Friday 29 May 2015

इंदौर : तालीबानी पुलिस या पत्रकारिता

दिल्ली की पत्रकारिता का बुरा हाल है,  कुछ समय तक मैं खुद दिल्ली में इलेक्ट्रानिक मीडिया के एक बड़े ग्रुप का हिस्सा रहा हूं । अनुभव के आधार पर एक बात बताता हूं, आपको लगता है होगा कि चैनल पर क्या खबर चलेगी और क्या नहीं ये चैनल के संपादक तय करते होगे, पर ऐसा नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में वीजुअल अपना स्थान बनाती हैं।

सच बताऊं इलेक्ट्रानिक मीडिया अब बताने की नहीं भोकने की पत्रकारिता होती जा रही है। २९ मई यानि शुक्रवार को सुबह से आज तक, एबीपी और इंडिया टीवी समेत कुछ और चैनलों ने शोर मचाना शुरू किया " इंदौर में तालिबानी पुलिस " अब तालिबानी पुलिस क्यों, कहा पुलिस गुंडों को सड़क पर सरेआम पुलिस पीट रही है। आखिर गुंडों को इस तरह पीटने का अधिकार पुलिस को किसने दे दिया ?

अब देखिए लाठी चलाती पुलिस के विजुअल में फुल एक्शन है, ड्रामा है, इंटरटेनमेंट है और इमोशन भी है। ऐसे में संपादक का दिमाग गया तेल लेने। संपादक के दो एक चंपू हर आर्गनाइजेशन में होते हैं, वो बताते हैं कि सर कमाल का विजुअल है, " खेल " जाते हैं। टीवी में खबर चलाने को खेलना कहा जाता है । वैसे भी बुलेटिन में कुछ नहीं है। संपादक ये भी जानने की कोशिश नहीं करता कि अगर पुलिस कोई अभियान चला रही है तो उसकी वजह क्या है ? अचानक यूं ही तो सड़क लाठी भांजेगी नहीं।

बहरहाल अब घटना सुनिए । वैसे तो इंदौर शांत शहर है, यहां कुछ समय पहले रात १२ बजे भी महिलाएं स्कूटी से सड़क पर बिना डर निकलती दिखाई पड़ जाती थीं। लेकिन दो तीन महीने से अलग तरह की वारदात हो रही है। एक दवा जिसे यहां की भाषा में " नाइट्रा " कहा जाता है,  उसे ये सड़क छाप बदमाश शराब और बीयर में मिलाकर पीते हैं। इससे उन्हें तुंरत नशा होता है, फिर शुरू होता है इनका नंगा नाच। ये हाथ में छुरा लेकर बाइक पर निकलते हैं, और जो भी मिलता है उसे छुरा से कट मारते हुए निकल जाते हैं। ये एक बार में कई लोगों को घायल कर देते हैं। इस तरह की घटना पिछले १५ दिन से कहीं ना कहीं जरूर हो रही है।

दिल्ली की घटना थी, इसलिए निर्भया कांड को दिल्ली के चैनलों ने सिर पर उठा लिया, इंदौर के इन्हीं नशेडियों ने सिर्फ तीन दिन पहले रात नौ बजे एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसके साथी के साथ मारपीट की। दिल्ली की मीडिया चुप रही। हफ्ते भर पहले दिन में ही इन गुंडों ने शहर के पाश इलाके विजयनगर में सरेआम एक व्यापारी से उसके दुकान पर मारपीट की और लूटने की कोशिश की,  १५ दिन पहले एक दंपत्ति को इन नशेडियों ने छुरा से घायल कर उनकी कार छीन ली। लगातार अपराधिक घटनाएं यहां हो रही हैं।

पूरा इंदौर इस अपाराधिक घटना से परेशान है, जब पानी सिर के ऊपर हो गया और इंदौर पुलिस के खिलाफ यहां के अखबारों ने बकायदा अभियान चलाना शुरू किया, फिर जाकर पुलिस एक्शन मे आई तो इलेक्ट्रानिक मीडिया भोकने लगी। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ये जानने की भी कोशिश नहीं की कि इँदौर के हालात क्या हैं, क्या वाकई कानून व्यवस्था की हालत इतनी बुरी हो गई है कि पुलिस को सख्त कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ा है।

आम आदमी को छूरा भोंका जा रहा है,  टीवी पत्रकारों की ये खबर तो चैनल पर चल नहीं सकती, इसी खबर को अगर इंदौर का रिपोर्टर ये बताए की पुलिस ने अपराधियों के खिलाफ अभियान तेज किया तो खबर गिर जाएगी। इसलिए मजबूरी में मानवाधिकार की आड़ लेते हुए ये कहना आसान है कि आखिर पुलिस को किसने अधिकार दे दिया कि वो सरेआम गुंडों की पिटाई करें ? अब इस मूर्खता पर क्या बहस करूं ?


पहले ही बताया कि मैं भी कुछ समय पहले इसी मंडली का मेंबर रहा हूं, इसलिए अच्छी तरह जानता हूं कि न्यूजरूम में कैसे खबर चलाई या गिराई जाती है, कैसे खबर पर चढ़ा जाता है और कैसे खेला जाता है। ये सब मैं जानता हूं। लेकिन अब जब इंदौर में हूं और जमीन की सच्चाई देख रहा हूं और टीवी की बकवास भी सुन रहा हूं तो जरूर हैरानी होती है। हैरानी इसलिए भी ज्यादा हुई कि सुबह आज तक पर जब ये खबर मैने देखी तो चैनल के एक वरिष्ठ मित्र को फोन कर हकीकत बताया भी कि सच क्या है और स्थानीय अखबार यहां बढ़ते अपराध के लिए अभियान चलाए हुए थे, इसलिए पुलिस का एक्शन जायज है, लेकिन कोई फायदा नहीं, खबर देर शाम तक चलती रही, बहरहाल जो बिकता है वो दिखता है। पुलिस वालों पर इसलिए मीडिया का असर भी नहीं रहा।










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