Sunday 7 April 2013

दलालों की दलाल हो गई है मीडिया !


मीडिया, नेता, उद्योगपति और नौकरशाह का गठजोड़ ना सिर्फ देश को कमजोर करने वाला है, बल्कि ये पूरे सिस्टम को खोखला भी कर रहा है। मेरा मानना है कि इन सब में सबसे अधिक जिम्मेदार मीडिया को होना चाहिए था, जबकि मीडिया ही आज सबसे अधिक विवादित हो गई है। हैरानी ये है कि तथाकथित " बड़े पत्रकार " अब पैसे के लिए इस हद तक गिर चुके हैं कि वो कारपोरेट दलालों की दलाली कर रहे हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर मीडिया में शुचिता के लिए लड़ाई की शुरुआत कहां से होगी ? कहां से होगी ये तो एक सवाल है ही, सवाल ये भी है कि मीडिया में ईमानदारी की लड़ाई लड़ेगा कौन ? मुझे लगता है कि कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया के टेप में पत्रकारों का असली चेहरा दर्ज है, मेरी चिंता ये है कि आज नहीं कल जब भी ये टेप जनता के सामने आएगा, उस दिन मीडिया आखिर जनता को क्या जवाब देगी ? किस मुंह से पत्रकार जनता के सवालों का सामना करेंगे। आज नेताओं, नौकरशाहों को मीडिया सिर्फ  इसलिए कटघरे में खड़ा कर लेती है, क्योंकि अभी उसका चेहरा सामने आया नहीं है, लेकिन ये अधिक दिनों तक चलने वाला नहीं है। देख रहा हूं कि नेता और अफसर तो मीडिया से घबराए रहते हैं, क्योंकि चोरी का पैसा ठिकाने लगाने का उनके पास बहुत सीमित रास्ता है, जबकि उद्योगपति अब आंख तरेरने लगे हैं।

हर मामले में मीडिया नेताओं से जवाब मांगने के लिए गला फाड़-फाड़ कर चीखती है। मेरा एक सवाल है। मैं देख रहा हूं कि नीरा राडिया के टेप को लेकर पूरी मीडिया कटघरे में है। संदेश ऐसा जा रहा है जैसे दिल्ली की पूरी मीडिया नीरा राडिया की उंगली पर नाच रही थी। ये बात मीडिया के लोग भी जानते हैं कि नीरा राडिया ने किसे-किसे फायदा पहुंचाया है। लेकिन कटघरे में देश की पूरी मीडिया है। आखिर मैं आज तक नहीं समझ पा रहा हूं कि जो मीडिया संस्थान साफ सुथरे हैं उन्हें असलियत उजागर करने में क्या दिक्कत है? वो तो पूरी सच्चाई ईमानदारी से सही बात सामने रख सकते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है, यही वजह है कि नीरा राडिया और मीडिया को लेकर तरह तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। कुछ दिन पहले एक नई बात सामने आई है। कहा जा रहा है कि नीरा राडिया ने प्रवर्तन निदेशालय के सामने पूछताछ के दौरान कई ऐसे खुलासे किए हैं, जिससे मीडिया कटघरे में है। मसलन अपने कारपोरेट क्लाइंट्स के पक्ष में लाबिंग के लिए मीडिया पर उसने करीब 160 करोड़ रुपये खर्च किए। ये रकम छोटी मोटी नहीं है। इतना ही नहीं उसने करोड़ों रुपये का एक फ्लैट विदेश में खरीदकर एक न्यूज चैनल की महिला जर्नलिस्ट को गिफ्ट किया। अगर ये अफवाह है तो इसका सख्ती से खंडन होना चाहिए, अगर इसमें एक प्रतिशत भी सच्चाई है तो इस बात का पूरा खुलासा होना ही चाहिए।

सबको पता है कि पिछले दिनों एक बात सामने आई कि कुछ पत्रकार केंद्र की सरकार में दक्षिण की  एक खास पार्टी के पक्ष में लाबिंग कर रहे थे, जिससे टेलीकम्यूनिकेशन मंत्रालय का मंत्री उसी खास को बनाया जाए, जिससे वो राजा की तरह राज कर सके। अब ये क्या है ? आखिर ऐसी लाबिंग के मायने क्या हैं ? नीरा राडिया ने करोड़ो रुपये एक राष्ट्रीय अखबार के बड़े पत्रकार को भी दिए, जिसेक एवज में उस पत्रकार ने काफी सूचनाएं राडिया को मुहैया कराई। अगर ऐसा है तो ये वाकई गंभीर मामला है, इसका खुलासा क्यों नहीं होना चाहिए ? बहरहाल मैं जानता हूं कि मीडिया अपने भीतर झांकने को कत्तई तैयार नहीं है। इसलिए नीरा राड़िया के मामले में जो जानकारी सामने आए, उसे भले भी विज्ञापन के तौर पर ही क्यों ना छपवाना पड़े, सब आम जनता तक पहुंचनी चाहिए। जिससे पता चले कि आखिर मीडिया की आड़ में कुछ लोग कैसा गोरखधंधा कर रहे हैं। वैसे मुझे नहीं लगता कि मीडिया नीरा राडिया या कुछ पत्रकारों को बचाने के लिए खामोश है। अंदर की बात तो ये है कि नीरा राड़िया जिन लोगों के लिए काम कर रही थी, वो चेहरे कहीं सामने ना आ जाएं, इसलिए ये मीडिया बापू की बंदर बनी हुई है। कुछ भी हो, लेकिन ये कोशिश सरकार को करनी ही होगी कि राडिया के मामले में सही सही जानकारी देश को पता चले।

सच बताऊं अंदर की खबर तो ये भी है कि बीजेपी ने भले ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पार्टी की ओर से पीए पद का उम्मीदवार घोषित ना किया हो, लेकिन उद्योगपतियों ने उन्हें पीएम का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। यही वजह है कि पूरी मीडिया नरेन्द्र मोदी के गुणगान करती दिखाई दे रही है। सच्चाई क्या है ये तो उद्योगपति जानें, लेकिन सियासी गलियारे में चर्चा तो यही है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को  सीआईआई में इसीलिए बुलाया गया था कि उसके कुछ दिन बाद फिक्की के कार्यक्रम में मोदी को बुलाया जाए, जिससे मोदी अपने तीखे और असरदार भाषण से उद्योगपतियों पर अपनी छाप छोड़ सकें और राहुल के भाषण और उनकी सोच को फीका कर दें। मुझे लगता है कि इसमें कुछ हद तक कारपोरेट जगत को कामयाबी भी मिली है। बताया जा रहा है कि देश का उद्योग जगत मोदी को प्रधानमंत्री के रुप में देखना चाहता है, उसे लगता है कि मोदी उनकी उम्मीदों पर खरे उतर सकते हैं। आज नहीं तो कुछ दिन बाद ही सही ये मामला भी सामने आ ही जाएगा।

अगर मैं ये कहूं कि सिर्फ दिल्ली की मीडिया ही लाबिंग करती है तो ये कहना गलत होगा। मेरा एक सवाल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री रमन सिंह से भी है। पता चला है कि इन दोनों राज्यों के तमाम नामचीन पत्रकार अपनी पत्नी और परिवार के किसी और सदस्य के नाम बेवसाइट का संचालन कर रहे हैं। ऐसे ब्लाग जिनकी रीडरशिप भी कोई खास नहीं है, लेकिन उन्हें हर महीने एक अच्छी खासी रकम का भुगतान किया जा रहा है। कहने को तो ये विज्ञापन है, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इसमे ज्यादातर उन्हीं पत्रकारों का परिवार शामिल क्यों है जो देश के बड़े मीडिया हाऊस या फिर बड़े अखबार समूह से जुडे हुए हैं ? इसकी पूरी छानबीन जरूरी है, जिससे पता चले की बेईमानी का मकड़जाल महज दिल्ली तक सीमित नहीं है बल्कि ये राज्य और जिला स्तर तक पहुंच चुका है। हो सकता है कि ये बात सच ना हो, लेकिन इसमें थोड़ी भी सच्चाई है तो आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं की देश की मीडिया का पतन किस स्तर तक हो चुका है।

मैं देख रहा हूं कि अगर इस बुराई के मामले में कोई संस्था प्रभावी कदम उठा सकती है तो वह है प्रेस काउंसिल आफ इंडिया। लेकिन पीसीआई के चेयरमैन की प्राथमिकता में ही ये काम नहीं है। प्रेस परिषद के चेयरमैन मार्कडेय काटजू इन सभी मामलों में अहम भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन वो तो कभी देश की जनता को गरियाते दिखाई दे रहे हैं या फिर सुप्रीम कोर्ट से सजा पाए फिल्मी कलाकार को सजा से छूट दिलाने में अपनी ऊर्जा व्यर्थ कर रहे हैं। मीडिया की बुराइयों की अनदेखी करते हुए उन्हें ये ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहा है कि पत्रकार बनने की योग्यता तय कर दी जाए। काटजू साहब मैं बहुत ही भरोसे के साथ कह सकता हूं कि झोला छाप डाक्टर भले ही आम आदमी के लिए खतरनाक हो, लेकिन झोला छाप पत्रकार आम आदमी की दिक्कतों को ना सिर्फ समझता है बल्कि उसे सही मायने में महसूस भी करता है। इसलिए आप अपनी ऊर्जा को सही जगह इस्तेमाल करें तो शायद मीडिया में जहर की तरह घुल रही बेईमानी की बीमारी का सही इलाज हो सके।