टीवी चैनलों पर किसी भी विषय पर बहस के दौरान आज कल एक नई बात देखने को मिल रही है। नेता हों, सामाजिक कार्यकर्ता हों या फिर बुद्धिजीवी जब भी वो किसी विषय पर बहस में शामिल होते हैं, तो वो बहुत ही आत्मविश्वास से पत्रकारों को भी अपने गिरेबां में झांकने की नसीहत देते रहते हैं। शुरू में लगता था कि नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं की चोरी पकड़ी गई है तो जाहिर है ये सवालों का सामना नहीं कर सकते। ऐसे में पत्रकारों को भी कठघरे में खड़ा करके मुद्दे को भटकाने की साजिश कर रहे हैं। पर आजकल जिस तरह पत्रकारों का असली चेहरा सामने आ रहा है, वो निहायत शर्मनाक है। आपको पता ही है कारपोरेट दलाल नीरा राड़िया का जो टेप सामने आया है, उसमें शामिल नाम देखकर तो सच में ऐसा लगा जैसे भरे चौराहे पर मीडिया को नंगा कर दिया गया है। बहरहाल आज चर्चा करूंगा कि कैसे सिर्फ दिल्ली में ही नहीं बल्कि कई और राज्यों बड़ी संख्या में सरकारी आवासों पर पत्रकारों ने कब्जा जमा रखा है। पत्रकार भाई भी ऐसे कि पत्रकारिता छोड़ दी, लेकिन सरकारी आवास छोड़ने को राजी नहीं। बहरहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है, बड़े बड़ों का यहां इलाज हुआ है, अब पत्रकारों का भी हो जाएगा।
आप सबको पता ही है कि टीम अन्ना ने जब दिल्ली में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ सख्त कानून यानि जनलोकपाल के लिए आंदोलन शुरू किया, उस समय मीडिया भी उनके साथ खड़ी हो गई। खबरिया चैनल के एंकर गला फाड़ फाड़ कर भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कानून की वकालत करने लगे। मजेदार तो ये शोर मचाने वालों में उन चैनलों के एंकर तो और जोर से चिल्ला रहे थे जिस संस्थान के वरिष्ठ लोग यानि संपादक स्तर के लोगों का नीरा राडिया की टेप में नाम था। हैरानी की बात तो ये है कि इस सूची में शामिल दूसरे पत्रकार टीवी चैनलों पर शाम को लगने वाली चौपाल में गेस्ट बनकर बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे। सत्ता की दलाली करने वाले जाने माने और बड़े पत्रकारों का असली चेहरा बहुत भयानक है, फिर भी वो ईमानदारी की ऐसी बातें करते हैं, जैसे सुबह सुबह गंगाजल, दूध और शहद से स्नान करके सीधे स्टूडियो पहुंचे हैं। अच्छा दिल्ली में गैंगरेप जैसा घिनौना कृत्य हुआ, इसकी हम सब जितनी भी निंदा करें कम हैं, पर भाई पत्रकारों को आत्ममंथन करना होगा कि आखिर वो इस मामले में कहां खड़े हैं।
देश की जनता को अभी मीडिया से बहुत उम्मीद है और मीडिया ही अगर खोखली हो गई फिर तो यहां कुछ नहीं बचने वाला है। एक वाकया बताता हूं, मैं इलाहाबाद अमर उजाला से 2005 में दिल्ली आया और यहां IBN7 जिसका उस वक्त CHANNEL 7 नाम था, इससे जुड़ गया। यहां मुझे रेल मंत्रालय की बीट दी गई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक सीनियर रेलवे बोर्ड में बड़े पद पर कार्यरत थे। बातचीत के दौरान मैने उनसे कहा कि मुझे उन लोगों के नामों की सूची दीजिए, जो रेलवे से गलत ढंग से पास बनवा लेते हैं और इसका दुरुपयोग करते हैं। वो हसने लगे कि और कहा कि मैं सूची तो दे दूंगा, पर इसमें आपकी बिरादरी के लोगों के नाम भी शामिल हैं। सच बताऊं ये सूची देखकर मैं हैरान रह गया। इसमें न्यूज चैनल आज तक, एनडीटीवी, जी न्यूज, पीटीआई समेत तमाम लोगों के नाम शामिल थे। अच्छा ऐसा भी नहीं कि सूची में छोटे मोटे पत्रकारों के नाम हों, अरे भाई संपादक लोग ऐसा काम कर रहे थे। सच कहूं तो उसी दिन समझ गया था कि दिल्ली दिल वालों की नहीं दलालों की है।
आइये अब ताजा मामला बताते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में सरकारी आवासों पर कई साल से गलत ढंग से कब्जा जमाए पत्रकारों को जमकर फटकार लगाई है। बताया गया है कि पत्रकारों को सरकारी आवास आवंटित किए गए थे, पर तमाम लोग पत्रकारिता छोड़ चुके हैं, लेकिन आवास छोड़ने को तैयार नहीं है। मकान खाली कराने के सारे प्रयास अफसर कर चुके हैं, लेकिन वो मकान खाली नहीं करा पाए तो अपनी खाल बचाने के लिए कोर्ट पहुंच गए। बहरहाल कोर्ट में सुनवाई शुरू हो गई है। कोर्ट ने हैरानी जताई है कि इतनी बड़ी संख्या में सरकारी आवासों पर पत्रकार कैसे कब्जा किए हुए हैं। कोर्ट ने कमेंट भी किया है कि पत्रकारों को लोग महान समझते हैं और उनसे सीख लेते हैं। बहरहाल कोर्ट के आदेश पर मकान तो खाली हो ही जाएगा, लेकिन सवाल ये है कि ये मकान अफसर खाली क्यों नहीं करा पाए ? अच्छा जानकारी की तो पता चला कि सरकारी आवासों पर कब्जा करने में सिर्फ दिल्ली के पत्रकार शामिल नहीं हैं, ये बीमारी संक्रामक रोग की तरह देश भर में फैली हुई है।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में राज्य संपत्ति विभाग ने करीब 53 पत्रकारों को नोटिस जारी किया है. नोटिस में उनसे मकान खाली करने को कहा गया है। अब पत्रकार हैं तो सरकारी चिट्ठी का जवाब क्या देना, वो अफसर से यूं ही बात कर लेंगे। अच्छा अफसर भी भला क्यों बर्रे के छत्ते में हाथ डालें, उन्होंने तो खानापूरी भर के लिए नोटिस दी है। जिन्हें नोटिस भेजा गया है इनमें से कई ऐसे लोग हैं जो पत्रकार नहीं रह गए हैं, किसी अखबार, मैग्जीन या टीवी में कार्यरत नहीं हैं, लखनऊ में रहते भी नहीं हैं. पर इन लोगों से भी सरकार मकान खाली नहीं करा पा रही है। कई पत्रकार तो ऐसे हैं जिन्हें एक या दो साल के लिए मकान आवंटित किया गया था, अवधि पूरी होने के बाद भी वे बिना रिनुवल के मकान में जमे हुए हैं। कुछ लोगों की मान्यता खत्म हो चुकी है पर मकान उन्हीं के कब्जे में है।
मध्यप्रदेश में तो और भी बुरा हाल है। बताया जा रहा है कि यहां पत्रकार मकानों पर तो कब्जा जमाए ही हुए हैं, वो बिजली पानी के बिल का भुगतान भी नहीं कर रहे हैं। तमाम जाने माने पत्रकारों ने सरकारी बंगलों पर अवैध रूप से कब्जा कर रखा है। इन पर किराए का ही 14 करोड़ रुपए बकाया है। अब इस मामले को लेकर एक जनहित याचिका भी हाईकोर्ट की इन्दौर खंडपीठ में दायर की गई है। अच्छा सरकार सख्त हो भी क्यों ना, आपको पता है, भोपाल में अवैध कब्जेदारों और करोड़ो रूपये के सरकारी बकायेदार पत्रकारों की संख्या एक दो नहीं बल्कि 210 है। एक से तीन साल के लिए आवंटित मकानों में कुछ पत्रकार तो पिछले 37 सालों से गलत ढंग से रह रहे हैं। जानकारी के मुताबिक देश में अगर किसी राज्य में सबसे ज्यादा सरकारी मकानों पर पत्रकारों का कब्जा है तो है मध्यप्रदेश।
गुजरात और बिहार में पत्रकारिता दम तोड़ चुकी है। सच कहूं अगर देश में पत्रकारिता का सबसे बुरा हाल कहीं है तो इन्हीं दोनों राज्यों में। इसके लिए जिम्मेदार और कोई नहीं बल्कि खुद पत्रकार है। जो महज छोटे-छोटे हितों के लिए अपनी कलम और जुबान को गिरवी रखे हुए हैं। अच्छा गुजरात में सिर्फ इतना ही नहीं कि पत्रकार खुद नहीं लिखते, बल्कि दिल्ली या कहीं और से पत्रकार वहां जाते हैं तो वो उन्हें मैनेज भी करते हैं। मसलन सरकार की तारीफ में कसीदें पढ़ते रहते हैं। यहां पत्रकारिता में दलाली किस हद तक है, ये देखकर मैं फक्क पड़ गया। बिहार में बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन यहां तो पत्रकारों की हिम्मत नहीं है कि सरकार के खिलाफ कुछ बोल सकें। वो सुविधाभोगी हो चुके हैं, उन्हें लगता है कि चैन से रहो, मीडिया का भगत सिंह बनने की कोई जरूरत नहीं है। आपको याद होगा कि प्रेस काउंसिल के चेयरमैन जस्टिस मार्कडेय काटजू ने बिहार की मीडिया के लिए साफ कह दिया कि यहां पत्रकार आजाद हैं ही नहीं।
धरा बेच देगें, गगन बेच देगें,
नमन बेच देगें, शरम बेच देंगे।
कलम के पुजारी अगर सो गए तो,
वतन के पुजारी वतन बेच देगें।
लेकिन मैं देख रहा हूं कि पत्रकारों के हाथ में जब तक कलम थी, थोड़ा नियंत्रण था उनमें। लेकिन जब से अखबार और चैनल पेपरलेस, पेनलेस हुए और सभी काम कम्प्यूटर पर होने लगा, मीडियाकर्मियों पर भी बाजारवाद हावी हो गया। सच्चाई ये है कि अब पत्रकारों को कोई "कलम का पुजारी" कहता है तो उन्हें ये गाली लगती है। इस्तेमाल करना भले ना जाने, लेकिन पत्रकारों के हाथ में भी 50 - 60 हजार वाले मंहगे फोन, नोट पैट वगैरह देखना आम बात है। पत्रकारों में बढ़ती बेईमानी और भ्रष्ट आचरण के पीछे यही रंग बिरंगी और चकाचौंध वाली दुनिया है, जो उनके धैर्य और ईमानदारी की परीक्षा लेती रहती है और बेचारे पत्रकार इसमें फेल हो जाते हैं।
वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स की रिपोर्ट ने देश की मीडिया को दुनिया भर में शर्मिंदा किया है। रिपोर्ट में साफ किया गया है कि मीडिया की आजादी के मामले में भारत 140 वें स्थान पर है। पहले ये 131 वें नंबर पर था। दरअसल इसके लिए हम यानि मीडिया तो जिम्मेदार है ही, बेईमान सरकार भी कम दोषी नहीं है। ऐसा नहीं है कि माडियाकर्मियों की काली करतूतें शासन प्रशासन की जानकारी में नहीं है, लेकिन वो खुद इतने भ्रष्ट है कि मीडिया पर हाथ डालने की उनकी हिम्मत नहीं होती। यही वजह है कि मीडिया में एक बड़ा तबका भ्रष्ट होता जा रहा है। मीडिया के तमाम संगठन हैं, लेकिन आज तक कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं हो रही है कि आखिर दुनिया में भारतीय मीडिया की जो छीछालेदर हो रही है, इसे कैसा रोका जाए ? देश में भ्रष्ट नेताओं, बेईमान अफसरों और लालची मीडिया का खतरनाक गठजोड़ बनता जा रहा है, जो देश के भविष्य के लिए बहुत भयावह है।
आज कल कलम के नही कंप्यूटर और महंगे फोन के पुजारी होगए है..
ReplyDeleteजी कलम के पुजारी को तो आज के पत्रकार गाली समझने लगे हैं
ReplyDeleteदेश में भ्रष्ट नेताओं, बेईमान अफसरों और लालची मीडिया का खतरनाक गठजोड़ बनता जा रहा है, जो देश के भविष्य के लिए बहुत भयावह है।
ReplyDeleteRECENT POST शहीदों की याद में,
आपको भी ऐसा लगता है ना, सही भी यही है..
Deleteआज के पत्रकार अपनी नैतिकता को खो दिए है,अपनी कलम को छोड़ दुनियां के चकाचौंध को अपना लिया है,बहुत ही सार्थक लेख।
ReplyDeleteकलम वाकई गिरवी रख दी गई है... महसूस तो यही होता है
Deleteaapki baton se mai pura sahmat hun.. bade shahron se lekar gavon tak ye bhrastachar vyapt hai..lekin yadi upar se sudhar ho to neeche tak hona sambhaw ho jata hai. acche se acche chanal ka stringer jo company ki ID lekar chalta hai use kya parishramik milta hai ? mahngaee badhti hi ja rahi hai aur unka payment ghata ja raha hai.. aise me to imandar vyakti ka to jeevan dubhar ho jayega aur wo koi side business karega to sheesh utha kar neta - adhikarion se swal jwab nahi kar payega,aur jo bhrasttha hain wo bina vetan ke bhi kam kar sakte hain.
ReplyDeleteआपकी पीड़ा को मैं समझ सकता हूं। पारिश्रमिक कम होने का मतलब कत्तई नहीं है कि कोई भ्रष्ट हो जाए। लेकिन मैं अभी आपको क्या कहूं, जब ऊपर ही दाल काली है....
Deleteसर्वप्रथम शासन तत्पश्चात प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश हो शेष
ReplyDeleteअन्य संस्थाओं के भ्रष्ट यांत्रिक उपकरण को कसने में फिर किंचित भी
विलम्ब नहीं होगा..,
समाचार संसाधन नेता-मंत्रियों से जनता/मतदाता के हेतुक
प्रश्न करते हैं स्वयं के हेतु नहीं, पत्रकारगण को जनता मत नहीं देती,
मत नेता-मंत्री को देती है अत: नेता-मत्री का यह उत्तरदायित्व है की वह
सदचरित्र रखते हुवे उत्तरप्रयुत्तर क्रिया में अपना उत्तर-पक्ष प्रस्तुत करे एवं
( दल विशेष) उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम की पुनरावृत्ति न करे । लोक-
तांत्रिक दल वास्तव में 'सेवा-दल' न हो कर सत्ता के लौलुप राजनीतिज्ञों
की कुत्सित राजनीति के दलदल हो गए है..,
लेख रचयिता कृपया यह समझाए का कष्ट के कि
सर्वोच्च न्यायालय में किन बड़े बड़ों का उपचार हुवा है यदि उपचारित 'रोगियों'
की कोई सूचि-पट्टिका हो तो कृपया प्रदर्शित करें..,
सर्वोच्च न्यायालय एक ऐसा चिकित्सालय है जहां बड़े बड़ों के
आपराधिक व्याधि के उपचार की मात्र औपचारिकता होती है.....
ओह मीडिया के प्रति आपका सम्मान देखकर कर खुशी हुई। चलिए अभी थोड़ा बहुत भरोसा है लोगों का... बढिया
Deleteपत्रकारों में बढ़ती बेईमानी और भ्रष्ट आचरण के पीछे यही रंग बिरंगी और चकाचौंध वाली दुनिया है, जो उनके धैर्य और ईमानदारी की परीक्षा लेती रहती है और बेचारे पत्रकार इसमें फेल हो जाते हैं।
ReplyDeleteचकाचौंध कहाँ नहीं है लेकिन इसका मतलब भ्रष्ट होना तो नहीं है ....फिर सिर्फ अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए भ्रष्ट नहीं है ये लोग भ्रष्ट होने की लत लग गई है इन्हें। सरकारी आवास सुविधाओं का नाजायज़ उपयोग,चन्दा उगाही,ब्लाकमेलिंग आज पत्रकारों की पहचान बनाते जा रहे हैं और ये बहुत भयावह स्थिति है। अपनी ही बिरादरी को आईना दिखा कर उनकी काली सूरत दिखाई है आपने। आभार
जी, पत्रकार भी इसी समाज से आते हैं, उन्हें थोड़ा भिन्न होना चाहिए, पर क्या किया जाए, बेईमानी का रंग उन पर आसानी से चढ़ जाता है...
Deleteइसका तो एक ही जवाब है अपनी औकात पर आ गये हम!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
सही कहा सर आपने....
Deleteबल्कि उससे भी नीचे गिर गए..
पत्रकारिता एक धंधा बन गई है ,अधिकांश लोग ख़बरों वास्तविक रूप में नहीं ,समसालेदार अचार बना कर परोसने में लगे रहते हैं.भाषा,संस्कृति,राष्ट्रीयता आदि से इनका कोई वास्ता नहीं वाह-वाही लूटना और मतलब पूरा करना.और तो और मैने देखा है अख़बार बेचनेवाला भी अपने को पत्रकार कहता है-यही स्तर तो है अब,सबसे बड़ी बात है बेचना! .
ReplyDeleteकाफी हद तक आपकी बात सही है...
Deleteआभार
भ्रष्टाचार किस हद तक फैला हुआ है..! किसी भी मुद्दे को उठा लिए जाए... कोई पूरी किताब लिखे दे..! इसीलिए कहते हैं...किसी को सुधरने की नसीहत देने से पहले खुद को सुधारना बहुत ज़रूरी है...
ReplyDelete~सादर!!!
सही कहा आपने,सहमत हूं
Deleteयकीन नहीं होता
ReplyDeleteबड़ी दुखदायी स्थिति है
मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है और अगर उसमे ही दीमक लगने लग जाए तो क्या होगा
प्रभावशाली लेखन
सादर !
यही तो चिंता का विषय है
Deleteएक सार्थक लेख महेन्द्र जी
ReplyDeleteशुक्रिया
ReplyDeleteतुम्हारे दामन पर उंगली उठाऊं तो कैसे ,
ReplyDeleteमेरा दामन भी तो आखिर बेदाग़ नहीं है |
सादर