचार मंत्रालय ही दिलाने के लिए सियासी स्तर पर लाबिंग कर रही थीं। हर सख्श को इस महिला संपादक का नाम और उनकी कारगुजारी मालूम है। पर आज तक किसी भी चैनल ने कोई खबर नहीं दिखाई। प्रिंट मीडिया ने भी इनके बारे में एक लाइन नहीं प्रकाशित किया। इस महिला संपादक को लेकर जनता में इतना गुस्सा है कि अन्ना आंदोलन के दौरान ये इंडिया गेट पर एक शो करने पहुंची तो वहां लोगों ने नारेबाजी कर इतना विरोध किया कि ये वहां शो नहीं कर पाईं। तलाश किया जाए तो ऐसे कई उदाहरण और मिल जाएंगे, जब मीडिया पर गंभीर आरोप लगे हैं, लेकिन आज तक कभी चैनलों पर खबर नहीं दिखाई गई। पर सुधीर चौधरी का मामला कुछ हटकर है। आज देश भर में भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलन सड़कों पर है। मीडिया नेताओं के भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर है। ऐसे में अगर सुधीर के कारनामों की अनदेखी की जाती तो मीडिया की विश्वसनीयता पर उंगली उठती। लिहाजा आज सभी चैनलों ने ये दिखा कर साफ करने की कोशिश की कि भ्रष्टाचार में कोई भी शामिल हो, उसका चेहरा बेनकाब किया ही जाएगा। यही वजह है कि कुछ दिन पहले जी न्यूज के इस संपादक को ब्राडकास्टिंग एडीटर्स एसोसिएशन से बाहर कर दिया गया था।

बहरहाल ये मामला जल्दी सुलझता नजर नहीं आ रहा है। एक ओर जिंदल ने ठान लिया है कि न्यूज चैनल को जो कुछ दिखाना हो दिखाए, वो बिजिनेस कर रहे हैं। कोई चोरी नहीं कर रहे हैं। उधर जी न्यूज को लग रहा है कि वो लगातार खबरें दिखाकर जिंदल ग्रुप को बेनकाब कर देगें। बहरहाल इसमें हार जीत किसकी होगी ये तो भविष्य बताएगा, लेकिन पूरे घटनाक्रम को देखें तो एक बात सामने आती है वो ये कि इससे पत्रकारिता की साख पर आंच आई है। अब जी न्यूज ने इस मामले को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। इसके लिए जिस तरह से सुधीर चौधरी खुद एंकरिंग कर अपनी सफाई दे रहे हैं, उससे चैनल की ही किरकिरी ज्यादा हो रही है। आप सब जानते हैं जब शेर को हमला करना होता है तो पहले वो पांच कदम पीछे हटता है, फिर पूरी ताकत से हमला करता है। लेकिन हमला करने का ये सामान्य नियम भी शायद जी न्यूज प्रबंधन को नहीं पता है। इस समय जीतना भी कीचड़ उछालेंगे छींटे जी न्यूज पर ही पड़ेगीं।

रोहित ने निराश किया 

आईबीएन 7 न्यूज चैनल के महत्वपूर्ण कार्यक्रम एजेंडा में बहस के दौरान वरिष्ठ पत्रकार रोहित बंसल का चेहरा भी सामने आया। मेरा मानना है कि जिंदल के स्टिंग में जो कुछ दिखाया गया है, उसमें सबकुछ शीशे की तरह साफ है। ऐसे में मीडिया से जुड़ा कोई भी व्यक्ति इसे जायज नहीं ठहरा सकता। लेकिन सक्रिय मीडिया से फिलहाल अलग हो चुके वरिष्ठ पत्रकार रोहित बंसल ने काफी निराश किया। जबकि बंसल इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया दोनों में ही बड़े पद पर रह चुके हैं, ऐसे में उनसे उम्मीद की जाती है कि वो निष्पक्ष होकर अपनी राय रखेंगे, लेकिन हैरानी हुई उन्होंने एक बार भी इस घटना की निंदा नहीं की। कुछेक बार तो वो सुधीर चौधरी के साथ खड़े दिखाई दिए। आईबीएन 7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष के जिस सवाल पर वो फंसते नजर आ रहे थे, उसका जवाब ये देकर किनारा कर रहे थे कि यहां मुझसे भी वरिष्ठ पत्रकार बैठे हैं। उनका इशारा जनसत्ता के संपादक ओम थानवी की ओर था। बहरहाल थानवी जी ने जरूर निष्पक्ष और सख्त राय रखी। उनके निशाने पर जी न्यूज तो रहा ही, जिंदल ग्रुप को भी उन्होंने नहीं बख्शा। मुझे लगता है रोहित बंसल को अपनी राय पर एक बार फिर गंभीरता से विचार करना चाहिए।   

     

 

Saturday 20 October 2012

स्टिंग में फंस गए बेचारे संपादक ...


स्टिंग आपरेशन की बात हो तो लोगों की पहली प्रतिक्रिया होती है कि कौन बड़ा आदमी कैमरे की लपेटे में आ गया,  दूसरा सवाल होता है कि आखिर ये महान काम करने वाला चैनल कौन सा है। लेकिन आज मैं जिस स्टिंग आपरेशन का जिक्र कर रहा हूं यहां उल्टा हो गया है। पहली बार एक नामचीन चैनल के संपादक ही बेचारे कैमरे की चपेट में आ गए। वो अपने चैनल पर चल रही खबर को रोकने के लिए 100 करोड़ रुपये का सौदा कर रहे थे। इस मामले में संपादक के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हो गई है। उधर न्यूज चैनलों के संपादकों की संस्था ब्राडकास्टिंग एडीटर्स एसोसिएशन ( बीएई) ने अपनी संस्था की साख बचाए रखने के लिए इस संपादक की सदस्यता को खत्म कर उन्हें कोषाध्यक्ष पद से मुक्त कर दिया है।

इस विषय पर आने से पहले आप संपादक और चैनल के बारे में जान लीजिए। चैनल  का नाम है जी न्यूज और इसके संपादक ने यहां कुछ महीने पहले ही कार्यभार ग्रहण किया है, नाम है सुधीर चौधरी। वैसे तो सुधीर चौधरी किसी परिचय के मोहताज नहीं है। आपको याद होगा दिल्ली में एक टीवी चैनल ने लगभग दो साल पहले एक खबर चला दी कि महिला  टीचर स्कूल की बच्चियों से वैश्यावृत्ति कराती है। इस खबर के बाद बेचारी टीचर का जीना मुहाल हो गया, उसे पब्लिक के गुस्से का सामना करना पड़ा। बाद में जांच हुई तो ये खबर गलत साबित हुई। इस मामले को केंद्र सरकार ने काफी गंभीरता से लिया और चैनल को पूरे महीने भर के लिए आफ एयर ( यानि बंद ) कर दिया। ये एतिहासिक काम तब हुआ जब इसै चैनल में यही सुधीर चौधरी संपादक थे। वैसे श्री चौधरी का सीबीआई से भी पाला पड़ चुका है।

खैर अब ये सुधीर जी न्यूज के संपादक है। दरअसल पिछले दिनों देश मे कोल ब्लाक  आवंटन का मामला छाया रहा, सभी चैनल और अखबारों ने इस मामले में बहुत खबरें कीं। जी न्यूज पर भी तमाम खबरें चलीं। बाद में जी न्यूज ने सीधे सीधे जिंदल की कंपनी को टारगेट कर एक सीरीज ही चला दी। खबर गलत और सही पर हम बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन आरोप ये लग रहा है कि खबर रोकने की कीमत लगाई गई सौ करोड रुपये। बताया जा रहा है कि इस सौदे को अंतिम रुप देने के लिए संपादक सुधीर चौधरी खुद एक होटल पहुंच गए। वहां पहले से ही कैमरे लगाए गए थे, जिसमें बेचारे संपादक जी की आवाज रिकार्ड हो गई। हालाकि मैं एक बात साफ कर दूं कि संपादक सौ करोड़ रुपये अपने लिए नहीं मांगे, उन्होंने 100 करोड का विज्ञापन चैनल को देने का प्रस्ताव रखा था।


वैसे एक बात है जी न्यूज चैनल और जिंदल की कंपनी में छिड़े विवाद को दो तरह से देखा जा सकता है। एक हम इसे पेड न्यूज कह सकते हैं, मतलब उन्होंने खबर रोकने के लिए पैसे की मांग की थी, दूसरी तरफ इसे ब्लैकमेलिंग भी कहा जा सकता है। अब आप अपनी सुविधानुसार तय कर लें कि ये पेड न्यूज है यै ब्लैकमेलिंग। बहरहाल जिंदल की कंपनी ने संपादक पर आरोप भर नहीं लगाया है बल्कि उन्होंने दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच में बकायदा रिपोर्ट दर्ज कराई है और पुलिस ने इस मामले में जांच भी शुरू कर दी है। इस  बीच मामले की गंभीरता को देखते हुए ब्रॉडकास्टिंग एडिटर्स एसोसिएशन (बीइए) ने बैठक कर सुधीर की सदस्यता को समाप्त कर दिया, वो संस्था के कोषाध्यक्ष भी थे, इस पद से भी उन्हें मुक्त कर दिया गया। बहरहाल संपादकों की चिंता छवि की है और चिंतन इस पर भी हो रहा है कि मीडिया की साख का क्या होगा ? सवाल बना हुआ है कि अगर मीडिया की नैतिक शक्ति ही नहीं बचेगी और वह मुनाफे की भेंट चढ़ जाएगी तो लोकतंत्र के एक मजबूत खंभे को ढहने से भला कौन बचा पाएगा ?

वैसे जी न्यूज ने अपने ऊपर लगे आरोपों को सिरे से खारिज किया है, लेकिन एफआईआर में जिन सबूतों का जिक्र है उससे जी ग्रुप सवालों के घेरे में है। आज देश में भ्रष्टाचार एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। इसमें मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। राजनेताओं को भी यह लगता है कि मीडिया के बिना उनका काम नहीं चल सकता। यह अलग बात है कि इन दिनों पारंपरिक राजनीतिक दल से अलग हटकर अन्ना आ गए हैं। यानी भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक नया चेहरा आया है। ऐसे समय में मीडिया का सवालों के घेरे में आना दुर्भाग्यपूर्ण है। लोग किस पर विश्वास करें और अपना मत सुनिश्चित करें, क्योंकि एक भ्रम की स्थिति पैदा हो गई है। जिस मीडिया को अपनी सशक्त व धारदार भूमिका निभानी चाहिए वह आर्थिक सुधार की दौर में पेड़ से गिरे पत्ते की तरह हवा में उड़ रही है। उसकी न कोई दिशा है और न कोई मंजिल। सच कहूं तो आज मीडिया को भी बाजार संचालित कर रहा है, जहां बात मुद्दों की नहीं मुनाफे की ज्यादा हो रही है। नीरा राड़िया का टेप भी हम सब भूले नहीं है। जिसमें बड़े-बड़े मीडिया के चेहरे बेनकाब हुए । इसी दौर में यह खबर आती है कि भ्रष्टाचार को उजागर करने में जो न्यूज चैनल (जी न्यूज) सबसे आगे दिख रहा था, वह अब जांच के घेरे में है, क्योंकि खबरें न दिखाने के लिए पैसे मांगने के आरोप से वह घिरा हुआ है।

वैसे एक अहम सवाल है। जिंदल ग्रुप सीधे पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने तो नहीं ही पहुंचा होगा, पहले उसने चैनल के मालिकान से बात करने की कोशिश जरूरी की होगी। वहां कोई सुनवाई ना होने पर ही रिपोर्ट लिखाई होगी। सवाल उठता है कि संपादक सुधीर जो कुछ कर रहे थे क्या उसे जी न्यूज के मालिकों का भी समर्थन हासिल था? अगर हां तो हम कह सकते हैं कि अब मीडिया को लोकतंत्र का चौथैा खंभा नहीं बल्कि उद्योग का दर्जा दे दिया जाना चाहिए। आपको पता है वसूली और ब्लैकमेलिंग की जो धाराएं एफआईआर में है वह किसी आम आदमी पर लगी होती तो क्या होता ? उसे 24 घंटे के भीतर नोटिस भेजकर पूछताछ के लिए पुलिस मुख्यालय में बुलाया जाता। अगर वह नहीं आता तो उसे एक दूसरा नोटिस भेजा जाता। फिर वह हाजिर नहीं होता तो उसे गिरफ्तार करने का फरमान जारी हो जाता। इसके बाद उसे गिरफ्तार कर पूछताछ होती और पूछताछ के बाद बयान रिकार्ड कर सबूत को जांच के लिए भेजते। रिपोर्ट आने पर पूरा मामला कोर्ट में जाता। इस सारी कार्रवाई को करने में 15-20 दिन लगते। लेकिन इस मामले एक मीडिया ग्रुप के संपादक और मालिक के खिलाफ केस है तो उसे भला कौन छूएगा ? क्योंकि मीडिया की जरूरत सत्ता को भी है और भ्रष्ट होते पुलिस अधिकारियों को भी।

न्यूज चैनल के लिए सबसे शर्मनाक ये है कि संपादक के खिलाफ इतने गंभीर आरोप लगने के बाद भी कोई आत्ममंथन करने को तैयार नहीं है। जी न्यूज के मालिकान अपने संपादक सुधीर चौधरी के साथ खड़े हैं, यही वजह है कि आज तक सुधीर को चैनल से बाहर नहीं किया गया है। एक बात मुझे हैरान करती है कि जब भी बात होती है मीडिया के लिए लक्ष्मण रेखा खींचने की तो संपादकों की यही संस्था बीईए इसे मीडिया की आजादी पर हमला बताती है। देश को भरोसा दिलाया जाता है कि हम खुद अपने ऊपर नियंत्रण करेंगे। सवाल ये है कि क्या इतना बड़ा मामला सामने के आने के बाद ये संस्था कोई ठोस पहल करेगी या फिर खुद को असहाय बताकर खामोश रह जाएगी। आज जब भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीति को हिला रहा है, वही भ्रष्टाचार अगर मीडिया में आ जाए तो सत्ता और सरकार का काम और आसान हो जाएगा।


न्यूज चैनल में पहली बार एक नई बात पता चल रही है। कहा जा रहा है कि सुधीर चैनल के संपादक के साथ ही विजिनेस हेड भी हैं। लिहाजा विज्ञापन के लिए वो तमाम लोगों के साथ जहां तहां मीटिंग करते रहते हैं। सच कहूं तो ये तर्क सही हो सकता है, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया में शायद ये पहला उदाहरण हो कि संपादक ही चैनल का विजिनेस हेड है। ऐसे में सवाल उठता है कि कोई संपादक खबर को लेकर निर्णय करे और वही आदमी खबर को लेकर बिजनेस का निर्णय करे तो खबर हावी होगा या बिजनेस? स्पष्ट है बिजनेस के लिए खबर हावी होगा और उस खबर से बिजनेस होगा। जी न्यूज से यही खेल चल पड़ा है और यह खेल पेड न्यूज से कहीं ज्यादा बदबूदार है।

बहरहाल अब इस मामले में तय किया गया है कि तीन वरिष्ठ पत्रकार जी न्यूज के संपादक से आरोपों के बारे में पूरी जानकारी लेंगे। इसके बाद बीईए एक नतीजे पर पहुंचेगी। अगर बीईए को लगता है कि सुधीर के खिलाफ पुख्ता प्रमाण है, तो संपादक के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करे, इससे पहले जी न्यूज प्रबंधन से कहा जाएगा कि वो खुद ही सुधीर को चैनल  से बाहर करें। एक बड़ा सवाल ये है कि खबर रोकने के लिए जिंदल के आदमियों से पैसे की मांग करने के मामले में हफ्ते भर पहले रिपोर्ट दर्ज हो जाने के बाद भी मीडिया में  खबर क्यों नहीं बनी ? खबर ना बनाने से आज मीडिया पर चोर चोर मौसेरे भाई का आरोप लगाया जा रहा है। बहरहाल अब जी न्यूज की भी साख दांव पर लगी है, देखना है वो संस्था की साख बचाने के लिए ठोस पहल करते हैं या फिर राजनीतिज्ञों की तरह जांच की रिपोर्ट के आने की बात करते हैं। किसी तरह का भ्रम ना हो इसलिए मैं यहां बीईए ने जो कार्रवाई की वो पत्र और सुधीर चौधरी का जवाब भी यहां शामिल कर रहा हूं।




 Sudhir Chaudhary removed from primary membership of the BEA


New Delhi, 18.10.2012

The Executive Committee of the Broadcast Editors’ Association (BEA) met to discuss and consider the report of the three-member Fact Finding Committee, comprising Mr N. K. Singh, Mr Dibang and Mr. Rahul Kanwal, in the matter of the issues of professional ethics emanating out of the allegations leveled by Jindal Steel and Power Limited against Mr Sudhir Chaudhary, Treasurer, BEA and Editor, Zee News, on October 18, 2012.
As the BEA is a body of editors of electronic news channels which seeks to ensure high standards in journalism, such an exercise had become imperative in the light of allegations made against one of its members.
After having satisfied itself that all possible and credible sources of information had been heard and investigated and all available material on the issue perused, the three-member fact-finding committee arrived at the following unanimously held conclusion “that Mr. Sudhir Chadhary is found to have acted in a manner that is unbecoming of an editor and in a fashion that is prejudicial to the interest and objects of the BEA”.
On the basis of the rules provided in the constitution of the BEA it was decided to arrive at a conclusion by putting the issue to a secret ballot. Subsequent to the vote by members of the Executive Committee, the BEA resolved to remove Mr Sudhir Chaudhary as member of the BEA. Mr Supriya Prasad, Managing Editor, Aajtak was the returning officer for the vote.
The committee also decided to appoint a new treasurer at its next meeting.

Shazi Zaman, President
NK Singh, General Secretary

www.beaindia.org






Sudhir Chaudhary’s Response to BEA

October 18, 2012 (6.45pm)

Mr. Shazi Zaman
President
Broadcast Editor’s Association (BEA)

New Delhi.

Sub: Your letter (via email) today informing me of my removal from the membership of the BEA is a premeditated and prejudicial pronouncement by Ethics Committee in violation of natural justice causing prejudice to me.
Dear Shazi,
Respectfully, I write this letter to you in anguish and pain at the disregard the BEA and the Ethics Committee (Committee) has shown for justice and fairness to fellow Editors in adjudicating on a canard sought to be spread by Naveen Jindal, MP.
The BEA/Committee has chosen, perhaps advertently, to ignore my repeated submissions in black and white and denied me representation and an opportunity to safeguard my Constitutional Rights in a criminal complaint pending against me and Samir Ahluwalia. Instead, BEA/Committee has relied on the false, malicious, and distractive propaganda unleashed by Naveen Jindal against me and Samir Ahluwalia and caused deep prejudice to both of us.
Given the unprecedented and over-reaching mandate trusted in your hands as a self-regulatory body for individual broadcast editors in their personal capacity, this is to place on the record that the BEA/Committee has fallen prey to the distractive machinations of the prime accused in the “Coalgate scam,” now recognized as the biggest abuse of natural resources in the history of the country.
Sadly, the pronouncement is a result of infancy of systems at BEA/Committee and the association’s inability to manage a handful of eager-beaver agendas, including, but not limited to, those of Editors on the Committee who I have removed from appearing on my channel.
The one-sided pronouncement is bad in law and unfair in the eyes of natural justice.It has not only sought to compromise my professional position, but also undermine my legal defence despite the clear forewarning and Constitutional position on the subject shared with you vide letter on October 17. 2012.
The BEA has come into being as a self-appointed self regulatory body with an avowed objective of not succumbing to external powers. The BEA/Committee mandate therefore should have been to examine the journalistic process in the ever-changing milieu of the way the government conducts its business and the way business sometimes works hand-in-glove with the government. The BEA/Committee therefore had to rise above amateurish notions that can be created upon the first-glance of concocted evidence especially when this involves exposing the high and mighty as was the case in the Naveen Jindal episode. This didn’t happen and the evidence wasn’t shared with me and Samir Ahluwalia.
It is in pursuit of larger good that means justify the end. At a time when the mainline media, including channels of Editors on the Committee, had fallen silent on India’s biggest ever scam, attempts by media houses like Zee to bring out the final truth is being muzzled and I am sad to say BEA has chosen to side with the mighty and powerful.
As regards your failure to stick to the process of fairness and due diligence in your suo motu probe, I wish to place again before you my repeated submissions for a fair hearing which the Committee repeatedly denied me and Samir Ahluwalia:
1. Denial of nomination even as BEA Ethics Committee allowed Naveen Jindal the facility: Please refer my letter dated October 16 to you seeking the nomination facility as per the norm of parity. This opportunity was denied to me.
2. Denial for one-on-one hearing and cross-examination with Naveen Jindal: This was sought in a communication addressed to you on 16th October but again the opportunity was denied while I was called for personal hearing again on October 17.
3. Deliberate attempt to tarnish my image by leaking details of Ethics Committee proceedingsinitiating a trial by media: I brought this out in details in my letter on October 16th since a section of the press carried detailed stories on Jindal’s hearing at your end quoting “sources” in the probe committee.
4. Deliberate attempt to prejudice my legal defense: The BEA did not take cognizance of my plea dated October 17 which requested that the proceedings undertaken by you would deserve to be kept in abeyance till such time the investigation in the false allegations made by Naveen Jindal are investigated by the police and we are not prejudiced in any manner by being compelled to share and disclose all such true details and relevant facts in an exercise which is in public domain and as such, any disclosure would not be permissible in law.
5. Denial of my right to see the evidence presented by Naveen Jindal via his nominees.
6. Pressure tactics of summoning me for hearings at a short notice even on the precise dates and timings I was to depose before police authorities as also not being given due notice to participate and talk to the Governing Body including the one conducted today (October 18): Please refer to my communication addressed to you today morning expressing my inability to heed to your request to attend the emergency meeting convened this morning given that there has been insufficient notice given to me.
7. An unseemly hurry to wind up the proceedings well before 15 days enshrined as the suggested time frame at the initial stages.
In view of the above, I fear that the move to pick up the Naveen Jindal case suo motu may have been inspired by the ulterior motive to tarnish me and my colleague Samir Ahluwalia. I chose all along to cooperate in the interest of bringing out the truth and my own commitment to self-regulation, given the fact that I had played my own part in the creation of BEA. Your letter today removing me from the membership has unfortunately confirmed my worst apprehensions. I would like the BEA/Committee to correct the wrong done to me on the above counts. As expressed in my letter of October 18, 2012, Samir Ahluwalia and I request a personal hearing before a Review Committee and the Governing Body and to be allowed appropriate hearing.

Yours sincerely

Sudhir Chaudhary

Sunday 14 October 2012

सुर-क्षेत्र में "सुर" गया तेल लेने ...


जकल छोटे पर्दे पर दर्शकों को अपनी ओर खींचने के लिए ऐसी गलाकाट प्रतियोगिता शुरू हो गई है, जिसे कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता। एक मनोरंजक चैनल ने तो छोटे पर्दे को क्रिकेट का मैदान ही बना दिया है। वजह आप सबको पता है, क्रिकेट मैच के दौरान बाजार सूने हो जाते हैं, स्कूल कालेज में छात्रों की संख्या काफी कम रह जाती है, सरकारी दफ्तर तक वीरान नजर आने लगते हैं, क्योंकि सभी लोग टीवी के सामने जम जाते हैं। सब अपने दुश्मन देश को हारता हुआ देखना चाहते हैं। अब देखिए ना दावा तो ये किया जाता है कि सांस्कृतिक गतिविधियों के आदान प्रदान से भारत और पाकिस्तान की आवाम करीब आएगी, लेकिन गायन प्रतियोगिता के मंच सुर-क्षेत्र से तो आवाम कभी करीब आ ही नहीं सकती। सच ये है कि ऐसे कार्यक्रम दोनों देशों में सौहार्द के बजाए जहर घोलने का काम कर रहे हैं। इस प्रोग्राम का जो फारमेट तैयार किया गया है वो लोगों के सेंटीमेंट को भड़काने वाला है।

आइये पहले इसके फारमेट पर ही चर्चा कर लेते हैं। इसमें भारत और पाकिस्तानी गायकों की टीम है और इस टीम अलग अलग कप्तान हैं। पाकिस्तानी गायकों का कप्तान वहां के संगीतकार, अभिनेता व गायक आतिफ असलम को बनाया गया है जबकि भारतीय गायकों के कप्तानी हिमेश रेशमियां निभा रहे हैं। ये दोनों इस शो में शुरुआती जहर घोलते हैं। उसके बाद इस जहर को और तीखा बनाने के काम को अंजाम देती है जजों की पैनल। जिसमें शामिल हैं पाकिस्तानी गायिका आबिदा परवीन, बांग्लादेशी  गायिका रुना लैला और भारतीय पार्श्वगायिका आशा भोसले।

मैं आज ही इस प्रतियोगिता के परिणामों का हश्र बता देता हूं। होगा ये कि इसके बाद दोनों देशों में गाने को लेकर इतना विवाद बढ जाएगा कि कलाकार जो आज एक दूसरे के देशों मे जाते हैं और फिल्मों के साथ ही स्टेज शो करके लोगों का दिल जीतते हैं। आने वाले दिनों में ये प्रक्रिया थम जाएगी। पाकिस्तानी कलाकार यहां नफरत की नजर से देखे जाएंगे और भारतीय गायकों वहां जिल्लत का सामना करना पडेगा। इस शो का मकसद अगर भाईचार  बढ़ाना होता तो पाकिस्तानी गायकों का कप्तान हिमेश को बनाया जाता और भारतीय गायकों का कप्तान आतिफ को बनाया जाना चाहिए था। ऐसे में जब पाकिस्तान के आतिफ  अगर भारतीय गायकों का और हिमेश पाकिस्तानी गायकों का पक्ष लेते नजर आते तो एक बार जरूर देश में सकारात्मक संदेश जाता।

मैं पाकिस्तानी गायिका आबिदा परवीन को सुनता हूं, उनकी गायकी मुझे पसंद है। अब आप  ये मत पूछ लीजिएगा कि कौन सा सुर पसंद है। सच कहूं तो मुझे  सुर - उर की कोई  जानकारी नहीं है, लेकिन तीनों जज यानि आशा भोसले, आबिदा परवीन और रुना लैला को तो सुर की जानकारी होगी ना। अब ऐसा कैसे हो सकता है कि एक  प्रतियोगी गाना गाए उसमें एक जज का फैसला आए कि गाना सुर में था और दूसरा उसी गाने को बेसुरा बता दे। ऐसे  में इतना तो तय है कि या तो एक जज को सुर का ज्ञान नहीं है, या फिर वो जाति, धर्म, भाषा, देश के आधार पर भेदभाव कर रहा है।

मैं आज यानि (14 अक्टूबर) की बात करूं। दिन में सुर क्षेत्र देख रहा था।  एक पाकिस्तानी गायक को आशा भोसले और बांग्लादेशी गायक रुना लैला दोनों  ने " जीरो " मार्क्स दिए। दोनों ने अपने कमेंट में साफ किया कि गाना सुर में नहीं था, चूंकि प्रतियोगिता का नाम ही सुर क्षेत्र है, लिहाजा सुर से तो किसी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता। लेकिन आबिदा परवीन ने उसे पूरे 10 मार्क्स दे दिए। अब सवाल उठता है कि गाना या तो सुर में था या नहीं था। अगर आशा भोसले और रुना लैला को गाना बेसुरा लगा तो आबिदा को गाने में सुर कहां से नजर आ गया? किसी को भी ये बात समझने में देर नहीं लगी कि गायक प्रतियोगी उनके  मुल्क का है। ऐसे में सुर गया तेल लेने। आबिदा ने उसे पूरे 10 नंबर दे दिए, हालाकि इस पर सवाल भी उठा, तो उन्होंने कहा कि माइक की गड़बड़ी से ऐसा हो सकता है कि उसका सुर गया हो, लेकिन पाकिस्तानी गायक ने बढिया गाया। आशा भोसले की आपत्ति को भी उन्होंने यही कह कर खारिज कर दिया।

दरअसल इस शो का  फार्मेट ऐसा है कि इसमें गायकी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, हर शो में इंडिया या पाकिस्तान का जो विजेता होता है, उसे ट्राफी दी जाती है। देखने से ही लगता है इस शो का मकसद कुछ और नहीं बल्कि इंडिया और पाकिस्तान के नाम पर ज्यादा से ज्यादा दर्शक (यानि टीआरपी) इकट्ठा करना है। सच बताऊं तो जब भी प्रतियोगी गाने के लिए आता है तो दर्शकों को लगता है कि कितनी  जल्दी ये गाना बंद करे, जिससे वे कैप्टन और जजों की नूरा कुश्ती सुन सकें। आतिफ और हिमेश जिस अंदाज मैं बैठते हैं, लगता है कि ये कब एक दूसरे का कालर पकड़ लेगें। ना आपस में कोई संवाद, ना चेहरे पर कोई भाव, दोनों एक दूसरे के कट्टर दुश्मन बन कर यहां बैठते हैं। फिर कहा जाता है कि हम पाकिस्तान  के साथ सांस्कृतिक आदान प्रदान कर रहे हैं।

मुझे नहीं पता कि ये पाकिस्तानी कैप्टन आतिफ अपने मुल्क का कितना बड़ा कलाकार है, गायक है, अभिनेता है, मैं तो इसी सुर क्षेत्र के मंच पर इन्हें देख रहा हूं। हैरानी तब  होती  जब ये आशा भोसले के जजमेंट पर उंगली उठाता है और उसका लहजा भी सड़क छाप लफंगे जैसा होता है। बेचारी आशा भोसले को ये कहना  पड़ता है कि " शायद मैं इस जज की कुर्सी के काबिल नहीं हूं " । कई बार तो ऐसी बेहूदा बातें की जाती हैं, जिससे आशा ताई का चेहरा रुंआसा हो जाता है। कैप्टन आतिफ ने एक शो में जब हर जजमेंट पर उंगली उठाना शुरू  किया तो आशा ताई को कहना पड़ा कि " गाने के मामले में मैं मर भी जाऊं तो झूठ नहीं बोल सकती "। आपको पता है कि आशा ताई तब से फिल्मों में और देश विदेश में गा रही हैं, जब आतिफ पैदा भी नहीं हुआ होगा। आतिफ की उम्र 40- 45 साल के करीब है और आशा ताई को गाना गाते हुए 40- 45 साल हो गए। इसके बाद भी आतिफ का व्यवहार आपत्तिजनक है।

कुरुक्षेत्र बन चुका सुर-क्षेत्र आने वाले समय में भारत और पाकिस्तान के बीच खाई को और चौड़ा करने वाला है। जिस तरह से भारत और पाकिस्तान के बीच इन दिनों क्रिकेट के  मैच बंद है, सुर क्षेत्र में इसी तरह का माहौल रहा तो कलाकारों का भी एक  दूसरे के देश में जाना जल्दी बंद हो जाएगा। भारत और पाकिस्तान के बीच जमीनी सरहदों को ख़त्म करने का ये प्रयास यूं ही दम तोड़ देगा। ऐसे में जल्दी ही इसका फार्मेट बदलकर ऐसा किया जाना चाहिए,  जिससे कम से कम शो से भाईचारे का संदेश तो लोगो में जाए ही। शो के स्टेज  पर दोनों देशों के बीच हर जगह दूरी बनाने की बात है। अब  देखिए गायक मंच  पर आते हैं तो अपने अपने देश के स्टैड से माइक उठाते हैं, माइक भी वो एक जगह से नहीं लेते हैं। सुरक्षेत्र के माइक से आग निकलता रहता  है, इसका मतलब तो मुझे आज तक समझ में नहीं आया।

सुर-क्षेत्र को जीरो मार्क्स...

इस शो की  रेटिंग अगर मुझे करनी हो तो मैं इसे जीरो मार्क्स दूंगा। जीरो देने की वजह है। दरअसल इस शो में ही ऐसा है कि या तो कलाकार सुर में गाता है, या फिर बेसुरा है। मतलब या तो उसे जज पूरे 10 नंबर  देते हैं या फिर जीरो। ये कैसा न्याय है, अगर किसी ने मामूली गल्ती की है तो एक मार्क्स काट कर उसे 9 दिया जाना चाहिए। पर यहां ऐसा नहीं है। प्रतियोगी को या तो 10 मार्क्स मिलते हैं या फिर जीरो। ऐसे में अगर मुझे इस शो को मार्क्स देने हों तो बिना सोचे समझे मैं भी जीरो दे दूंगा।


Friday 5 October 2012

प्रिंट मीडिया ने खोजा “ पेड न्यूज ” का तोड़ !



रकारी सिस्टम में यही खराबी है, वो हर मामले में देर से रिएक्ट करते हैं, तब तक मामला बहुत आगे बढ़ चुका होता है। अब देखिए ना मुख्य चुनाव आयुक्त ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधान सभा चुनाव का ऐलान करते हुए एक अहम फैसला सुना दिया। कहा कि इस बार चुनाव में "पेड न्यूज" पर बहुत तगड़ी नजर रखी जाएगी। मसलन इसके लिए केंद्रीय और राज्य स्तर पर ही नहीं जिला मुख्यालय पर भी अफसरों को जिम्मेदारी सौंपी जाएगी। इन अफसरों को सभी अखबार पढ़ने होंगे। उन्हें जिस खबर पर शक होगा कि ये पेड न्यूज हो सकती है उसके बारे में पूरी जांच पड़ताल होगी। अगर साबित हो गया कि ये पेड न्यूज है तो क्या कार्रवाई होगी। कार्रवाई क्या होगी, इस मामले में आयोग चुप ही रहे तो ज्यादा बेहतर है, क्योंकि इनके पास कार्रवाई करने का बहुत ज्यादा अधिकार तो है नहीं।

बड़े हुक्मरानों को पता नहीं ऐसा क्यों लगता है कि वो सब कुछ जानते हैं। बड़े से बड़ा फैसला ले लेते हैं, पर उस धंधे की अंदरुनी जानकारी करने की कोशिश ही नहीं करते। अब मुख्य निर्वाचन आयुक्त साहब को कौन समझाए कि आज कल पैसे इसलिए नहीं लिए जाते हैं कि उनकी खबर छापी जाए, अरे भाई अब तो पैसे इस बात बनते हैं कि आपके बारे में कोई  खबर नहीं छापी जाएगी। भाई आयुक्त साहब देर से रियेक्ट करेंगे तो ऐसा ही होगा ना। कितने दिनों से पेड न्यूज की बात चली आ रही है, लेकिन साहब कोई फैसला ही नहीं कर पाए, अब इन्होंने किसी तरह फैसला लिया तो मुद्दा ही बदल गया है। जब मीडिया के बारे में फैसला ले रहे हैं तो कुछ मीडिया वालों  से चुपचाप बात भी कर लेनी चाहिए थी ना, अब ऐसा थोड़े है कि सब "पेड न्यूज" के गोरखधंधे में हैं।

आइए आपको अंदर की बात बताता हूं। आयुक्त साहब आप भी सुन लीजिए, आपके ज्यादा काम की बात है। दरअसल मीडिया ने देखा कि खबर छापने का पैसा तो बहुत कम है। चुनाव के दौरान अगर पूरे पेज में किसी उम्मीदवार के बारे में खूब अच्छी-अच्छी बात कर ली जाए तो मिलता कितना है, महज 32 हजार रुपये। इसके लिए नेता जी की कितनी मशक्कत करनी पड़ती है, उन्हें कितना मनाना पड़ता है, इसके फायदे गिनाने होते हैं, यूं समझ लीजिए कि एक आदमी पूरे दिन उनके पीछे पीछे लगा रहता है। एक बार नेता जी से बात करो फिर आफिस में पूरा पेज तैयार करके उन्हें दिखाओ की ठीक है ना। कई चक्कर लगाने के बाद नेता जी कहते हैं कि ठीक है इसे छाप दो। अब नेता जी तो चुनाव में बिजी हैं, इसलिए पेमेंट की बात करना तो बेमानी है।

मेरी बात एक अखबार के संपादक से हो रही थी, बेचारे बहुत दुखी थे। कहने लगे सब लोग पेड न्यूज-पेड न्यूज कह कर ऐसा शोर मचा रहे हैं, जैसे हम लोगों ने देश ही बेच दिया है। अब क्या बताऊं लोगों को कि हमारे लिए पेड न्यूज कितना रिस्की है, इसके बारे में तो आयोग जानता नहीं है। मैं भी सन्न रह गया कि आखिर ऐसी क्या बात है। मैंने पूछा क्या हो गया, क्यों इतना दुखी हैं। उन्होंने अपनी दराज से एक फाइल निकाली, कुछ पन्ने पलटने के बाद एक पेज हाथ में लिया और मुझे सुनाने लगे। दरअसल इसमें वो हिसाब था जो पिछले चुनाव में बतौर पेड न्यूज नेताओं ने अपनी वाह-वाही तो छपवा ली पर दूसरा चुनाव होने को है, पेमेंट आज तक नहीं किया। अब चुनाव आया है तो ऊपर से दबाव बढ गया है कि पहले नेताओं का बकाया भुगतान ले लो, उसके बाद आगे की बात की जाए। जाहिर हमें भी लग रहा था कि वसूली हो जाएगी, लेकिन "पेड न्यूज" के बारे में आयोग ने ऐसी टिप्पणी कर दी कि नया तो दूर पुराना भुगतान मिलना मुश्किल है।

बहरहाल संपादक कि ये बात तो सही है। अब देखिए ना चुनाव के दौरान अगर नेताओ से पेमेंट की बात की जाए तो ऐसा लगता है कि हमारा उनके चुनाव में इंट्रेस्ट नहीं हैं, हम तो बस अपने पैसे के लिए पीछे लगे हैं। चुनाव के नतीजे आने के बाद जो जीतता है वो जीत की खुशी में सब कुछ भूल जाता है और जो हारता है वो भूमिगत हो जाता है। लिहाजा दोनों सूरत में "पेड न्यूड"  एक तरह से हमारे लिए "डेड न्यूज" बनकर रह जाती है। संपादक कहने लगे जब तक ये विज्ञापन था तब तक तो ठीक था, विज्ञापन से जुड़े लोग ये काम करते थे। इसे तो आप लोगो ने ही न्यूज का नाम दे दिया, अब बेवजह हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई।

बहरहाल कुछ देर की बात के संपादक थोड़ा खुल से गए और उन्होंने दो कप चाय मंगा ली। चाय की चुस्की ली फिर लंबी सांस खींचने के बाद बोले श्रीवास्तव जी, वैसे अब हमने रास्ता बदल दिया है। मैने देखा कि नेताओं के बारे में बड़ी बड़ी बातें लिखीं जाएं, फिर उसे छापें तो पब्लिक में अखबार की छवि खराब होती है। सरकार भी आंखे टेढ़ी करती है। इससे अच्छा है कि हमने नेताओं के ही दो आदमी को अपना बना लिया है। बस इनके जरिए नेताओं के पास खबर पहुंचा देते हैं अखबार में नेता जी के खिलाफ फलां खबर छपने वाली है। ये खबर छप गई तो नेता जी की जमानत जब्त होने से कोई रोक नहीं सकता। अब क्या है कि खबर भी नहीं छापते, पैसा भी "पेड न्यूज" के मुकाबले कई गुना आ जाता है। सबसे बड़ी बात ये कि यहां बकाये का कोई कालम नहीं है। न ही नेता जी के यहां पेमेंट के लिए कोई चक्कर लगाया है। खुद नेता जी कई दफा फोन करके कहते हैं कि मैं मिलना चाहता हूं।

संपादक ने अपनी बताने के बाद कहाकि वैसे आप लोगों को तो अब बहुत दिक्कत होगी। मैने कहा क्यों, हम लोग कौन सी खबर किसी की छाप रहे हैं कि दिक्कत होगी। यहां तो सबकुछ साफ है। सामने जो होता है, वही सबको दिखाते हैं। कहने लगे अरे श्रीवास्तव जी "ये पब्लिक है, सब जानती है" । बहरहाल मुझे अब संपादक की बात अच्छी तो नहीं लग रही थी, लेकिन मैने कहाकि आप क्या कहना चाहते हैं, खुल कर कहिए। कहने लगे भाई सरकार की मुश्किल "पेड न्यूज" ना पहले कभी थी ना आज है। सरकार की मुश्किल इलेक्ट्रानिक मीडिया है, जो सुबह शुरू होते हैं तो शाम तक उसी खबर को अलग अलगे स्वाद में परोसते रहते हैं। अब सरकार मीडिया पर नजर रखेगी तो आप सबकी मुश्किल बढ़ने वाली है। मैं उनकी बात समझ नहीं पा रहा था, बाद में उन्होंने खुल कर समझाया। कहने लगे देखिए पैसे का लेन देन क्या हो रहा है ये तो कोई देख नहीं रहा है। जो कुछ सामने है वही जनता भी देख रही है और सरकार भी। मैने कहा बिल्कुल सही बात है, यही तो हमारी विश्वसनीयता है। हमारा तो सारा काम ही कैमरे की नजर के सामने होता है। सब कुछ पारदर्शी है।

संपादक कहने लगे वैसे आप बेवकूफ दिखाई तो नहीं दे रहे हैं, लेकिन बातों से मुझे शक हो रहा है। उनकी बात मुझे ठीक नहीं लगी, इसलिए मैं चुप हो गया। मेरे चुप होते ही उन्होंने बोलना शुरू किया तो फिर चुप होने का नाम ही नहीं। कहने लगे अब सरकार भी देखेगी एक नई बनने वाली पार्टी को आप कितना समय दिखाते हैं, फिर आपसे भी सवाल होगा कि भोपाल गैसकांड के पीड़ित कई महीनों तक जंतर मंतर पर जमा रहे, आपने उन्हें कितना दिखाया। आपसे ये भी सवाल होगा कि मणिपुर में कई साल से अनशन कर रही इरोम शर्मिला को आपने कितनी देर दिखाया और जो 10 दिन के लिए बैठे उन्हें कितने समय तक दिखाते रहे। ये भी पूछा जाएगा कि नेशनल न्यूज चैनल है पर कितने राज्यों की खबरें कितने समय तक दिखाते हैं। कहने लगे चैनल से भी पूछा जाएगा कि जो अभी राजनीति में आने वाले हैं, उन्हें आप कितना समय दे रहे हैं और जो लोग कई साल से राजनीति में हैं उनके लिए आपके पास कितना समय है। संपादक इसी बात से खुश नजर आ रहे थे कि प्रिंट के साथ-साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया की गर्दन पर भी तलवार लटक रही है। खैर असली तस्वीर तो आने वाले वक्त में साफ होगी। लेकिन संपादक के चेहरे की खुशी देखकर मुझे एक कहानी याद आ गई।

एक आदमी ने ठंड के दिनों में गंगा किनारे कठोर तपस्या की। भगवान उसकी तपस्या से खुश हुए और उसे दर्शन देने को प्रकट हो गए। भगवान ने कहा मांगो कोई भी एक वरदान मैं अभी पूरा कर दूंगा। तपस्वी के समझ में नहीं आया कि एकदम से वो क्या मांग ले। काफी देर सोचने के बाद उसने कहा कि भगवन मुझे अभी तो कुछ नहीं चाहिए, लेकिन मुझे ये वरदान दें कि मैं जब जो चाहूं वो पूरा हो जाए। भगवान उलझन में पड़ गए कि अब क्या करें, ऐसे तो अगर ये लालची हो गया तो मुश्किल खड़ी कर सकता है। भगवान ने सोचा कि इसे वरदान तो देना पडेगा, ऐसे में कुछ शर्तें लगा देते हैं। भगवान कहा ठीक है तुम जो चाहोगे, जब चाहोगे वो पूरा हो जाएगा, लेकिन एक शर्त है। तुम जो भी मांगोगे वो तुम्हें मिलेगा, लेकिन तुम्हारे पड़ोसी को उसका दोगुना मिल जाएगा। तपस्वी ने कहा ठीक है, कोई दिक्कत नहीं।

तपस्वी घर आया, उसने अपनी पत्नी से कहा अब हमारी सारी मुश्किलें खत्म समझो, बोली वो कैसे। तपस्वी ने भगवान को याद किया और कहाकि मेरी ये झोपड़ी एक आलीशान बंगले में तब्दील हो जाए। देखते ही देखते जैसे जादू हो गया, सामने आलीशान बंगला तैयार हो गया, लेकिन पत्नी खुश होने के बजाए दुखी हो गई, क्योंकि उसके पड़ोसी के पास दो आलीशान बंगले हो गए। पत्नी ने कहा कि तपस्या तुमने की और उसका ज्यादा फायदा तो पड़ोसी को मिल रहा है। पत्नी ने कहा कि ये वरदान तो तुम वापस ही कर दो। तपस्वी परेशान होकर फिर गंगा के तट पर तपस्या करने पहुंच गया। अभी तपस्या शुरू भी नहीं की थी कि संत की वेषभूषा में एक व्यक्ति मिला और पूछा कि तुम क्यों परेशान हो ? तपस्वी  ने पूरी कहानी बताई और कहा कि तपस्या तो मैने की लेकिन उसका दोगुना फायदा पड़ोसी को मिल रहा है। इस पर साधु ने जोर का ठहाका लगाया और कहाकि इसमें परेशानी की क्या बात है, तुम खराब वरदान मांगों। उससे उसे दोगुना नुकसान होगा।

तपस्वी को लगा कि ये बात तो बिल्कुल ठीक है। वो घर आया और पत्नी को बुलाकर कहा देखो अब मेरा खेल। उसने भगवान को याद किया और कहाकि मेरे एक आंख की रोशनी खत्म हो जाए। पत्नी खुश हो गई क्योंकि पड़ोसी की दोनों आंखो की रोशनी गायब हो गयी। तपस्वी ने कहाकि मेरा एक पैर टूट जाए, पड़ोसी की दोनों टांगे टूट गई। ऐसे ही तपस्वी रोज उल्टी चीजें मांगता और इस बात में खुश रहता कि अरे पड़ोसी की तो दुगना नुकसान हो रहा है ना। लेकिन इस बात से बेखबर था कि कुछ नुकसान तो उसका भी हो रहा है।

हाहाहाहाह। संपादक की बात से भी कुछ ऐसा ही लगा। वो इस बात से ज्यादा दुखी नहीं थे कि "पेड न्यूज" को लेकर अखबारों की किरकिरी हो रही है, उन्हें इस बात की खुशी ज्यादा थी कि अब चैनलों पर भी सरकार की नजर रहेगी।