Sunday, 18 November 2012

टीवी न्यूज : निकालते रहो टमाटर से हनुमान !


टीवी न्यूज चैनलों से धीरे धीरे खबरें गायब होती जा रही हैं। कहने को न्यूज चैनल 24 घंटे के हैं और हमेशा खबर दिखाए जाने का दावा भी करते हैं, लेकिन इन दावों में कोई सच्चाई नजर नहीं आती है। सुबह ज्यादातर चैनल पर ज्योतिष और पंडित बैठे रहते हैं, वो लोगों बताते हैं कि आज किस रंग के कपड़े पहने कि सब कुछ अच्छा बीते। ज्योतिषियों के जाने के कुछ देर बाद ही सास,बहू, साजिश टाइप शो शुरू हो जाते हैं। शाम होते होते एक बार फिर चैनलों पर अखाड़ा सजने लगता है, जिसमें किसी भी बात पर बहस होती है, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलता। देर रात में ज्यादातर चैनल खोई हुई जवानी हासिल करने के लिए ताकत की दवा बेचते नजर आते हैं। कुछ चैनल तो सुबह से शाम तक प्रोमों चलाते हैं कि शाम को देखिए बड़ा खुलासा और शाम होती है तो वो टमाटर से हनुमान निकालने लगते हैं। अच्छा न्यूज चैनलों का काम मनोरंजक चैनलों ने लिया है। वो सामाजिक सरोकारों और अपराध की बड़ी घटनाओं से जुड़े मुद्दों पर बकायदा स्पेशल प्रोग्राम दिखा रहे हैं, जबकि धार्मिक चैनलों पर धर्म के अलावा सबकुछ है।

हम देखें तो पत्रकारिता में काफी बदलाव आया है। पहले रिपोर्टर को कोई खबर मिलती थी तो रिपोर्टर मौके पर जाकर पूरी जानकारी करता था, आफिस आकर कहानी लिखता था, फिर एक सब एडीटर कापी चेक कर उस पर हैडिंग लिखता था और ये खबर अखबार में प्रकाशित हो जाती थी। आज हालात बदल गए हैं,  अब सब एडीटर पहले हैडिंग तैयार करता है, वो रिपोर्टर को थमाई जाती है और कहा जाता है कि इसी आधार पर खबर लिखी जानी चाहिए। न्यूज चैनलों का हाल तो और बुरा है। यहां तो रात में तैयार हो जाता है अगले दिन का डे प्लान और सुबह सुबह तैयार होता है कि रात में क्या चलाया जाएगा। मतलब ये कि चैनल ही तैयार करते है कि कल क्या खबर होगी। देश के लोगों को क्या खबर दिखाई जानी है। अच्छा अगर चैनल में किसी  रिपोर्टर को बड़ी खबर हाथ लग जाए तो उसकी और मुसीबत है। पहले तो वो ये जवाब दे कि आपके पास इस खबर का प्रमाण क्या है ? रिपोर्टर बताता है कि खबर से संबंधित सारे डाक्यूमेंट हैं हमारे पास। फिर  सवाल डाक्यूमेंट सही हैं ना ? हां क्यों नहीं, सारे पेपर सही हैं। अच्छा ये स्टोरी ली गई तो दिखाएंगे क्या? बस इसी सवाल पर स्टोरी खत्म हो जाती है।

अकसर किसी समारोह या फिर सफर के दौरान कोई परिचित मिलता है, तो उनका एक सवाल होता है, वो कहते हैं, आप पत्रकारिता में दखल रखते हैं, आप बताएगें कि न्यूज चैनलों का इस कदर पतन क्यों हो गया है? जब भी समाचार देखने को मन होता है, किसी भी चैनल पर खबर नहीं चल रही होती। जो चैनल सबसे सर्वोच्च होने का दावा करते है, उसमें तो विज्ञापन ही विज्ञापन होते हैं। खबरों को वह फिलर की तरह इस्तेमाल करते है। जो चैनल खुद को बौद्धिक होने का दावा करते है, वह शाम को एक के बाद दूसरी अनर्गल परिचर्चाओं में उलझे रहते हैं। चैनल मामूली खबर को भी ऐसे दिखाते हैं, जैसे कि कोई तूफान आ गया हो। मजबूर होकर हमें अपने रीजनल चैनल पर आना पड़ता है, लेकिन वहां हिंदी इतनी खराब होती है, सच कहूं तो उबकाई आने लगती है। वैसे रही बात विज्ञापन की तो मैं चैनल के साथ रहूंगा, क्योंकि आज जिस तरह के चैनलों के खर्चे हैं, बिना विज्ञापन के चैनल को चलाना बहुत मुश्किल है। लेकिन खबरों को लेकर उनकी शिकायत मुझे भी जायज लगती है।

एक बात मुझे वाकई परेशान करती है। मैं देखता हूं कि आज किसी भी न्यूज चैनल पर ऐसा कोई प्रोग्राम नहीं है, जिसका लोगों को इंतजार हो। मतलब लोग अपने सारे काम छोड़कर इंतजार करें कि फलां चैनल पर ये कार्यक्रम आने वाला है, उसे देखकर ही दूसरा काम निपटाया जाएगा। देश में सर्वोत्तम चैनल का पुरस्कार लगातार 12 साल से आजतक  को मिल रहा है। मैं आजतक से ही ये जानना चाहूं कि क्या वो कोई भी ऐसा कार्यक्रम या बुलेटिन बता सकते हैं, जिसका देश में लोग इंतजार हो ? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इसका कोई जवाब इनके पास नहीं होगा। मुझे आज भी याद है कि छोटे पर्दे पर एक जमाने में तमाम  ऐसे शो रहे हैं,  जिसका लोगों को पूरे हफ्ते इंतजार रहता था। इसमें रामायण, हमलोग, कहानी घर घर की, सास भी कभी बहू थी जैसे शो को ना सिर्फ लोग पसंद करते थे, बल्कि इस शो का लोगों को इंतजार भी रहता  था। न्यूज चैनल पर आखिर ऐसा क्यों नहीं है ?

हां मैं बहुत ईमानदारी से एक बात जरूर कहना चाहूंगा । अगर इलेक्ट्रानिक मीडिया में कभी रचनात्मक पत्रकारिता की बात होगी तो मैं अपने चैनल यानि IBN7 को पहले स्थान पर रखूंगा। यहां हर तपके की समस्याओं को लेकर कुछ ना कुछ खास कार्यक्रम आज भी हैं। मसलन जिंदगी लाइवएक  ऐसा कार्यक्रम है, जिसमें सामाजिक बुराइयों को लेकर एक से बढ़कर एक शो बनाए गए और लोगों  ने इसे खूब सराहा भी  है। आप  ibnkhabar.com पर इस शो को आज भी देख सकते हैं। अगर मैं आमिर खान के लोकप्रिय  शो सत्यमेव जयतेको  जिंदगी लाइवशो का नकल कहूं तो गलत नहीं होगा। यही वजह है कि ये शो आज भी चैनल की जान है। आईटीए अवार्ड में भी इस शो को पुरस्कृत किया गया है।

आज कौन सा न्यूज चैनल है जो स्पेशल (विकलांग) लोगों की फिक्र करता है। लेकिन ये हिम्मत भी करता है IBN7। दरअसल इसके पीछे चैनल के एडीटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई और मैनेजिग एडीटर आशुतोष  की सकारात्मक सोच है। मैने तो दूसरे चैनल में कभी काम नहीं किया तो मुझे नहीं पता कि वहां एडीटर्स की क्या सोच है, लेकिन मैने न्यूज रूम में कई बार राजदीप को सुना है। उनका कहना है कि बेहतर पत्रकार होने के लिए सबसे जरूरी है बेहतर इंसान होना, जो बेहतर इंसान नहीं बन सकता वो बेहतर पत्रकार तो कभी नहीं हो सकता। चार साल पहले चैनल पर सुपर आयडल अवार्ड शुरू किया गया है, जिसमें ऐसे लोगों को प्रोत्साहित किया जाता है जो विकलांग होते हुए भी देश के लिए बड़ा काम करते हैं। इसी तरह एक खास कार्यक्रम है सिटिजन जर्नलिस्ट। आमतौर  पर देखा जाता है कि बहुत से लोग हैं तो तरह तरह की मुश्किलों को लेकर संघर्ष करते हैं, लेकिन उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती है। ऐसे लोगों के संघर्ष को ताकत देने वाला प्रोग्राम है सिटिजन जर्नलिस्ट।

खैर ये तो एक चैनल की बात हुई, सवाल ये है कि आखिर न्यूज चैनल का फोकस क्या है ? चैनल करना क्या चाहते हैं और जो करना चाहते हैं उसका रास्ता क्या है ? अब आज की ही बात ले लें। सुबह नींद खुली तो चैनल पर बाल ठाकरे की शवयात्रा से दिन की शुरुआत हुई, रात तक यही खबर चलती रही, बस फर्क इतना रहा कि सुबह ये शव ट्रक पर था, रात को चिता पर। अब क्या इतने बड़े देश में आज पूरे दिन एक ही खबर थी ठाकरे की शवयात्रा। सच ये है कि दूसरी खबर चैनल पर चलाने की हिम्मत चाहिए, और वो  हिम्मत आज कोई भी एडीटर आसानी से नहीं कर सकता। दरअसल सबको पता है कि चैनल की टीआरपी के हिसाब से मुंबई एक महत्वपूर्ण महानगर है। इसीलिए चैनल इस शवयात्रा से भी टीआरपी खींचने में लगे रहे। वैसे भी आप सब जानते हैं कि रविवार के दिन लगभग सभी चैनल पर खास प्रोग्राम का दिन होता है, लेकिन जब शवयात्रा से ही टीआरपी का जुगाड़ हो गया हो, तो प्रोग्राम रोक लिए गए, चलिए अगले संडे को आराम रहेगा।

अच्छा ये गिरावट महज न्यूज चैनल तक नहीं है, बल्कि मनोरंजक चैनलों पर भी ऐसा ही कुछ है। घिसे पिटे कार्यक्रम देखकर लोग बोर हो रहे हैं। कुछ कार्यक्रम हैं जो कई साल से चल रहे हैं, उसमें कोई नयापन नहीं है। अच्छा आज कल छोटे पर्दे पर एक और चीज हो रही है, विभिन्न शो में नई फिल्मों के प्रमोशन के लिए हीरो हीरोइन पहुंचते हैं। ये सभी जगह एक ही बात करते हैं, वैसे भी इनके पास अपनी फिल्म के बारे में हर जगह नया कहने के लिए भला क्या हो सकता है ? बस बोर करते हैं दर्शकों को। हां पहले तो ये न्यूज चैनलों पर फिल्म का प्रमोशन करते हैं, उसके बाद ये टीवी शो में जाते हैं। बस कहना इतना है कि मनोरंजक चैनल पर मनोरंजन को छोड़कर सबकुछ है। इसीलिए कहता हूं कि छोटे पर्दे को भी पहले अपना रास्ता तलाशना होगा, फिर उस रास्ते पर चलने के लिए ठोस कार्यक्रम बनाना होगा। चलिए अब इंतजार करते, हम भी और आप भी कीजिए।




  



35 comments:

  1. सारी बातें सच हैं...न्यूज जानने के लिए भी एक घंटे विज्ञापन देखना पड़ता है|

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  2. अन्धा व्यवसायीकरण, हंगामे का दौर |
    दुनिया जाये भाड़ में, शेष कमाई दौर |
    शेष कमाई दौर, मूल्य का हो अवमूल्यन |
    पत्रकारिता पीत, दीखता है हल्का पन |
    रविकर का अनुरोध, बना मत इसको धंधा |
    बने वेश्या वृत्ति, रास्ता आगे अंधा ||

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    1. बढिया,
      लेकिन मुझे लगता है कि आप मीडिया से कुछ ज्यादा निराश हैं। बात इतनी भी नहीं बिगड़ी है अभी..

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  3. बढ़िया विश्लेषण परक प्रस्तुति .

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  4. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति

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  5. आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 20/11/12 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है

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  6. आप कितना अच्छा समझाते है,
    एक बात और समझाइये न कि लोग मरने के बाद
    'रंगीन' ऐनक के अन्दर से क्या देखते हैं??......

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    1. में बताऊँ, में बताऊँ : --

      रंगे-धनक दीगर है आशिक़ के फेन में..,
      रंगीन नजर आए है आशिक़ी कफ़न में..,

      जमीं दफन कर लिखा, है ये आस्ताने संग..,
      किस कदर चिल्लाए है कफनी दफ्तन में..,

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  7. भारतीय दलगत 'राजनैतिक' लोकतंत्र में सूचना व संचार माध्यमों द्वारा
    दल, दल सदस्य व दल प्रमुखों को भ्रष्टाचारी घोषित कर देने भर से ही
    कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती, श्रोताओं, दर्शकों व पाठकों को विद्यमान
    संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत अथवा व्यवस्था परिवर्तन के फलस्वरूप
    विकल्प देना भी आवश्यक है.....


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  8. T.Vसे पहले तो fb पर न्यूज़ रहता है .... !!
    शुभकामनायें !!

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    1. नहीं नहीं...
      टीवी की खबरें एफबी पर आती हैं...

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  9. दूरदर्शन के वो दिन भी याद हैं जब मैं बुधवार और शुक्रवार का चित्रहार देखने के लिए सारा होमवर्क खतम कर के बेसब्री से इंतज़ार किया करती थी.
    रविवार के दिन की सुबह के यादगार थे जैसे चन्द्रकान्ता ..मोगली आदि.
    अब रंग बिरंगे चेनल्स इतने हैं लेकिन मेरा तो सिर्फ 'सी आई डी' के अलावा कोई अन्य प्रोग्राम देखने का दिल ही नहीं करता ..मनोरंजन के चेनल अब पूरी तरह व्यवसायिक हो गए हैं .
    हमारे यहाँ के चेनलों में सिर्फ युवा वर्ग को ही ध्यान में रखा जाता है..बच्चों के और किशोरों के कार्यक्रम न के बराबर होते हैं..शिक्षा संबंधी या जन जागृति के कार्यक्रम तो भूल ही जाईये!

    आप ने यहाँ बहुत गंभीर विषय उठाया है ,इस पर विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है.

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    1. जी, आपकी बातों से मैं सहमत हूं।
      आपने वाकई गंभीर विषय उठाया है।
      आभार

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  10. This comment has been removed by the author.

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  11. कमाल है ....टीवी में होते हुए ...आप सभी चैनल्स को लपेट रहे हो ....सही में महेंद्र जी बहुत सच उगलती है आपकी कलम


    बहुत बढिया ...एक सच सामने रखने के लिए ...जो सच कोई नहीं कह सकता वो आपके ब्लॉग पर पढ़ने को मिल जाता है

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    1. बहुत बहुत आभार अंजू जी
      शुक्रिया

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  12. We don't have much options. I love surfing the channels by giving two minutes to each.... Otherwise household work and facebook keeps me engaged.

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  13. sach kabhi kabhi to news dekhne ke liye radio hi bhala lagta hai..vaise vaha bhi ab add aane lage hai..dekhe kab ye tasveer badlegi...

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    1. जी ये बात तो बिल्कुल सही है..
      शुक्रिया

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  14. जबकि धार्मिक चैनलों पर धर्म के अलावा सबकुछ है।
    vakai badhiya post ...

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  15. मुझ जैसे एक आम आदमी के दिल में उठते सवालों का बड़ी गम्भीरता भरा जवाब ..और सटीक ....मुबारक और आभार आपका !
    “जिंदगी लाइव” के लिए ..आपके चैनल और उसके पीछे की पूरा टीम को सलाम !
    ऋचा जी को भी मुबारक और बहुत सारी शुभकामनायें!

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    1. बिल्कुल सर,
      आप वाकई चैनल को बहुत ही गंभीरता से देखते हैं..
      ऋचा तक आपकी शुभकामनाएं पहुंच जाएंगी

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आपके विचारों का स्वागत है....