इलेक्ट्रानिक मीडिया का बचकाना काम देखकर कई दफा हैरानी होती है। आप सब जानते हैं कि इस वक्त संसद का सबसे महत्वपूर्ण यानि बजट सत्र चल रहा है। संसद में रेल और आम बजट पेश किया जा चुका है और अब इस पर चर्चा शुरू होगी। लेकिन बजट के पहले मीडिया खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया का हुडदंग देखने लायक होता है। मैं तो पांच-सात साल से देख रहा हूं कि बजट सत्र के पहले चैनल के बड़े दम खम भरने वाले जर्नलिस्ट ट्रेन पर सवार हो जाते हैं और वो सीधे बाथरूम को कैमरे पर दिखाते हुए साफ सफाई को लेकर रेल मंत्रालय को कोसते हैं, जो ज्यादा उत्साही पत्रकार होता है वो ट्रेन के खाने की बात करते हुए घटिया खाने की शिकायत करता है और उम्मीद करता है शायद इस बजट में रेलमंत्री का ध्यान इस ओर जाएगा। अच्छा आम बजट के पहले भी इसी तरह की एक घिसी पिटी कवायद शुरू होती है, चैनल की अच्छी दिखने वाली लड़की को किसी बडे आदमी के घर के किचन में भेज दिया जाता है। पांच तोले सोने की जेवरों से लदी उस घर की महिला वित्तमंत्री को समझाने की कोशिश करती है कि घर चलाना कितना मुश्किल हो गया है। सच तो ये है कि जिस घर में महिला पत्रकार जाती है, उस महिला को आटे चावल का सही सही दाम तक पता नहीं होता है।
हां आप सवाल पूछ सकते हैं कि आखिर गरीबों के यहां या फिर झोपड़ पट्टी में पत्रकार जाकर खाने की थाली पर रिसर्च क्यों नहीं करते ? मैं कहूंगा कि आपने बहुत अच्छा सवाल किया है, पर चैनल खासतौर पर हिंदी चैनल मध्यम वर्गीय परिवार में देखा जाता है, गरीबों के यहां किचन तो होता नहीं है, वही चूल्हे में फूंक मारती महिला से बात करनी पड़ेगी जो इतनी सारी समस्या गिना देगी कि उतना सब दिखाने का समय भी चैनल के पास नहीं है। अच्छा ये काम कोई ऐसा वैसा चैनल करे तो बात समझ में आती है, मुश्किल तो तब होती है जब खुद को नंबर एक कहने वाला चैनल ये काम करता है। अब देखिए ना " आज तक " ने अपने 10 महिला पत्रकारों को रेल बजट से पहले ट्रेन की यात्रा कराई, उनसे कहा गया कि ट्रेन के सफर के दौरान होने वाली मुश्किलों को बताएं। अब चैनल के मास्टर माइंड को कौन समझाए कि ट्रेनों में होने वाली दिक्कतें तो आप कभी भी उठा सकते हैं, इसके लिए बजट का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। संपादक जी अगर आज रेलवे स्टेशन पर गंदगी है, ट्रेनों में गंदगी है तो इंतजार करेंगे कि बजट के पहले ये स्टोरी की जाएगी। उसी समय, उसी दिन क्यों नहीं ? मजेदार तो ये कि शाम को इसी चैनल ने इतने फूहड़ तरीके से रेल बजट पर रिपोर्ट प्रसारित की माथा ठनक गया। शीर्षक सुनेंगे " छुपा कर क्यों बढाया रे " । अब इस दिमागी दिवालिएपन को आखिर क्या कहा जाए ? अरे भाई बजट में लुका छिपा क्या है, बजट की कापी तो संसद में पेश की गई है, इतना ही पत्रकारों के हाथ में भी वही बजट है। अब आपको समझ में ही देर से आया तो इसके लिए क्या किया जा सकता है।
सच कहूं तो चैनल के मास्टर माइंड कहे जाने वाले लोगों को बजट की एबीसीडी ही नहीं पता है। वरना वो सवाल उठाते कि पिछले बजट मे जो कुछ ऐलान किया गया था, वो अभी तक पूरा क्यों नहीं हुआ ? अगर पिछले बजट में घोषित सभी ट्रेनें पटरी पर अभी तक नहीं आईं तो नई ट्रेन का ऐलान क्यों किया जा रहा है ? अच्छा एक बहुत गलत फहमी है पत्रकारों को कि ये बजट रेलमंत्री का होता है, अरे भाई अगर बजट पर संसद की मुहर लग गई है तो रेलमंत्री कोई भी उस पर सवाल तो खड़े किए ही जा सकते हैं। लेकिन ममता बनर्जी गईं तो पत्रकार उनके बजट के साथ ही उनके विजन ट्वेंटी - ट्वेंटी को भी भूल गए, जिसमें तमाम बड़ी बड़ी बातें की गईं थीं। ममता बनर्जी ने दर्जन भर कमेंटिया बनाईं थी, जिन पर लाखों रुपये खर्च हुए, उन कमेटियों की रिपोर्ट क्या है और उन रिपोर्टों पर काम क्या हुआ? किसे ने ये सवाल नहीं उठाया। चलिए रेल बजट पर बहुत चर्चा हो गई। वैसे रेल बजट की बारीकियां आपको जाननी है तो आप मेरे दूसरे ब्लाग " आधा सच " को जरूर पढें। यहां आपको ऐसी जानकारी मिलेगी जो आपके लिए संग्रहणीय भी हो सकती है।
लिंक.. http://aadhasachonline.blogspot.in/2013/02/blog-post_27.html#comment-form
वैसे सच बताऊं तो आम बजट पर मैं भी उतना बात नहीं कर पाऊंगा। लेकिन मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि बजट को लेकर जो रिपोर्टिंग चैनलों पर होती है, वो बहुत ही सतही स्तर की होती है। अगर इसे आपको और आसान शब्दों मे समझाना हो तो मैं कह सकता हूं कि चैनल देखते हुए लगता है कि ग्रेजुएट कर चुका छात्र सौ तक गिनती तक नहीं जानता। बजट के एक दिन पहले हमने देखा कि कई चैनलों के पत्रकारों ने एक-एक साफ-सुथरे किचन का इंतजाम कर लिया। चूंकि इस दिन उन्हें सुबह से फील्ड में भिड़ना होता है तो ऐसा किचन ज्यादा बेहतर साबित होता है जहां नाश्ता पानी का भी जुगाड़ बना रहे और काम धाम भी चलता रहे। मतलब भइया के साथ तो कहीं भी छन जाती है, आज बारी भाभी और बच्चों की भी है। भाभी को पता चला कि चैनल वाले उनके घर के किचन से लाइव करेंगे तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं। पूरे दिन अपने रिश्तेदारों को फोन लगाती रहीं बजट वाले दिन सुबह मुझे टीवी पर देखना। छोटी बहन को फोन लगाया कि कौन सी साड़ी में जचूंगी। फटाफट बैंक के लाकर से सारे गहने निकाल लाईं। अब टनाटन सजी भाभी से सब्जियों के दाम पूछे जाते हैं तो वो आधा अंग्रेजी और आधा हिंदी में बताती हैं कि आलू यानि पोटेटो 20 रुपये किलो, टोमैटो तो और मंहगा है। पत्रकार को समझ मे आ गया कि भाभी को सब्जी के बारे में कुछ भी पता नहीं है, क्योंकि आलू तो आज कल 10 रुपये का सवा किलो मिल रहा है। फिर बेचारी भाभी टमाटर का तो दाम भी नहीं बता पाती हैं, वो टौमेटो को और मंहगा कह कर काम चल रही हैं। जबकि टमाटर भी 10 से 15 रुपये किलो है इन दिनों।
भाभी तो लाइव हैं, पत्रकार बेचारे की मुश्किल बढ़ जाती है, वो तुरंत अनाज के दाम पर आ जाता है। उसे लगता है कि अगर चावल के दाम गलत भी बताए तो कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि चावल तो आज मार्केट में 20 रुपये लेकर 120 रुपये किलो तक का है। यही हाल दाल और अन्य अनाज का भी है, तो बेचारा पत्रकार किसी तरह अनाज के दाम पूछ कर समय काटता है। अब भाभी तो निकली बासमती चावल और आशीर्वाद आटा खाने वाली, लेकिन पत्रकारो को तो ये बताना है कि आप देख सकते हैं कि आज सामान्य घर में खाने की थाली कितनी मंहगी हो गई है। मंहगाई से हालत ये है कि भाभी को थाली से सब्जी हटानी पड़ गई है। बेचारा पत्रकार स्टोरी की लाइन से खत्म करना चाहता है, लेकिन भाभी ने तुरंत टोक दिया, अरे भइया ये क्या कह रहे हैं आप ? मैने अपने तमाम रिश्तेदारों को बताया कि वो आज फलां चैनल देखें, मैं अपना किचन दिखाऊंगी, आप तो ऐसी बातें कर रहे हैं कि हमारे रिश्तेदार मेरे घर ही आना ही छोड़ देंगे। उन्हें लगेगा कि बेचारे पूरा खाना भी नहीं खा रहे हैं, ऐसे में क्यों उन पर बोझ बना जाए। भाभी बोलना शुरू हुई तो चुप ही नहीं हुई, उन्होने कहा कि जिस तरह से आप खाने की थाली से सब्जी हटा रहे हैं, हो सकता है कि शाम तक मेरे पापा यहां ना आ जाएं और पूरे महीने का अनाज सब्जी वो खुद ही दिलाने की जिद्द करने लगेंगे। प्लीज भैया ऐसे मत बोलिए।
हाहाहा अब तो पत्रकार जी का नशा काफूर हो गया। वो तो आए थे मंहगे किचन में अपने दिन भर के बढिया लाइव के इंतजाम से, लेकिन पहले ही लाइव में उन्हें नाश्ता ही नहीं भरपेट भोजन मिल गया। समझ गए कि यहां से तो जाना ही बेहतर है, अब बेचारे किसी और के घर फोन करते तो अचानक कोई तैयार नहीं होता। फिर तो बेहतर यही था कि सब्जी मंडी पहुंच जाए और वहीं सब्जी खरीदने आने वालों से सीधी बात चीत हो। जब भी आप किसी इवेंट को मैनेज करने की कोशिश करेंगे तो ऐसी मुश्किल आएगी ही। अब भाभी को ये तो पता नहीं था कि उन्हें रोनी सूरत बनाकर मंहगाई को लेकर हाय तौबा करनी हैं। उन्हें तो जैसे ही पता चला कि अरे वो टीवी पर आएंगी, सबसे पहले बैंक जाकर लाकर में रखे सारे गहने उठा लाईं और शादी में मिले इन मोटे-मोटे जेवर को पहन कर गरीबी की बात भी करतीं हई भी तो बेईमानी लग रही थी। खैर कोई नहीं टीवी पत्रकारों के साथ ये सब चलता रहता है।
दिल्ली गैंगरेप पीडित बेटी को लेकर मैं बहुत मर्माहत हूं, सच कहूं तो उसकी मौत की खबर ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया। लेकिन उस बेटी के नाम पर हो रही सियासत से मुझे घिन्न आ रही है। वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने जब बजट पढ़ते हुए ऐलान किया कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए "निर्भया फंड" की व्यवस्था की गई है, तो मुझे अपने उस पत्रकार भाई की याद आई, जिसने प्रेस कान्फ्रेंस के दौरान मंत्री पर जूता उछाल दिया था। हालाकि मैं हिंसा और बेहूदगी में कत्तई यकीन नहीं करता, लेकिन जब ऐसी घटिया बात सदन में की जाती है तो मैं कहता हूं कि मेरे पत्रकार भाई ने कुछ भी गलत नहीं किया था। मुझे लगा कि क्या ये भी ऐसा विषय है जिस पर राजनीति की जाए ? निर्भया, जिसने दिल्ली ही नहीं, देश के तमाम हिस्सों में नौजवानों को आन्दोलित किया, जो महिलाओं की बढ़ती असुरक्षा एवं उनके खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा का प्रतीक बन कर देश में उभरी, उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसकी कुर्बानी को एक दिन सरकार इस तरह भुनाने की कोशिश करेगी। अपना आठवां बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री पी चिदम्बरम ने ऐलान किया कि सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष निर्भया फंड बनाने जा रही है और जिसके लिए एक हजार करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं।
एक हजार करोड़ का फंड बनाकर क्या संदेश देने की कोशिश की गई है। ये बात मेरी समझ में तो नहीं आ रही है। मुझे डर है कि कहीं सरकार अब राज्यों को ये टारगेट ना थमा दे कि जो फंड दिया गया है इसे निश्चित अवधि में खत्म भी करना है। फंड इस्तेमाल तभी होगा जब महिलाएं शोषण का शिकार होगीं। मेरा कहने का आशय ये है कि जब मंत्री और सरकार इतने असंवेदनशील हो जाएं तो इनसे किसी तरह की उम्मीद करना बेमानी है। जो सरकार बेटी की अस्मिता को बाजार में ढकेलने की साजिश करे, उसके बारे में क्या चर्चा की जाए। इस मुद्दे पर चैनल और समाचार पत्र दोनों खामोश रहें तो लगता है कि बाजार सब चीजों पर कितना हावी है। मीडिया भले खामोश हो, पर मैं वित्तमंत्री के आम बजट को कांग्रेस पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र से ज्यादा कुछ नहीं समझ पा रहा हूं। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ये देश का बजट नहीं हो सकता, इसे अगले साल होने वाले चुनाव की तैयारी कहें तो गलत नहीं होगा।
वैसे भी आम आदमी बजट में दो चीजें देखता है। अगर रेल बजट है तो वो देखता है किराया कम हुआ या नहीं। किराया कम हुआ तो बजट बढिया और नहीं हुआ तो घटिया। रेलमंत्री ने तो किराए में भारी वृद्धि कर दी है तो रेल बजट को बढिया कहने का सवाल ही नहीं। इसी तरह आम बजट में आम आदमी देखता है कि इनकम टैक्स में कोई राहत दी गई या नहीं। महिलाएं देखती हैं कि गैस सिलेंडर की कीमतें कुछ कम हो रही है या नहीं। मजदूर तपके को उम्मीद होती है कि क्या वो अब दो वक्त शुकून से रोटी खा सकता है या नहीं। मुझे कांग्रेस सरकार बताएगी कि क्या आम आदमी के मानदंड पर उसका बजट कहीं से खरा उतरता है? यहां मीडिया एक अहम भूमिका निभा सकती थी, लेकिन मीडिया की पहुंच वास्तविक लोगों तक शायद नहीं रही, यही वजह है कि मीडिया और बजट दोनों मूल विषय से भटके रहे। अब सवाल ये उठता है कि जब सरकार गूंगी और बहरी हो और देश की मीडिया नासमझ हो गई हो तो फिर मूल समस्या पर भला कौन आवाज उठाएगा।
बहुत सुन्दर आलेख!
ReplyDelete--
बात-बात पर मीडिया, करती है हुड़दंग।
देख नजारे देश के, घुटने लगी उमंग।।
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आपकी पोस्ट की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी है।
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक आलेख.
ReplyDeleteबहुत ही सार्थक आलेख,सादर आभार.
ReplyDeleteशुक्रिया राजेन्द्र जी
Deleteवाह!जी वाह! महेन्द्र जी ..आज की पोस्ट तो एक मज़ाक उड़ा रही है ..जनता का .और उड़ाने वाला हमारा मीडिया...और आपने हमें भी ,और अपने मीडिया के भाई-बंधुओं को भी सही लपेटा है ..आइना तो आपने दिखा दिया ..अब अपने बचने का और जनता के बचने का रास्ता भी सुझा दो.....थोडा संभल के भाई ..इतनी सच्चाई आपके भाई बंधू पचा पाएंगे क्या .....सच्चाई कड़वी होती है न ...???
ReplyDeleteशुभकामनायें!
जी सर, ये तो सही है कि सच्चाई बहुत कडुवी होती है।
Deleteलेकिन मुझे लगता है कि जो अपनी खामियों पर साफ साफ चर्चा नहीं कर सकता उसे दूसरे पर उंगली उठाने का नैतिक हक नहीं है।
आभार
bahut hi achha aur sarthak lekh.
ReplyDeleteshubhkamnyen
जी, बहुत बहुत आभार
Deletesundar bebak lekh "midia banti ja rahi hi dhire dhire mafiya,bat bahut sngin hai, hai bahut bahut ji shukriya...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
Deleteमहेंद्र श्रीवास्तव जी हर आलेख की तरह अन्दर की सच्चाई का पर्दाफाश करता, जागरूक करता आलेख है ,एक बात जो निर्भया फंड की बताई उसे सुनकर वही भाव दिल में आए जो आपके आए फंड कि बजाय अगर सरकार निर्भया फंदे (फँसी के फंदे)की घोषणा करती तो कुछ सुकून मिलता| बहुत-बहुत बधाई इस सार्थक आलेख को साझा करने हेतु.
ReplyDeleteबिल्कुल मैं आपकी बात से सहमत हूं...
Deleteआपका बहुत बहुत आभार
क्या बजट, क्या राजनीति, क्या आम आदमी की रसोई ...हर बार की तरह इस बार भी बजट बोझ ही बोझ बढ़ा रहा है,....रिलीफ मिला ही कहाँ ?
ReplyDeleteजी ये बात तो बिल्कुल सही है....
Deleteबजट से आम आदमी निराश ही हुआ है..
बज़ट, राजनीति, टीवी और आम जनता. बृहद चिंतन.
ReplyDeleteतमामों अभाव के बीच जीते लोगों के पास फटकने का समय किसके पास है और अगर है भी कौन सुनेगा उनके ....इस लोगों के बीच से जो उठकर कुछ कर गुजरे तो ही मीडिया, टीवी पर सुना देखा जाएगा वर्ना पूछो मत दूर से ही राम-राम और अपने मन से गांठ ली दो चार बातें ....बहुत कुछ है कहने को ...खैर ...बजट तो खास लोगों के लिए लिए आम कहने भर को है ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया चिंतन ..
आपकी ये बात सही है कि... बजट तो खास लोगों के लिए लिए आम कहने भर को है.. मुझे लगता है कि मीडिया को और पाजीटिव और अपने सोच की गहराई बढ़ानी होगी..
ReplyDeleteमहेंद्र जी इस सत्य-परक आलेख के लिए साधुवाद.
ReplyDeleteनइ जानकारी ,के लिए आभार ,
आपके ब्लॉग पर पहली बार आई ,और आना
सार्थक हो गया ,साभार.....
बहुत बहुत आभार..
Deleteमुझे उम्मीद है कि आगे भी आपका स्नेह और आशीर्वाद यूं ही मिलता रहेगा।