Friday, 16 October 2015

इंदौर : पत्रकारिता के पापी !





मैच के पहले ...


मैच के बाद ...




दोनों खबरें अलग अलग हैं मगर अखबार एक ही है। ये महज एक खबर नहीं है, सच तो ये है कि ऐसी खबरें अखबार और संपादक का चरित्र बताती है। चलिए खबर का थोडा रेफरेंस भी बता दूं,  14 अक्टूबर को इंदौर में चार साल बाद क्रिकेट का कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच हो रहा था, इसके टिकट के लिए काफी मारामारी थी। आलम ये था कि 11अक्टूबर यानि रविवार को बैंक से टिकट मिलने थे, लेकिन पगलाए क्रिकेटप्रेमी शनिवार को ही दोपहर से लाइन में लग गए । इन बेचारों ने पूरी रात सड़क पर काट दी, सुबह हुआ तो  भीड़ और बढ़ गई, बेचारे पुलिस की लाठियां तक खाई फिर भी टिकट के लिए जद्दोजहद करते रहे, इसके बाद भी टिकट नहीं मिला। फिर मैच के दो दिन पहले जब  इंदौर के एक बडे अखबार में पहले पेज पर खबर छपी " आखिर टिकट गए कहां " तो लोगों को लगा कि अखबार ने जिम्मेदारी निभाई और कम से कम आम जनता की बात को इस अखबार ने रखा, लेकिन मैच के दो दिन बाद दूसरी खबर छपी " वन डे की जीत ने टिकटों की मारामारी को भुला दिया "  तब सवाल उठा संपादक जी पर ! अगर हम कहें कि सिर्फ सवाल उठा तो गलत होगा, सही मायने में उंगली उठी संपादक जी पर .... ।

संपादक जी, आपकी जानकारी गलत है,  टिकटों की मारामारी को जनता ने नहीं भुला दिया, आपने भुला दिया। आपने क्यों भुला दिया, ये आप बेहतर जानते हैं, हम तो इतना जानते हैं कि आपको मैच के एक दिन पहले देर रात में पास मिल गए थे। वैसे संपादक जी आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि पास तो कुछ और संपादकों को भी भेजे गए थे, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। कुछेक संपादक तो रिपोर्टर वाला पास ही गले लटकाए मुंह निपोरते हए स्टेडियम में मौजूद थे। संपादक जी, समझ में नहीं आ रहा कि  आप टिकटों की मारामारी कैसे भूल गए ?  अखबार ही ध्यान से पढ़ लीजिए तो पता चल जाएगा कि लोग भूले या नहीं । श्रीनगर से मैच देखने आए लोग इंदौर में धक्के खाते रहे टिकट नहीं मिला, वो मायूस होकर लौट गए और आप कह रहे हैं कि वो सब भूल गए ? वाराणसी से दस लोगों की टीम यहां दो दिन तक धक्के खाती रही, आखिर तक मैच नहीं देख पाए, वो भी भूल गए ? बैंक के सामने 24 घंटे से भी ज्यादा समय तक लोग लाइन में लगे और फिर भी टिकट हाथ नहीं लगा, इंदौर की वो आम जनता टिकट की मारामारी को भूल गई ? संपादक जी टिकट की मारामारी सिर्फ आप भूल गए, फिर इस बात जोर देकर कह रहा हूं कि आप ही भूल गएं । क्यों भूल गए ? इसके लिए मुझे मजबूरी में मुझे कुछ कांग्रेस नेताओं का नाम लेना पडेगा और मैं बेवजह उन्हें अपने लेख में जगह देना नहीं चाहता।

जिस तरह के हालात आपने बना दिए हैं, उससे तो मन तो होता है कि मौका है अभी ही  इंदौर की कुछ टाउनशिप की बात भी करूं, मन तो ये भी है कि तुलसीनगर के पूरे मसले को तार-तार कर दूं। कुछ और बडे बडे मामलों की चर्चा करूं,  फिर लगता है कि नहीं, उसकी चर्चा सही वक्त आने पर की जाएगी। मुझे तो इंदौर में आए सिर्फ छह महीने हुए हैं, लेकिन दिल्ली, यूपी और पूर्वोत्तर भारत की २५ साल की पत्रकारिता पर ये छह महीने का अनुभव भारी है। दिल्ली में रहने के दौरान जब कभी भी खराब राज्य की बात होती तो लोग यूपी और बिहार की ओर देखने लगते हैं,  खराब प्रशासनिक अधिकारियों की बात हो तो भी लोग यूपी और बिहार की तरफ देखते हैं,  खराब कानून व्यवस्था की बात हो फिर यूपी बिहार का जिक्र होता है। इतना ही नहीं जब पत्रकारिता में भ्रष्टाचार की बात हो तो भी यही राज्य सामने आते हैं। लेकिन इंदौर ने मेरी जानकारी में इजाफा किया है। मैं यूपी बिहार को मध्यप्रदेश के मुकाबले कई गुना बेहतर मानता हूं। वहां के अफसर कितने भी दबाव में हों लेकिन अस्पताल में घायल पड़े गरीब, लाचार मजदूर का लिवर, किडनी और आंखें नहीं निकलवा सकते, यहां के अधिकारी ने ये किया। वहां भ्रष्टाचार में बडे से बड़ा नेता मंत्री जेल जाता है, यहां व्यापम मामले में अब तक ४२ लोगों की रहस्यमय तरीके से मौत हो चुकी है, फिर भी नेता अफसर सब ताल ठोंक रहे हैं। पत्रकारों की बात करें तो पाएंगे कि पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को बनाए रखने के लिए यूपी - बिहार के  पत्रकारों ने अपनी जान दे दी। आए दिन इन दोनों राज्यों से पत्रकारों की हत्या की खबरें मिलती है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वहां पत्रकारिता की आड में बेईमानी नहीं होती, पर ये दावा जरूर करूंगा कि जो कुछ यहां देखने को मिल रहा है, उसके मुकाबले वहां १० प्रतिशत भी पत्रकार बेईमान नहीं हैं।

वैसे आज सूबे की सियासत की बात छोड़ देते हैं,  आम आदमी की जान ले लेने वाले अफसर की भी बात नहीं करूंगा। आज सिर्फ अपने पेशे के भीतर झांकने की कोशिश करूंगा। यहां पत्रकारिता में भ्रष्टाचार का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इंदौर से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार में पहले पेज पर पत्रकारों की बेईमानी की खबर इस पेज की लीड खबर बनती है। इतना ही नहीं १० दिन से ये खबर नए तथ्यों के साथ पहले पेज पर बरकरार है। हालाकि अब इन पत्रकारों के मामले में बकायदा रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है, पुलिस अपना काम कर रही है। अखबार की खबर में भी यही तथ्य हैं कि जिनके खिलाफ मामला दर्ज है या फिर जो पकडे गए हैं ये तो महज प्यादे हैं, इनका बाँस बोले तो शाकाल कोई और है। मेरे ख्याल से तो इस शाकाल को पकड़ना कम से कम मध्य प्रदेश की पुलिस के लिए ना सिर्फ मुश्किल है बल्कि नामुमकिन है। अच्छा सच तो ये है कि पुलिस जिसे शाकाल समझ रही है वो शाकाल की शक्ल में बहुरुपिए है। बडे वाले तक तो न पुलिस पहुंचने की कोशिश कर रही है और न ही पहुंचना चाहती है।




Friday, 29 May 2015

इंदौर : तालीबानी पुलिस या पत्रकारिता

दिल्ली की पत्रकारिता का बुरा हाल है,  कुछ समय तक मैं खुद दिल्ली में इलेक्ट्रानिक मीडिया के एक बड़े ग्रुप का हिस्सा रहा हूं । अनुभव के आधार पर एक बात बताता हूं, आपको लगता है होगा कि चैनल पर क्या खबर चलेगी और क्या नहीं ये चैनल के संपादक तय करते होगे, पर ऐसा नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में वीजुअल अपना स्थान बनाती हैं।

सच बताऊं इलेक्ट्रानिक मीडिया अब बताने की नहीं भोकने की पत्रकारिता होती जा रही है। २९ मई यानि शुक्रवार को सुबह से आज तक, एबीपी और इंडिया टीवी समेत कुछ और चैनलों ने शोर मचाना शुरू किया " इंदौर में तालिबानी पुलिस " अब तालिबानी पुलिस क्यों, कहा पुलिस गुंडों को सड़क पर सरेआम पुलिस पीट रही है। आखिर गुंडों को इस तरह पीटने का अधिकार पुलिस को किसने दे दिया ?

अब देखिए लाठी चलाती पुलिस के विजुअल में फुल एक्शन है, ड्रामा है, इंटरटेनमेंट है और इमोशन भी है। ऐसे में संपादक का दिमाग गया तेल लेने। संपादक के दो एक चंपू हर आर्गनाइजेशन में होते हैं, वो बताते हैं कि सर कमाल का विजुअल है, " खेल " जाते हैं। टीवी में खबर चलाने को खेलना कहा जाता है । वैसे भी बुलेटिन में कुछ नहीं है। संपादक ये भी जानने की कोशिश नहीं करता कि अगर पुलिस कोई अभियान चला रही है तो उसकी वजह क्या है ? अचानक यूं ही तो सड़क लाठी भांजेगी नहीं।

बहरहाल अब घटना सुनिए । वैसे तो इंदौर शांत शहर है, यहां कुछ समय पहले रात १२ बजे भी महिलाएं स्कूटी से सड़क पर बिना डर निकलती दिखाई पड़ जाती थीं। लेकिन दो तीन महीने से अलग तरह की वारदात हो रही है। एक दवा जिसे यहां की भाषा में " नाइट्रा " कहा जाता है,  उसे ये सड़क छाप बदमाश शराब और बीयर में मिलाकर पीते हैं। इससे उन्हें तुंरत नशा होता है, फिर शुरू होता है इनका नंगा नाच। ये हाथ में छुरा लेकर बाइक पर निकलते हैं, और जो भी मिलता है उसे छुरा से कट मारते हुए निकल जाते हैं। ये एक बार में कई लोगों को घायल कर देते हैं। इस तरह की घटना पिछले १५ दिन से कहीं ना कहीं जरूर हो रही है।

दिल्ली की घटना थी, इसलिए निर्भया कांड को दिल्ली के चैनलों ने सिर पर उठा लिया, इंदौर के इन्हीं नशेडियों ने सिर्फ तीन दिन पहले रात नौ बजे एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसके साथी के साथ मारपीट की। दिल्ली की मीडिया चुप रही। हफ्ते भर पहले दिन में ही इन गुंडों ने शहर के पाश इलाके विजयनगर में सरेआम एक व्यापारी से उसके दुकान पर मारपीट की और लूटने की कोशिश की,  १५ दिन पहले एक दंपत्ति को इन नशेडियों ने छुरा से घायल कर उनकी कार छीन ली। लगातार अपराधिक घटनाएं यहां हो रही हैं।

पूरा इंदौर इस अपाराधिक घटना से परेशान है, जब पानी सिर के ऊपर हो गया और इंदौर पुलिस के खिलाफ यहां के अखबारों ने बकायदा अभियान चलाना शुरू किया, फिर जाकर पुलिस एक्शन मे आई तो इलेक्ट्रानिक मीडिया भोकने लगी। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ये जानने की भी कोशिश नहीं की कि इँदौर के हालात क्या हैं, क्या वाकई कानून व्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो गई है कि पुलिस को सख्त कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ा है।

आम आदमी को छूरा भोंका जा रहा है,  टीवी पत्रकारों की ये खबर तो चैनल पर चल नहीं सकती, इसी खबर को अगर इंदौर का रिपोर्टर ये बताए की पुलिस ने अपराधियों के खिलाफ अभियान तेज किया तो खबर गिर जाएगी। इसलिए मजबूरी में मानवाधिकार की आड़ लेते हुए ये कहना आसान है कि आखिर पुलिस को किसने अधिकार दे दिया कि वो सरेआम गुंडों की पिटाई करें ? अब इस मूर्खता पर क्या बहस करूं ?


पहले ही बताया कि मैं भी कुछ समय पहले इसी मंडली का मेंबर रहा हूं, इसलिए अच्छी तरह जानता हूं कि न्यूजरूम में कैसे खबर चलाई या गिराई जाती है, कैसे खबर पर चढ़ा जाता है और कैसे खेला जाता है। ये सब मैं जानता हूं। लेकिन अब जब इंदौर में हूं और जमीन की सच्चाई देख रहा हूं और टीवी की बकवास भी सुन रहा हूं तो जरूर हैरानी होती है। हैरानी इसलिए भी ज्यादा हुई कि सुबह आज तक पर जब ये खबर मैने देखी तो चैनल के एक वरिष्ठ मित्र को फोन कर हकीकत बताया भी कि सच क्या है और स्थानीय अखबार यहां बढ़ते अपराध के लिए अभियान चलाए हुए थे, इसलिए पुलिस का एक्शन जायज है, लेकिन कोई फायदा नहीं, खबर देर शाम तक चलती रही, बहरहाल जो बिकता है वो दिखता है। पुलिस वालों पर इसलिए मीडिया का असर भी नहीं रहा।










Thursday, 26 February 2015

रेल बजट : डरपोक लगे प्रभु !

रेल बजट से सिर्फ निराशा ही नहीं हुई बल्कि इस बजट ने रेलवे बोर्ड के प्रबंधन पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं ! बजट पर बात करूंगा, लेकिन पहले रेलवे बोर्ड की प्रासंगिकता पर बात करना जरूरी हो गया है। इस बजट को सुनने के बाद मन में जो पहला सवाल है वो ये कि रेलवे बोर्ड की आखिर जरूरत क्या है ? जर्नलिज्म से जुड़े होने की वजह से मेरा 15 - 20 साल से रेलवे और बोर्ड के तमाम अफसरों से संपर्क रहा है, इसलिए रेलवे के सिस्टम को बखूबी समझता हूं। बोर्ड में मैकेनिकल और सिविल इंजीनियरों की जबर्दस्त खेमेबंदी है। दोनों गुट की कोशिश रहती है कि बोर्ड में उनकी तूती बोलती रहे, इसके लिए ये बहुत नीचे तक गिर जाते हैं। खैर इस मसले पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी, आज मैं ये जानना चाहता हूं कि रेलवे बोर्ड के पास ना कोई प्लानिंग है ना कोई विजन है और ना ही कोई सिस्टम है, ऐसे में रेलवे को इस हाथी ( रेलवे बोर्ड ) की जरूरत क्यों है ? ये इंजीनियर ट्रेन को पटरी से उतार देगें, वरना मेरा तो यही मानना है कि बोर्ड का प्रबंधन इंजीनियरों से लेकर IAS को सौंप दिया जाना चाहिए, क्योंकि मुझे लगता है कि योजना, बजट, अनुशासन ये सब एक इंजीनियर के मुकाबले IAS बेहतर कर सकता है।  

आइये बजट पर चर्चा करते हैं। रेलमंत्री सुरेश प्रभु पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट है, इसलिए वो गुणा भाग में माहिर हैं। उनकी ये महानता बजट में दिखाई दी और उन्होंने सबसे बड़ा झूठ ये कहाकि आज रेलवे का आँपरेशन रेसियो 88.5 है। मतलब रेलवे 100 रुपये कमाने के लिए 88.50 रुपये खर्च करता है। सच्चाई ये है कि रेलवे 100 रुपये कमाने के लिए करीब 113 रुपये खर्च करती है। वैसे प्रभु आपकी लीला अपंरपार है, आपने कहा कि अभी तक लोग 60 दिन पहले का ही रिजर्वेशन करा सकते थे, जिसे बढ़ाकर 120 दिन कर दिया गया है। मतलब लगभग पांच हजार करोड रूपये बिना सफर कराए ही एडवांस में रेलवे के खाते में जमा हो जाएंगे । यात्रियों की इस रकम पर बैंक तो रेलवे को ब्याज देगा, लेकिन टिकट कन्फर्म नहीं हुआ तो रेलवे यात्री को पूरा पैसा तक वापस नहीं करेगी, वो कैंसिलेशन चार्ज वसूलेगी। फिर चार महीने बाद क्या होगा ये साधारण यात्री तो नहीं जानता, ये तो प्रभु आपको ही पता हो सकता है। 

प्रभु आपका ये ऐलान कि ट्रेनों और प्लेटफार्म पर विज्ञापन के जरिए रेलवे आय का स्रोत बढाएगी, ये बात तो समझ में आती है। लेकिन आप का ये ऐलान गले नहीं उतरा कि कंपनियों के नाम पर स्टेशन और ट्रेन का नाम रखकर बड़ी रकम वसूल की जाएगी। मुझे याद है कि पूर्व रेलमंत्री स्व. कमलापति त्रिपाठी ने एक बार रेल के अफसरों को इसीलिए लताड लगाई थी कि वो ट्रेनों का नाम ठीक तरह से नहीं रखते थे। पहले ट्रेन का नाम होता था, बाम्बे मेल, तूफान मेल, कालका मेल आदि आदि। स्व. त्रिपाठी ने कहाकि ट्रेन के नाम सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक पहचान के आधार पर रखे जाएं। उनके समय में जो भी ट्रेनें चलीं उनका नाम बहुत सोच समझ कर रखा जाता था, जैसे काशी विश्वनाथ एक्सप्रेस, त्रिवेणी एक्सप्रेस, गंगा गोमती एक्सप्रेस, हिमगिरी एक्सप्रेस इत्यादि। लेकिन प्रभु आपके ऐलान के बाद तो लगता है कि ट्रेनों का नाम होगा एमडीएच चिकन मसाला एक्सप्रेस, कुरकुरे एक्सप्रेस, पेप्सी मेल, सहारा एक्सप्रेस, जाँकी अंडरवियर सुपरफास्ट ट्रेन, तुफान बीडी मेल, बेगपाईपर सुपर फास्ट ! ये सब क्या है प्रभू ? 

वैसे प्रभु एक बात बताऊं, पूर्व रेलमंत्री लालू यादव को आज मैं वाकई याद कर रहा हूं। लालू का मैं बड़ा आलोचक रहा हूं, लेकिन आपके बजट के बाद इतना तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि लालू बजट पर मेहनत करते थे और उनके बजट में रेलवे के मुनाफे के साथ दूरदर्शिता दिखाई देती थी। लालू ने रेलवे बोर्ड के इंजीनियरों पर आंख मूंद कर कभी भरोसा नहीं किया, वो अपने साथ बिहार कैडर के कुछ आईएएस अफसरों को  अपना OSD बनाकर बोर्ड में बैठा दिया था। नतीजा ये हुआ कि बिगडैल इंजीनियरों पर लगाम कसा जा सका। सच कहूं प्रभु आपका बजट तो मैं अभी तक यही नहीं समझ पा रहा हूं कि ये है किसके लिए ? इसे ना यात्रियों का बजट कह सकते है, ना रेल कर्मचारियों का बजट कह सकते हैं और ना ही व्यापारियों का बजट कह सकते हैं। संसद में आपने साफ-साफ बता दिया कि दिल्ली मुंबई राजधानी की औसत गति सिर्फ 79 किलोमीटर प्रति घंटा है, जबकि दूसरी राजधानी की औसत गति तो 55 से 60 किलोमीटर प्रतिघंटा ही है। इसलिए प्रभु जी आपने ऐलान किया कि आप कुल 9 रेलमार्ग पर गति सीमा बढ़ाएंगे। पता नहीं आपको याद है या नहीं, लेकिन ये काम लालू यादव ने शुरू किया था, उन्होंने सबसे पहले दिल्ली से आगरा तक भोपाल शताब्दी को 150 किलोमीटर की रफ्तार से चलाने की कोशिश की। कई साल काम चला, रेलवे ने 180 करोड रुपये ज्यादा पटरियों को अपग्रेड करने पर खर्च भी किया। लेकिन आज भी भोपाल शताब्दी की औसत गति 110 - 120 किलोमीटर ही है। मुझे लगता है कि बोर्ड के इंजीनियरों ने मोटा माल बनाने के लिए पुरानी पटरी को अपग्रेड करने का तरीका तलाशा है। 

साफ-सफाई तो खैर जितना भी हो कम है, इस पर आपने ध्यान दिया है अच्छी बात है। लेकिन फिर मुझे कहना पड़ रहा है कि बोगी में बायो टायलेट की शुरुआत पूर्व रेलमंत्री लालू यादव ना सिर्फ अपने बजट में कर चुके है, बल्कि उनके समय में ही आईआरडीएसओ ने एक बोगी तैयार कर दिल्ली में इसका प्रदर्शन भी किया था। इस दौरान लालू के साथ कैबिनेट मंत्री रहीं अंबिका सोनी भी मौजूद थीं। आपने कहाकि मेक इन इंडिया के तहत इंजन, बोगी, पहिए देश में बनाए जाएंगे। प्रभु देश में तो आज भी ये तीनों चीजें बन रही हैं, हां जरूरत के मुताबिक उत्पादन नही कर पा रहे हैं। सफर के दौरान यूज एंड थ्रो बेडरोल की बात नई जरूर है, बहरहाल इसका इंतजार रहेगा। ये अच्छा प्रयास है। 

प्रभु आपके एक ऐलान से तो मेरा पूरा परिवार हंसते हंसते थक गया। आपने कहाकि चार महीने पहले आप ट्रेन का टिकट ले सकते हैं और टिकट लेने के दौरान ही मनचाहे खाने का आर्डर भी IRCTC के जरिए आँनलाइन ही कर सकते है। पहला तो ये कि जहां लोग सुबह नाश्ते के बाद सोचते हों कि लंच में क्या खाया जाए, वहां आप चार महीने पहले खाने के आर्डर को मनचाहा खाना बता रहे हैं। चलिए ये तो कोई खास नहीं.. लेकिन एक वाकया बताता हूं। दिल्ली से गोवा जा रहा था, ट्रेन को दोपहर एक बजे भोपाल पहुंचना था, एक  मित्र ने कहाकि भोपाल में वो खाना लेकर आएंगे ! ट्रेन 6 घंटे लेट हो गई और हम सभी  बिस्किट खाकर भूख से जूझते रहे। ट्रेनों की लेट लतीफी के बीच अगर यात्री भोजन का इंतजार करता रहा तो उसका भगवान ही मालिक है। 

जनरल कोच में मोबाइल चार्ज करने की सुविधा दे रहे हैं, लेकिन प्रभु कुछ ऐसा कीजिए कि सामान्य श्रेणी के कोच में यात्री आराम से सफर भर कर सके, तो भी चल जाएगा। स्टेशन पर फ्री वाईफाई भी गैरजरूरी बात लगती है, क्योंकि आज कल सभी के फोन पर नेट की सुविधा आमतौर पर होती ही है। सरकारी पैसे को बेवजह खर्च करने की जरूरत नहीं है। और हां प्रभु ये बताएं आपने एक भी नई ट्रेन का ऐलान नहीं किया ! मुझे तो ये बात समझ में ही नहीं आ रही है। आपको पता है कि लोगों को आसानी से रिजर्वेशन नहीं मिल रहा है, रेलवे आज भी डिमांड पूरी नहीं कर पा रही है ऐसे में नई ट्रेन का ऐलान होना ही चाहिए। मुझे पता है कि रेल रूट बिजी है, लेकिन जब आप कह रहे हैं कि ट्रेनों की स्पीड बढ़ाकर कुछ समय निकाला जाएगा, तो नई ट्रेन चलाई जा सकती है। इससे तो आपकी और बोर्ड अफसरों में इच्छाशक्ति की कमी दिखाई देती है। डिमांड पूरी करने के लिए ट्रेनों में बोगी बढ़ाने की बात कर रहे हैं, ज्यादातर ट्रेनो में 24 कोच लगाए जा रहे हैं, इससे ज्यादा कोच लगाने की क्षमता ही नहीं है। कई रेलवे स्टेशन पर तो 24 कोच की ही ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी नहीं हो पाती है, फिर और बोगी बढ़ाने की बात तो बेमानी लगती है। 

आखिर में रेलवे के आय पर बात करना है। एक बार फिर बजट में पीपीपी की बात की गई है। प्रभु आपको पता है कि वर्ल्ड क्लास रेलवे स्टेशन के लिए पीपीपी के तहत देश विदेश से टेंडर आमंत्रित किए गए थे, लेकिन कोई भी आवेदन नहीं आया। दरअसल सच्चाई ये है कि भारतीय रेल पर किसी को भरोसा ही नहीं है। आपने सिर्फ पीठ थपथपाने के लिए रेल किराए में कोई बढोत्तरी नहीं की। मै तो आपके इस फैसले से पूरी तरह असहमत हूं। देश में रोजाना 2.30 करोड यात्री ट्रेन से सफर करते हैं। इसमें अकेले मुंबई में 85 लाख यात्री रोजाना लोकल ट्रेन से सफर करता है। अभी वहां तीन महीने का मासिक सीजन टिकट सिर्फ 15 दिन के किराए पर दिया जाता है। मासिक सीजन टिकट में बढोत्तरी की गुंजाइश थी, लेकिन आपने नहीं किया। इसी तरह अपर क्लास का किराया लगातार बढाया गया है लेकिन जनरल और स्लीपर क्लास में किराया नहीं बढ़ा है, इसलिए जरूरी है कि किराए को तर्कसंगत बनाया जाए। माल भाडा बढ़ाया तो.. लेकिन आपकी हिम्मत नहीं हुई कि बजट भाषण में इसे आप पढ सकें। मुझे बजट तो दिशाहीन लगा ही प्रभु आप डरपोक भी नजर आए। 

चलते-चलते
रेलवे बोर्ड के पूर्व चेयरमैन अरुणेन्द्र कुमार टीवी बहस में इस रेल बजट को 10 में 11 नंबर दे रहे थे, मुझे लगता है कि उन्हें उम्मीद है कि बीजेपी सरकार रेलवे बोर्ड की किसी कमेटी का उन्हें चेयरमैन बना देगी !




Wednesday, 17 December 2014

हवाई जहाज उड़ाने का NOC अपराधी को !


                                                                 आद. प्रधानमंत्री जी
                                                                        भारत सरकार
                                                                          नई दिल्ली
विषय : न्यूज़ चैनल के इनामी बदमाश मालिक को हवाई जहाज उड़ाने का NOC कैसे मिला !

महोदय,

इलेक्ट्रानिक मीडिया की चकाचौध से नए मंत्री खुद को अलग नहीं कर पा रहे हैं। इस चक्कर में वे ऐसे काम को अंजाम दे रहे है जो आने वाले समय में काफी खतरनाक साबित होने वाला है। प्रधानमंत्री जी आपको पता है कि पांच - सात बड़े चैनल को अगर अलग कर दिया जाए तो बाकी के चैनल के संचालन का मकसद सिर्फ एक है। मसलन चैनल की आड़ में मालिक का गोरखधंधा चलता रहे। अब देखिए एक चैनल का संचानल चिट फंड का गोरखधंधा संचालित करने वाला एक व्यक्ति कर रहा है। इसने चिट फंड का काम करने वालों को भी चैनल का पहचान पत्र दे रखा है। इसी पहचान पत्र की आड में तमाम गरीबों को लूटा जा रहा है। लोकसभा चुनाव के दौरान एक व्यक्ति पटना एयरपोर्ट पर लाखों रूपये के साथ पकड़ा गया । पुलिस ने पूछताछ शुरू की तो पकडे गया आदमी चैनल की धौंस देने लगा, लेकिन पटना पुलिस ने उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया और पकड़ी गई रकम कोर्ट के सामने पेश कर दिया।
चैनल का संचालन करने वाले इसी आदमी के खिलाफ मध्यप्रदेश के ग्वालियर में धारा 420 यानि धोखाधड़ी का मामला दर्ज है। काफी तलाश के बाद भी जब पुलिस इसे गिरप्तार नहीं कर पाई तो वहां कि पुलिस ने चैनल के इस मालिक को भगोड़ा घोषित कर दिया। भगोडा घोषित करने के बाद भी जब ये पुलिस के हत्थे नहीं लगा तो वहां कि पुलिस ने इस पर ईनाम घोषित कर दिया। अब ये दो हजार रुपये का ईनामी बदमाश घोषित है। वैसे तो ग्वालियर पुलिस ने कई बार इसके घर और आफिस में इसकी गिरफ्तारी के लिए टीमें भेजी हैं, पर सच्चाई ये है कि पुलिस का ही इसे संरक्षण हासिल है। क्योंकि चैनल का मालिक खुलेआम विभिन्न कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है, पुलिस इसे वाकई गिरफ्तार करना चाहती तो कब का गिरफ्तार कर चुकी होती। बहरहाल कई राज्यों ने इसके गोरखधंधे को समझ लिया है और इसकी सहयोगी संस्थाओं के सभी आफिसों पर ताला लगवा दिया है।
प्रधानमंत्री जी, चैनल के संपादक को मालिक की तरफ से तरह - तरह के फरमान सुनाए जाते हैं। ऐसे में बेचारे मूर्ख और बीमार संपादक के सामने दो ही विकल्प होता है, पहला ये कि वो आंख मूंद कर मालिक के गोरखधंधे को अंजाम देता रहे, दूसरा काम करने से मना करके घर बैठ जाए। (नोट : घर बैठने पर तो संपादक की पत्नी ही जान निकाल देगी, क्योंकि ये कंपनी संपादक की पत्नी को मंहगी साड़ियों का गिफ्ट देकर उनकी आदत बिगाड़ चुके होते है। इसलिए परिवार वाले भी संपादक से कहीं ज्यादा मालिक का कहना मानते हैं) लिहाजा संपादक ऐसे मालिकों की उंगली के इशारे पर नाचता रहता है।
प्रधानमंत्री जी मुझे याद है लोकसभा चुनाव के बीच में ही इस मूर्ख संपादक ने चैनल ज्वाइन किया था। इसे कत्तई भरोसा नहीं था कि देश में आपके नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने वाली है। मीटिंग के दौरान ये सरेआम बीजेपी और खासकर आपके लिए आपत्तिजनक टिप्पणी किया करता था। इसे लग रहा था कि जोड़ तोड करके किसी तरह कांग्रेस की ही सरकार बनने वाली है, इसलिए कांग्रेस बीट रिपोर्टर के साथ तमाम कांग्रेस नेताओं के यहां चक्कर लगाया करता था। आफिस की मीटिंग मे दावा करता था कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में ज्यादातर वो बातें शामिल हैं जो उसने कांग्रेस नेताओं को बताई हैं। बहरहाल चुनाव के रिजल्ट के बाद इसका माथा ठनक गया।
बहरहाल मालिक ने एक दिन संपादक को चैंबर में बुलाया और साफ-साफ कह दिया कि मुझे दिल्ली में एक गोष्ठी करनी है और इसमें बीजेपी के सभी कद्दावर नेता और मंत्री की मौजूदगी जरूरी है। मूर्ख संपादक को मौका मिल गया, इसने झट से कहाकि बीजेपी के सांसद और मंत्री कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पैसे की डिमांड कर रहे हैं। जानकार तो यहां तक बता रहे हैं कि पांच मंत्री और आधा दर्जन सांसद के नाम पर लगभग 45 लाख रुपये इस संपादक ने कंपनी से वसूल भी लिया। ये अलग बात है कि सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री की मौत हो जाने से ये कार्यक्रम नहीं हो पाया । खैर ये बातें पुरानी हो गई..
प्रधानमंत्री जी, अब मैं पत्र लिखने का मकसद साफ कर दूं। दरअसल अब चिट फंड कारोबारी चैनल का मालिक हवाई जहाज में उडने का दांव चल रहा है। इसके लिए उसने चैनल के संपादक समेत सभी कर्मचारियों को लगा रखा है और कहा है कि मुझे 15 दिन के भीतर नागरिक उड्डयन मंत्रालय से एनओसी और डीजीसीए से लाइसेंस चाहिए। बेचारे डाक्टर साहब आपके मंत्रिमंडल में नए नए मंत्री बने हैं। चर्चा है कि मूर्ख संपादक के दवाब में आ गए और उन्होंने आनन फानन में एनओसी की प्रक्रिया पूरी करा दी। वैसे सच तो वही लोग जानें, लेकिन कहा जा रहा है कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने कोई पैसा नहीं लिया, लेकिन जो लोग इस एनओसी में लगे हुए थे, वहां 25 लाख रुपये को लेकर जरूर मारामारी की खबर आ रही है।
प्रधानमंत्री जी नागरिक उड्डयन मंत्री जरूरत से ज्यादा शरीफ हैं, तमाम पत्रकारों को वो व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, अस्वस्थ पत्रकारों को निशुल्क इलाज तक देते रहे हैं। इसलिए सभी पत्रकारों की उन तक बहुत आसानी से पहुंच है। उनके सीधेपन का कुछ लोग नाजायज फायदा उठाने में लगे हैं। इसलिए इस एनओसी की एक बार फिर से समीक्षा की जानी चाहिए। देखा जाना चाहिए कि जिस व्यक्ति, संस्था, या समूह को ये एनओसी दी जा रही है वो आखिर हैं कौन ? उनके खिलाफ देश में कितनी जगह अपराध पंजीकृत है, इस व्यक्ति का गोरखधंधा और पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या है ? प्रधानमंत्री जी मूर्ख संपादक तो कल को अलग हो जाएगा, लेकिन एक बार इसके चक्कर में कुछ भी गलत हो गया तो लोग सरकार को ही कटघरे में खड़ा करेंगे।
प्रधानमंत्री जी सूचना प्रसारण मंत्रालय को भी सख्त हिदायत देने की जरूरत है कि एक बार वो चैनल के मालिकों के बारे में गंभीरता से छानबीन करके पूरी रिपोर्ट इकट्ठा कर लें, ये भी देखे कि चैनल को किस पैसे से संचालिय किया जा रहा है। अभी के लिए इतना ही बाकी फिर ....


आभार 

आपका 
महेन्द्र

Tuesday, 2 December 2014

पुलिस का भगोडा बना चैनल का डायरेक्टर !

ज मीडिया के लिए बड़ा दिन है, पहली बार ऐसा होगा कि किसी न्यूज चैनल के कार्यक्रम में महामहिम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री एक साथ शामिल हो रहे हैं। दरअसल इंडिया टीवी के खास कार्यक्रम "आप की अदालत" ने शानदार 21 साल पूरे किए है, इसी दिन को यादगार बनाने के लिए INDIA TV ने एक भव्य समारोह का आयोजन किया है। अब इस आयोजन में जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत केंद्र सरकार के एक दर्जन से ज्यादा मंत्री हिस्सा ले रहे हैं तो जाहिर है यहां मीडिया पर बात होगी, हो भी क्यों ना ! होनी ही चाहिए। कई बार सरकार की तरफ से मीडिया को नसीहत दी जाती है कि वो जिम्मेदार बने ! मुझे तो इसमें कोई बुराई नहीं लगती मीडिया को जिम्मेदार होना ही चाहिए।

पर बड़ा सवाल ये कि सूचना प्रसारण मंत्रालय की भी कोई जवाबदेही है या नहीं ? माननीय राष्ट्रपति जी और प्रधानमंत्री जी चूंकि आज की शाम मीडिया के बीच होंगे इसलिए एक सवाल करना चाहता हूं ? प्रधानमंत्री जी एक पत्रकार और प्रबंधन में सूचना प्रसारण मंत्रालय कितना भेद-भाव करता है ? क्या आपको इसकी जानकारी है? मैं जानता हूं कि आपको नहीं होगी, क्योंकि आपने इस मंत्रालय को गंभीरता से लिया ही नहीं। यही वजह है कि केंद्र कि ये पहली सरकार है जिसने सूचना प्रसारण मंत्रालय को फुल टाइम मंत्री तक नहीं दिया है।

आपको पता है एक पत्रकार जब प्रेस इन्फार्मेशन ब्यूरो यानि पीआईबी की मान्यता लेने के लिए आवेदन करता है तो उसकी महीनों पुलिस जांच होती है। मसलन दिल्ली में जहां वो रहता है, उस थाने से पुलिस की रिपोर्ट ली जाती है, पत्रकार स्थाई रूप से जहां का निवासी है, वहां से पुलिस की रिपोर्ट मंगाई जाती है। मतलब एक कठिन प्रक्रिया से गुजरने के बाद पत्रकार को पीआईबी की मान्यता मिल पाती है, लेकिन प्रधानमंत्री जी चैनल का डायरेक्टर बनने के लिए आपका मंत्रालय आंख मूंद लेता है, सारे नियम कायदे कीमती गिफ्ट के नीचे दब कर दम तोड़ देते हैं। इस मामले की पूरी जांच हो तो कई ऐसे मामले खुलेंगे, लेकिन एक मसले की जानकारी मैं आपको देता हूं।

मध्यप्रदेश में आपकी ही पार्टी यानि बीजेपी की सरकार है। वहां ग्वालियर की पुलिस ने एक घपलेबाज को ईनामी बदमाश घोषित कर रखा है। यानि इसकी खोज खबर देने वाले  को पुलिस की ओर से 2000 रुपये का ईनाम दिया जाएगा। इस आदमी पर अन्य तमाम गंभीर धाराओं के अलावा धोखाधड़ी यानि 420 का अपराध भी पंजीकृत है। ये अलग बात  है कि एमपी की पुलिस इसे गिरफ्तार करना ही नहीं चाहती ? वरना वो अब तक गिरफ्तार कर चुकी होती। बहरहाल पुलिस से बचने और उस पर रौब गांठने के लिए इस ईनामी बदमाश ने किसी की सलाह पर दिल्ली में एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल खरीद लिया। अब ये पैसे और चैनल की आड़ में सरकार को फिरंगी की तरह नचा रहा है।

मोदी जी ! हैरानी की बात तो ये है कि जिस कांग्रेस को आप पानी पी-पी कर भ्रष्ट बताते रहे हैं, उस कांग्रेस की सरकार ने इस ईनामी बदमाश को चैनल का डायरेक्टर बनने नहीं दिया। फाइल सालों से इधर उधर घूमती रही, लेकिन किसी मनमोहन की सरकार में कोई इसे डायरेक्टर बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। पर आपकी यानि बीजेपी की सरकार बनते ही ये अपराधी - भगोड़ा एक राष्ट्रीय चैनल का डायरेक्टर बन गया। चैनल का डायरेक्टर बनने के पीछे क्या डील हुई ? ये तो जांच का विषय है, लेकिन कहा ये जा रहा है कि जिस शहर का ये रहने वाला है, पहले सूचना प्रसारण मंत्रालय जिस मंत्री के पास था वो भी उसी शहर के निवासी रहे है। वैसे हो सकता है कि मंत्री को पता भी न हो और नीचे के अफसरों ने पूरा खेल कर दिया हो।

बहरहाल ये तो जांच का विषय है, लेकिन जब सरकार के मंत्री मीडिया को जिम्मेदार बनने की नसीहत देते हैं, तब मन में एक ही सवाल उठता है कि क्या मंत्रियों को शर्म नहीं आती ? मैं फिर आपको बताना चाहता हूं कि बहुत जरूरी है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय को फुल टाइम मंत्री दिया जाए, जिससे कोई अपराधी, भगोडा अय्याश किसी राष्ट्रीय चैनल का डायरेक्टर ना बन पाए, उसकी सही जगह जहां उसे रहना चाहिए यानि जेलने का इंतजाम किया जाना चाहिए। मैं इंडिया टीवी के कार्यक्रम के सफल होने की कामना करता हूं, मुझे उम्मीद है कि ऐसे मसलों पर प्रधानमंत्री गंभीर होंगे।




    

Saturday, 15 November 2014

पत्रकार हैं, रुकिए प्लीज ! खबर आपकी ...

हां अगर आप पत्रकार हैं या पत्रकार बनने जा रहे हैं तो फेसबुक का ये पेज आपके लिए ही है। दरअसल ये हमारी नई संस्था " मैं हूं ना वेलफेयर सोसाइटी " समाज सेवा के और कार्यों के साथ ही अपने पत्रकार मित्रों के लिए भी संवेदनशील है। आज महसूस किया जा रहा है कि शहरी एवं ग्रामीण अंचलों में वैतनिक और अवैतनिक पत्रकारों के साथ लगातार दिल्ली, लखनऊ के बड़े पत्रकारों के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू की जाए, जिससे पत्रकारों को लाभ होगा। इसके लिए राज्य स्तर, जिला स्तर, तहसील स्तर, शहर और ब्लाक स्तर पर पत्रकारों के लिए प्रशिक्षण और कार्यशाला का आयोजन किया जाएगा। इस पेज का  लिंक  ( https://www.facebook.com/profile.php? id=100006311055350 ) है। 

पत्रकार साथी अन्यथा नहीं लेगें, पर राज्य और जिला स्तर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया की कार्यशाला लगाना हम बेहद जरूरी मानते है। कोशिश होगी कि इस कार्यशाला में इलेक्ट्रानिक  मीडिया के बड़े संस्थानों के संपादक और वरिष्ठ पत्रकारों को कार्यशाला में शामिल किया जाए, इस कार्यशाला के जरिए कोशिश होगी कि पत्रकारों में संवेदनशीलता के साथ ही उन्हें समाज के प्रति और जिम्मेदार तथा जवाबदेह बनाया जाए, जिससे लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ ज्यादा मजबूत हो। पत्रकारों की इच्छा होती है कि उन्हें युद्ध, नक्सली हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान रिपोर्टिंग की चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी मिले। इसके लिए विशेषज्ञ पत्रकारों के जरिए युद्ध, हिंसा, नक्सली हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा के दौरान रिपोर्टिंग में बरती जाने वाली सावधानियों पर पत्रकारों को विशेष जानकारी देने की कोशिश की जाएगी।

अक्सर देखा गया है कि पत्रकार बनने के लिए राज्य के विश्वविद्यालयों और निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों जहां पत्रकारिता के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं, बड़ी संख्या में छात्र छात्राएं प्रवेश लेते हैं, लेकिन उन्हें यहां सिर्फ किताबी ज्ञान ही मिलता है। ऐसे में जब वो पत्रकारिता में आते हैं तो काफी परेशानी होती है। इंटर्नशिप के दौरान कुछ ही बच्चों को अच्छे मीडिया संस्थान में अवसर मिल पाता है, इसलिए बाकी बच्चे पिछड़ जाते हैं। इसके लिए कोशिश होगी कि विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में खास कार्यशाला का आयोजन कर उन्हें व्यवहारिक पत्रकारिता के बारे में विस्तार से जानकारी दी जाए।

आखिर में पत्रकारों से संबंधित एक बात और .... जिला, तहसील, ब्लाक स्तर के पत्रकारों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निराकरण के लिए ठोस प्रयास किया जाएगा। किसी तरह की दुर्घटना में घायल पत्रकारों की सहायता करने के मकसद से जरूरतमंद पत्रकारों को दुर्घटना बीमा की सुविधा मुहैया कराई जाएगी।



नोट : यदि आप पत्रकार हैं, पत्रकारिता का कोर्स कर रहे हैं या फिर पत्रकारिता में किसी तरह की रुचि रखते हैं और आपके  पास कोई सुझाव है तो आप यहां शामिल कर सकते हैं। हमारी कोशिश होगी कि हम आपके सुझाओं पर आगे बढ़ सकें। 


Tuesday, 22 July 2014

मूर्ख संपादक : ये पब्लिक है, सब जानती है !

कल में अकल की बहुत जरूरत होती है, शायद ये बात इस मूर्ख संपादक को नहीं पता है, यही वजह है कि हर बार नकल के चक्कर में मारा जाता है। अब देखिए पहले ये न्यूज 24  के पूर्व मैनेजिंग एडिटर की एंकरिंग की नकल करने के चक्कर में अपने ही एंकर और रिपोर्टर से आँन एयर उलझ गया, बेचारे एंकर और रिपोर्टर ने किसी तरह अपनी और चैनल की इज्जत बचाई ! इस दौरान न्यूज रूम में मौजूद एक गेस्ट पत्रकार ने तो संपादक के व्यवहार पर आँन एयर आपत्ति भी की, लेकिन कहते हैं ना कि नंगों पर किसी बात का कोई असर नहीं होता।

अब नकल का दूसरा किस्सा : दूसरा किस्सा मुजफ्फरनगर दंगो से जुडा है। मुजफ्फरनगर में 2013 के दंगों में खुशी की पूंजी गंवा बैठीं बेघर औरतों को फिर से बसाने के लिए यहां शाहपुर के दंगा राहत शिविर में सामूहिक निकाह कराए गए। दंगों और दंगा पीडितों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए यूपी की सरकार ने सामूहिक शादी में निकाह करने वालीं दुल्हनों को एक-एक लाख का चेक दिया। सरकार की इस पहल का सभी ने स्वागत किया। जमीयत उल हिंद ने भी दुल्हनों को गृहस्थी संवारने के लिए 10 हज़ार रूपए के घरेलू सामानों का तोहफा दिया।

अब शाहपुर की ही तर्ज पर बाकी दंगा पीड़ित कैंपो में भी सामूहिक निकाह होने लगे। मगर आत्मा को भीतर तक झकझोर देने वाली एक हकीकत ये है कि ज्यादातर निकाह-दो रूहों का रिश्ता नहीं बल्कि एक लाख के चेक का सौदा बन कर रह गया। कहा जा रहा है कि सरकार से रकम ऐंठने के चक्कर में तमाम लड़कियों को बहला - फुसला कर उनका निकाह कराया जा रहा है, चेक  मिलते ही ये शादी टूट जा रही है। कुल मिलाकर ये कहूं कि ये शादी नहीं बस एक लाख रुपये हथियाने का हथियार भर बन गया है,  इससे तमाम लड़कियों की मुश्किल और बढ़ गई है।

मूर्ख संपादक की करतूत : IBN 7 न्यूज चैनल ने 4 जुलाई को ही स्पेशल रिपोर्ट के तहत आधे घंटे की ये खास स्टोरी चलाई। अब इसी स्पेशल  रिपोर्ट की  नकल कर रहा है ये मूर्ख संपादक !  मैने कहा ना कि नकल में अकल की बहुत जरूरत है, अब इसके पास अकल हो तब ना। ये दिमाग से इतना दिवालिया हो चुका है कि जिस नाम " दंगों की दुल्हन " से स्टोरी IBN 7 ने चलाई, ये नाम भी नहीं बदल पाया और उसी नाम से स्टोरी चला रहा है। मूर्ख इसे EXCLUSIVE बता रहा है। सच में मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि टीवी चैनल का ये मूर्ख संपादक किसे बेवकूफ बना रहा है। पब्लिक को तो बना नहीं सकता, क्योंकि " ये पब्लिक है, सब जानती है " जाहिर है चैनल के मालिक को ही मूर्ख समझ रहा होगा ? तभी तो उन्हें लगातार बता रहा है कि ये स्टोरी जरूर देखिए, यहां तक की मालिकों के दाएं बाएं रहने वाले लोग स्टूडियो में बैठकर खबर देख रहे हैं ! मैं चाहता हूं कि पहले आप YOUTUBE पर इस लिंक को देंखें, फिर मूर्ख संपादक की  अकल के बारे में अपनी  राय बनाएं कि क्या नकल ऐसे की जाती है ?

https://www.youtube.com/watch?v=ZJRCkX4j2Hk