मैच के पहले ...
मैच के बाद ...
दोनों खबरें अलग अलग हैं मगर अखबार एक ही है। ये महज एक खबर नहीं है, सच तो ये है कि ऐसी खबरें अखबार और संपादक का चरित्र बताती है। चलिए खबर का थोडा रेफरेंस भी बता दूं, 14 अक्टूबर को इंदौर में चार साल बाद क्रिकेट का कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच हो रहा था, इसके टिकट के लिए काफी मारामारी थी। आलम ये था कि 11अक्टूबर यानि रविवार को बैंक से टिकट मिलने थे, लेकिन पगलाए क्रिकेटप्रेमी शनिवार को ही दोपहर से लाइन में लग गए । इन बेचारों ने पूरी रात सड़क पर काट दी, सुबह हुआ तो भीड़ और बढ़ गई, बेचारे पुलिस की लाठियां तक खाई फिर भी टिकट के लिए जद्दोजहद करते रहे, इसके बाद भी टिकट नहीं मिला। फिर मैच के दो दिन पहले जब इंदौर के एक बडे अखबार में पहले पेज पर खबर छपी " आखिर टिकट गए कहां " तो लोगों को लगा कि अखबार ने जिम्मेदारी निभाई और कम से कम आम जनता की बात को इस अखबार ने रखा, लेकिन मैच के दो दिन बाद दूसरी खबर छपी " वन डे की जीत ने टिकटों की मारामारी को भुला दिया " तब सवाल उठा संपादक जी पर ! अगर हम कहें कि सिर्फ सवाल उठा तो गलत होगा, सही मायने में उंगली उठी संपादक जी पर .... ।
संपादक जी, आपकी जानकारी गलत है, टिकटों की मारामारी को जनता ने नहीं भुला दिया, आपने भुला दिया। आपने क्यों भुला दिया, ये आप बेहतर जानते हैं, हम तो इतना जानते हैं कि आपको मैच के एक दिन पहले देर रात में पास मिल गए थे। वैसे संपादक जी आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि पास तो कुछ और संपादकों को भी भेजे गए थे, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। कुछेक संपादक तो रिपोर्टर वाला पास ही गले लटकाए मुंह निपोरते हए स्टेडियम में मौजूद थे। संपादक जी, समझ में नहीं आ रहा कि आप टिकटों की मारामारी कैसे भूल गए ? अखबार ही ध्यान से पढ़ लीजिए तो पता चल जाएगा कि लोग भूले या नहीं । श्रीनगर से मैच देखने आए लोग इंदौर में धक्के खाते रहे टिकट नहीं मिला, वो मायूस होकर लौट गए और आप कह रहे हैं कि वो सब भूल गए ? वाराणसी से दस लोगों की टीम यहां दो दिन तक धक्के खाती रही, आखिर तक मैच नहीं देख पाए, वो भी भूल गए ? बैंक के सामने 24 घंटे से भी ज्यादा समय तक लोग लाइन में लगे और फिर भी टिकट हाथ नहीं लगा, इंदौर की वो आम जनता टिकट की मारामारी को भूल गई ? संपादक जी टिकट की मारामारी सिर्फ आप भूल गए, फिर इस बात जोर देकर कह रहा हूं कि आप ही भूल गएं । क्यों भूल गए ? इसके लिए मुझे मजबूरी में मुझे कुछ कांग्रेस नेताओं का नाम लेना पडेगा और मैं बेवजह उन्हें अपने लेख में जगह देना नहीं चाहता।
जिस तरह के हालात आपने बना दिए हैं, उससे तो मन तो होता है कि मौका है अभी ही इंदौर की कुछ टाउनशिप की बात भी करूं, मन तो ये भी है कि तुलसीनगर के पूरे मसले को तार-तार कर दूं। कुछ और बडे बडे मामलों की चर्चा करूं, फिर लगता है कि नहीं, उसकी चर्चा सही वक्त आने पर की जाएगी। मुझे तो इंदौर में आए सिर्फ छह महीने हुए हैं, लेकिन दिल्ली, यूपी और पूर्वोत्तर भारत की २५ साल की पत्रकारिता पर ये छह महीने का अनुभव भारी है। दिल्ली में रहने के दौरान जब कभी भी खराब राज्य की बात होती तो लोग यूपी और बिहार की ओर देखने लगते हैं, खराब प्रशासनिक अधिकारियों की बात हो तो भी लोग यूपी और बिहार की तरफ देखते हैं, खराब कानून व्यवस्था की बात हो फिर यूपी बिहार का जिक्र होता है। इतना ही नहीं जब पत्रकारिता में भ्रष्टाचार की बात हो तो भी यही राज्य सामने आते हैं। लेकिन इंदौर ने मेरी जानकारी में इजाफा किया है। मैं यूपी बिहार को मध्यप्रदेश के मुकाबले कई गुना बेहतर मानता हूं। वहां के अफसर कितने भी दबाव में हों लेकिन अस्पताल में घायल पड़े गरीब, लाचार मजदूर का लिवर, किडनी और आंखें नहीं निकलवा सकते, यहां के अधिकारी ने ये किया। वहां भ्रष्टाचार में बडे से बड़ा नेता मंत्री जेल जाता है, यहां व्यापम मामले में अब तक ४२ लोगों की रहस्यमय तरीके से मौत हो चुकी है, फिर भी नेता अफसर सब ताल ठोंक रहे हैं। पत्रकारों की बात करें तो पाएंगे कि पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को बनाए रखने के लिए यूपी - बिहार के पत्रकारों ने अपनी जान दे दी। आए दिन इन दोनों राज्यों से पत्रकारों की हत्या की खबरें मिलती है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वहां पत्रकारिता की आड में बेईमानी नहीं होती, पर ये दावा जरूर करूंगा कि जो कुछ यहां देखने को मिल रहा है, उसके मुकाबले वहां १० प्रतिशत भी पत्रकार बेईमान नहीं हैं।
वैसे आज सूबे की सियासत की बात छोड़ देते हैं, आम आदमी की जान ले लेने वाले अफसर की भी बात नहीं करूंगा। आज सिर्फ अपने पेशे के भीतर झांकने की कोशिश करूंगा। यहां पत्रकारिता में भ्रष्टाचार का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इंदौर से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार में पहले पेज पर पत्रकारों की बेईमानी की खबर इस पेज की लीड खबर बनती है। इतना ही नहीं १० दिन से ये खबर नए तथ्यों के साथ पहले पेज पर बरकरार है। हालाकि अब इन पत्रकारों के मामले में बकायदा रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है, पुलिस अपना काम कर रही है। अखबार की खबर में भी यही तथ्य हैं कि जिनके खिलाफ मामला दर्ज है या फिर जो पकडे गए हैं ये तो महज प्यादे हैं, इनका बाँस बोले तो शाकाल कोई और है। मेरे ख्याल से तो इस शाकाल को पकड़ना कम से कम मध्य प्रदेश की पुलिस के लिए ना सिर्फ मुश्किल है बल्कि नामुमकिन है। अच्छा सच तो ये है कि पुलिस जिसे शाकाल समझ रही है वो शाकाल की शक्ल में बहुरुपिए है। बडे वाले तक तो न पुलिस पहुंचने की कोशिश कर रही है और न ही पहुंचना चाहती है।
मैच के बाद ...
दोनों खबरें अलग अलग हैं मगर अखबार एक ही है। ये महज एक खबर नहीं है, सच तो ये है कि ऐसी खबरें अखबार और संपादक का चरित्र बताती है। चलिए खबर का थोडा रेफरेंस भी बता दूं, 14 अक्टूबर को इंदौर में चार साल बाद क्रिकेट का कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच हो रहा था, इसके टिकट के लिए काफी मारामारी थी। आलम ये था कि 11अक्टूबर यानि रविवार को बैंक से टिकट मिलने थे, लेकिन पगलाए क्रिकेटप्रेमी शनिवार को ही दोपहर से लाइन में लग गए । इन बेचारों ने पूरी रात सड़क पर काट दी, सुबह हुआ तो भीड़ और बढ़ गई, बेचारे पुलिस की लाठियां तक खाई फिर भी टिकट के लिए जद्दोजहद करते रहे, इसके बाद भी टिकट नहीं मिला। फिर मैच के दो दिन पहले जब इंदौर के एक बडे अखबार में पहले पेज पर खबर छपी " आखिर टिकट गए कहां " तो लोगों को लगा कि अखबार ने जिम्मेदारी निभाई और कम से कम आम जनता की बात को इस अखबार ने रखा, लेकिन मैच के दो दिन बाद दूसरी खबर छपी " वन डे की जीत ने टिकटों की मारामारी को भुला दिया " तब सवाल उठा संपादक जी पर ! अगर हम कहें कि सिर्फ सवाल उठा तो गलत होगा, सही मायने में उंगली उठी संपादक जी पर .... ।
संपादक जी, आपकी जानकारी गलत है, टिकटों की मारामारी को जनता ने नहीं भुला दिया, आपने भुला दिया। आपने क्यों भुला दिया, ये आप बेहतर जानते हैं, हम तो इतना जानते हैं कि आपको मैच के एक दिन पहले देर रात में पास मिल गए थे। वैसे संपादक जी आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि पास तो कुछ और संपादकों को भी भेजे गए थे, लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। कुछेक संपादक तो रिपोर्टर वाला पास ही गले लटकाए मुंह निपोरते हए स्टेडियम में मौजूद थे। संपादक जी, समझ में नहीं आ रहा कि आप टिकटों की मारामारी कैसे भूल गए ? अखबार ही ध्यान से पढ़ लीजिए तो पता चल जाएगा कि लोग भूले या नहीं । श्रीनगर से मैच देखने आए लोग इंदौर में धक्के खाते रहे टिकट नहीं मिला, वो मायूस होकर लौट गए और आप कह रहे हैं कि वो सब भूल गए ? वाराणसी से दस लोगों की टीम यहां दो दिन तक धक्के खाती रही, आखिर तक मैच नहीं देख पाए, वो भी भूल गए ? बैंक के सामने 24 घंटे से भी ज्यादा समय तक लोग लाइन में लगे और फिर भी टिकट हाथ नहीं लगा, इंदौर की वो आम जनता टिकट की मारामारी को भूल गई ? संपादक जी टिकट की मारामारी सिर्फ आप भूल गए, फिर इस बात जोर देकर कह रहा हूं कि आप ही भूल गएं । क्यों भूल गए ? इसके लिए मुझे मजबूरी में मुझे कुछ कांग्रेस नेताओं का नाम लेना पडेगा और मैं बेवजह उन्हें अपने लेख में जगह देना नहीं चाहता।
जिस तरह के हालात आपने बना दिए हैं, उससे तो मन तो होता है कि मौका है अभी ही इंदौर की कुछ टाउनशिप की बात भी करूं, मन तो ये भी है कि तुलसीनगर के पूरे मसले को तार-तार कर दूं। कुछ और बडे बडे मामलों की चर्चा करूं, फिर लगता है कि नहीं, उसकी चर्चा सही वक्त आने पर की जाएगी। मुझे तो इंदौर में आए सिर्फ छह महीने हुए हैं, लेकिन दिल्ली, यूपी और पूर्वोत्तर भारत की २५ साल की पत्रकारिता पर ये छह महीने का अनुभव भारी है। दिल्ली में रहने के दौरान जब कभी भी खराब राज्य की बात होती तो लोग यूपी और बिहार की ओर देखने लगते हैं, खराब प्रशासनिक अधिकारियों की बात हो तो भी लोग यूपी और बिहार की तरफ देखते हैं, खराब कानून व्यवस्था की बात हो फिर यूपी बिहार का जिक्र होता है। इतना ही नहीं जब पत्रकारिता में भ्रष्टाचार की बात हो तो भी यही राज्य सामने आते हैं। लेकिन इंदौर ने मेरी जानकारी में इजाफा किया है। मैं यूपी बिहार को मध्यप्रदेश के मुकाबले कई गुना बेहतर मानता हूं। वहां के अफसर कितने भी दबाव में हों लेकिन अस्पताल में घायल पड़े गरीब, लाचार मजदूर का लिवर, किडनी और आंखें नहीं निकलवा सकते, यहां के अधिकारी ने ये किया। वहां भ्रष्टाचार में बडे से बड़ा नेता मंत्री जेल जाता है, यहां व्यापम मामले में अब तक ४२ लोगों की रहस्यमय तरीके से मौत हो चुकी है, फिर भी नेता अफसर सब ताल ठोंक रहे हैं। पत्रकारों की बात करें तो पाएंगे कि पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को बनाए रखने के लिए यूपी - बिहार के पत्रकारों ने अपनी जान दे दी। आए दिन इन दोनों राज्यों से पत्रकारों की हत्या की खबरें मिलती है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वहां पत्रकारिता की आड में बेईमानी नहीं होती, पर ये दावा जरूर करूंगा कि जो कुछ यहां देखने को मिल रहा है, उसके मुकाबले वहां १० प्रतिशत भी पत्रकार बेईमान नहीं हैं।
वैसे आज सूबे की सियासत की बात छोड़ देते हैं, आम आदमी की जान ले लेने वाले अफसर की भी बात नहीं करूंगा। आज सिर्फ अपने पेशे के भीतर झांकने की कोशिश करूंगा। यहां पत्रकारिता में भ्रष्टाचार का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इंदौर से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार में पहले पेज पर पत्रकारों की बेईमानी की खबर इस पेज की लीड खबर बनती है। इतना ही नहीं १० दिन से ये खबर नए तथ्यों के साथ पहले पेज पर बरकरार है। हालाकि अब इन पत्रकारों के मामले में बकायदा रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है, पुलिस अपना काम कर रही है। अखबार की खबर में भी यही तथ्य हैं कि जिनके खिलाफ मामला दर्ज है या फिर जो पकडे गए हैं ये तो महज प्यादे हैं, इनका बाँस बोले तो शाकाल कोई और है। मेरे ख्याल से तो इस शाकाल को पकड़ना कम से कम मध्य प्रदेश की पुलिस के लिए ना सिर्फ मुश्किल है बल्कि नामुमकिन है। अच्छा सच तो ये है कि पुलिस जिसे शाकाल समझ रही है वो शाकाल की शक्ल में बहुरुपिए है। बडे वाले तक तो न पुलिस पहुंचने की कोशिश कर रही है और न ही पहुंचना चाहती है।