Wednesday 13 February 2013

नीतीश राज में मीडिया का कत्ल !

बिहार के नेताओं में कुछ तो समानता होगी ही ना । मुख्यमंत्री रहने के दौरान बिहार में लालू यादव अखबार वालों के साथ कैसा सुलूक करते थे, ये तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन दिल्ली में रेलमंत्री रहने के दौरान मैने देखा कि वो भी अपने खिलाफ अखबार में खबर देख कर भड़क जाते थे। जैसे नीतीश कुमार पर आरोप है कि वो सरकार के खिलाफ खबर लिखने वालों का विज्ञापन रोक देते हैं, ठीक वैसा ही लालू यादव के राज में रेल मंत्रालय में भी होता था। दिल्ली में भी बड़े-बड़े तुर्रम खां रिपोर्टर की हालत बेचारे जैसी बनी रहती थी। लिहाजा ज्यादातर अखबारी मित्रों ने हालात से समझौता कर लिया था। यही हालत आज बिहार में नीतीश कुमार की है। उनकी सरकार के खिलाफ जिसने भी अखबार रंगा, अगले दिन से उसका विज्ञापन रोक दिया जाता है, बस फिर क्या पूरा प्रबंधतंत्र सरकार के दरवाजे पर उल्टे सिर खड़ा दिखाई देता है। 

बिहार सरकार के खिलाफ ये आरोप मैं नहीं लगा रहा हूं, बल्कि प्रेस परिषद ने शिकायत के आधार पर एक तीन सदस्यीय जांच कमेटी बनाई थी। जांच कमेटी ने बकायदा महीने भर से भी ज्यादा समय तक विभिन्न पहलुओं पर जांच पड़ताल के बाद अपनी रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में जो कुछ कहा गया है वो नीतीश सरकार की असल तस्वीर दिखाने के लिए काफी है। बिहार सरकार पर आरोप लगा है कि राज्य में स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता करना अब कत्तई संभव नहीं है। यहां मीडिया को इमरजेंसी जैसी सेंसरशिप का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में अखबारों का भविष्य खतरे में है, क्योंकि विज्ञापन का भय दिखाकर प्रेस को सरकार का अघोषित मुखपत्र बनाने की कोशिश हो रही है। इस स्थिति से उबरने के लिए जांच दल ने दिशानिर्देशों का कड़ाई से पालन करते हुए विज्ञापन जारी करने के लिए एक स्वतंत्र एजेंसी के गठन की वकालत की है।

प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू द्वारा बनाई गयी तथ्यान्वेषी समिति ने कहा है कि बिहार में अखबार सरकार के दबाव के चलते भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को कम तरजीह दे रहे हैं। प्रेस परिषद की समिति का कहना है कि बिहार में पूरा मीडिया उद्योग खासकर राज्य सरकार के विज्ञापनों पर निर्भर करता है क्योंकि औद्योगिक रूप से पिछड़ा होने के कारण यहां निजी विज्ञापनों का टोटा रहता है। रिपोर्ट में टीम ने कहा है कि उसने छोटे और मझोले अखबारों के प्रतिनिधियों तथा बड़े प्रकाशनों के संपादकों से मिलने के विशेष प्रयास किये। रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री की सैकड़ों गतिविधियों को बड़े अखबारों में प्रमुखता से छापा गया जो पत्रकारिता के मानकों पर न तो प्रासंगिक थीं और ना ही खबर लायक थी। रिपोर्ट में कहा गया है, इमरजेंसी के दिनों में स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता पर जैसी सेंसरशिप लगी हुई थी, वह स्थिति वर्तमान में नीतीश सरकार के कार्यकाल में देखने को मिल रही है।

रिपोर्ट जो खुलासा हुआ है, उससे नीतीश सरकार की असल तस्वीर देश के सामने आ गई है। समिति ने यहां तक कहा है कि मौजूदा हालात में ज्यादातर पत्रकार यहां घुटन महसूस कर रहे हैं। स्वतंत्रतापूर्वक काम करने में वह खुद को असहाय पा रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार सरकारी खौफ के चलते आंदोलन, प्रदर्शन, प्रशासन की कमियों को उजागर करने वाली और जनसमस्याओं से जुड़ी खबरों को अखबारों में स्थान  ही नहीं मिल पा रहा है। सरकार के दबाव के कारण भ्रष्टाचार उजागर करने वाली खबरों को जगह नहीं मिल पा रही है। कवरेज में विपक्ष की अनदेखी कर सत्तापक्ष की मनमाफिक खबरों को तरजीह देना पत्रकारों की मजबूरी बन गई है। जांच टीम ने यहां तक कहा है कि मीडिया के ऊपर इस तरह के अप्रत्यक्ष नियंत्रण से लोगों के सूचना हासिल करने का अधिकार बाधित हो रहा है। इससे अनुच्छेद 19 [1] के तहत प्रदत्त संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।

रिपोर्ट में कुछ मजेदार बातें भी हैं। सूबे की सरकार जो खबर अखबार में छपवाने के लिए बेचैन रहती है, वो खबर पत्रकारों या संपादकीय विभाग को  ना भेज कर सीधे अखबार के प्रबंधन को दी जाती है। प्रबंधन ही संपादकीय विभाग पर दबाव बनाकर ये खबर प्रकाशित कराते हैं। समिति ने कहा, ‘‘सरकारी विज्ञापनों का लाभ उठाने वाले अखबारों के प्रबंधन लाभकारी संस्थानों के प्रति शुक्रगुजार रहते हैं और उनकी नीतियों की तारीफ करते हैं।’’ समिति के अनुसार अनेक पत्रकारों ने टीम के सदस्यों को फोन करके इस संबंध में अपनी दिलचस्पी दिखाई लेकिन दबाव के चलते नाम नहीं जाहिर करने का भी अनुरोध किया। बताइये क्या हाल हो गया है वहां बेचारे पत्रकारों का। 

रिपोर्ट के अनुसार अनेक पत्रकारों ने किसी कथित घोटाले से जुड़ी खबर के प्रकाशन के चलते वरिष्ठ दर्जे के पत्रकारों के स्थानांतरण का भी जिक्र किया। पीसीआई के दल ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सिफारिशें भी की हैं। दल ने सुझाव दिया है कि बिहार सरकार को प्रदेश में निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए सकारात्मक माहौल बनाना चाहिए और पत्रकारों के खिलाफ लंबित सभी मामलों की समीक्षा एक स्वतंत्र न्यायिक आयोग द्वारा की जानी चाहिए। समिति ने सरकार से पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का भी आग्रह किया है। समिति की रिपोर्ट से ये साफ हो गया है कि सूबे की सरकार अखबारों के जरिए बिहार की जो तस्वीर देश को दिखा रही है, दरअसल वो सही नहीं है। असल तस्वीर कुछ और ही है, यानि भयावह और डरावनी है।

अब नीतीश सरकार पर ये आरोप किसी विरोधी दल ने लगाया होता तो कहा जाता कि विपक्ष का काम ही है सरकार का विरोध करना। लेकिन ये आरोप तो प्रेस परिषद ने लगाया है। वैसे इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद भला लालू कहां चूकते, उन्होंने अपने ही अंदाज में कह दिया कि सरकार के लोगों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। चलिए लालू का सुझाव सरकार तक पहुंच जाएगी, लेकिन लालू जी दिल्ली में रेल मंत्रालय में बैठकर आप क्या करते थे, पता नहीं आपको याद भी है या नहीं। नहीं याद है तो मैं बता देता हूं। आप भी कमोवेश यही काम करते थे, लेकिन आपके चंगुल में सिर्फ अखबार का प्रबंधन भर नहीं था, तमाम पत्रकार भी आपके हां में हां मिलाते रहे और आप उन्हें रेल का फ्री पास देकर खुश कर दिया करते थे। 

बहरहाल इस रिपोर्ट के बाद मुझे लगता है कि अब बिहार में इलेक्ट्रानिक मीडिया को मोर्चा संभालना चाहिए, क्योंकि कम से कम इलेक्ट्रानिक मीडिया को बिहार सरकार के विज्ञापन की उतनी जरूरत बिल्कुल नहीं है, जितनी प्रिंट को है। मैं काफी समय तक प्रिंट में रह चुका हूं, इसलिए मुझे पता है कि बिहार में अखबार बगैर सरकारी विज्ञापन के वाकई नहीं निकल सकते। मैं अगर बिहार को उद्योग शून्य कहूं तो गलत नहीं होगा, मुझे नहीं लगता है कि वहां कोई भी ऐसा उद्योग है जो साल में एक बार भी पूरे पेज का विज्ञापन दे सकने की क्षमता रखता हो। अगर जनता की अखबार की जरूरत पूरी करनी है तो विज्ञापन चाहिए और विज्ञापन के लिए अगर सरकार इस हद तक नीचे गिरती है तो प्रबंधन के सामने दो ही रास्ता है या तो वो सरकार से समझौता करे या फिर अखबार को बंद कर दिया जाए। एक  अखबार के बंद होने का मतलब आसानी से समझा जा सकता है, क्योंकि इससे हजारों लोगों की रोजी रोटी जुडी होती है। लिहाजा मैं तो कहूंगा कि इलैक्ट्रानिक मीडिया कम से कम नीतीश का असली चेहरा देश के सामने लाए। 


Saturday 9 February 2013

अफजल गुरू की मीडिया !


बात आगे बढाऊं इसके पहले एक छोटी सी कहानी सुन लीजिए। एक पति-पत्नी में हमेशा विवाद बना रहता था। इनमें कभी भी किसी भी बात को लेकर झगड़ा हो जाता था। अब देखिए ना, पति को नाश्ते में अंडा पसंद है तो पत्नी ने सुबह अंडा उबाल दिया और पति के सामने रखा। पति नाराज हो गया और अंडे की प्लेट फैंकते हुए कहा कि मेरा मन आमलेट खाने का था और तुम अंडा उबाल कर ले आई। अगले दिन पत्नी ने अंडे का आमलेट बना दिया, पति फिर नाराज ! बोली अब क्या हुआ ? पति ने कहा कि आज मेरा मन उबला अंडा खाने का था तो तुम आमलेट ले आई, फिर उसने प्लेट फैंक दिया। अगले दिन पत्नी ने बीच का रास्ता निकाला और एक अंडे का आमलेट बना दिया और दूसरे को उबाल दिया। उसने सोचा जो पसंद होगा वो खा लेगें। लेकिन पति तो तय करके बैठा है कि झगड़ा करना ही है, सो दोनों प्लेट फिर फैंक दिया और बोला कि तुम कभी कोई काम ठीक से कर ही नहीं सकती। पत्नी बोली आखिर अब क्या हुआ ? उबला अंडा भी है और आमलेट भी, जो मन हो वो खा लो। पति बोला कैसे खा लूं, जिस अंडे को उबालना था, उसका तो तुमने आमलेट बना दिया और जिसका आमलेट बनाना था उसे उबाल दिया। मीडिया भी कुछ इसी रास्ते पर है।

मीडिया की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। खैर मेरी आदत है, सुबह उठते ही टीवी आन करुं और हेड लाइन सुनने के बाद अखबार उठाता हूं। आज जैसे ही टीवी खोला तो देखा कि सभी चैनल पर एक ही खबर है, संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को फांसी। ये खबर जितने चैनल उतने तरीके से पेश कर रहे थे। खुद को सबसे तेज चैनल होने का दावा करने वाले चैनल पर खबर से ज्यादा ये बताने की कोशिश हो रही थी कि सबसे पहले ये खबर हमारे चैनल पर थी। अब इसमें कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि आज देश में भाई भतीजा वाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद का जहर बहुत अंदर तक घुल चुका है। सबको पता है कि उनका रिपोर्टर महाराष्ट्र का है और मंत्री भी महाराष्ट्र से हैं। मराठी एक दूसरे की चंपुई करते ही है। बहरहाल विषय पर आते हैं।

वीकेंड यानि शनिवार और रविवार को सभी चैनलों में ज्यादातर सीनियर्स छुट्टी पर रहते हैं। शनिवार को छुट्टी होने की वजह से शुक्रवार को प्रेस क्लब भी बहुत आबाद रहता है, सामान्य दिनों के मुकाबले यहां शुक्रवार को ड्रिंक्स की बिक्री भी ज्यादा होती है। अब सुबह - सुबह आफिस से सीनियर्स के यहां फोन पहुंचा कि अफजल गुरू को फांसी दे दी गई है, क्या किया जाए ? अब हड़बड़ी में सीनियर्स आफिस पहुंचे। काम में अचानक तेजी आ गई, जितने लोग उतनी तरह की बातें शुरू हो गई। एक तरफ से जोर जोर से आवाज आ रही थी कि अरे लाइब्रेरी में अफजल गुरु के जितने भी विजुअल हैं, सब निकालो। सच्चाई ये है कि चैनल पर खबर चलनी तो सभी जगह शुरू हो गई थी, लेकिन कोई लाइन नहीं ले पा रहा था कि आखिर इस खबर में लाइन क्या ली जाए ? बीजेपी के नेता भी काफी परेशान दिखाई दिए, उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मीडिया में कहा क्या जाए ? फांसी देने की मांग तो बीजेपी ही सबसे ज्यादा कर रही थी, अब दे दी गई है तो क्या करें ?

मीडिया के तमाम कैमरे विपक्षी नेताओं के घर पर लग गए। मीडिया इंतजार करने लगी कि शायद बीजेपी की ओर से कोई ऐसी लाइन बोली जाए जो मीडिया की भी लाइन हो सकती  है। तब तक चैनल पर कुछ-कुछ टाइम पास खेलते हैं। एक तरफ कहा जा रहा था कि कि पूरी कार्रवाई को बहुत गोपनीय रखा गया था, किसी को कानोकान खबर नहीं थी। दूसरी ओर हर चैनल के रिपोर्टर के पास अपनी अपनी एक्सक्लूसिव खबर थी। एक चैनल बता रहा था कि अफजल को शुक्रवार की शाम को बता दिया गया था कि सुबह फांसी दी जाएगी, रिपोर्टर का ये भी कहना था कि जब उसे बताया गया कि फांसी दी जानी है तो उसे यकीन नहीं हुआ कि मुझे भी लटकाया जा सकता है, फिर उसने जेल के कांस्टेबिल से पूछा कि क्या मुझे फांसी होने वाली है तो कांस्टेबिल ने हां में सिर हिलाया तो अफजल को भरोसा हो गया कि अब उसके जीवन के कुछ घंटे बचे हैं। इस रिपोर्टर का दावा है, अब आप ही समझ लें कहा गया कि कुछ लोगों को ही इसके बारे में जानकारी थी, लेकिन यहां तो कांस्टेबिल तक को पता था।

रिपोर्टर ने कहानी आगे बढाई और कहा कि फांसी की जानकारी के बाद अफजल डरा हुआ था, वो पूरी रात सो नहीं पाया, रात भर कुछ बुदबुदाता रहा, सुबह पांच बजे जब जेलकर्मी उसे जगाने पहुंचे तो वह पहले से जगा हुआ था, हालाकि रात में उसकी पसंद का खाना उसे दिया गया था, लेकिन वो  कुछ भी नहीं खाया, सिर्फ पानी पिया। दूसरे चैनल पर दूसरी एक्सक्लूसिव खबर थी। वहां कहा गया कि फांसी की जानकारी अफजल को भी नहीं दी गई। सुबह पांच बजे उसे जगाकर बताया गया कि तीन घंटे बाद तुम्हें सूली पर लटकाया जाएगा। उससे कहा गया कि जाओ जल्दी स्नान वगैरह करो, इस बीच डाक्टर की टीम वहां पहुंच गई और उसका स्वास्थ्य परीक्षण किया गया। सबकुछ ठीक  पाए जाने पर उसे 7.30 बजे सुबह फांसी के तख्ते पर ले जाया गया और लटका दिया गया। यानि अलग अलग चैनल और उनकी अलग अलग कहानियां चल रहीं थीं।

अच्छा आमतौर पर सभी चैनलों पर सुबह - सुबह साफ्ट स्पोकेन एंकर होते हैं, उन्हें सनसनी टाइप खबरें पढ़नी तो आती नहीं हैं। अब अफजल गुरू की फांसी की खबर को ऐसे तो पढ़ा नहीं जा सकता। लिहाजा एक दो नहीं बल्कि सभी चैनलों ने अपने प्राइम टाइम एंकर को तलब किया और नौ बजे तक चैनलों का टोन बिल्कुल बदल गया। कहीं से नहीं लग रहा था कि हम सुबह का बुलेटिन सुन रहे हैं। सभी जगह करकराती आवाज गूंजने लगी। एक कमी फिर भी सभी चैनल पर दिखाई दे रही थी, किसी भी चैनल ने अब तक कोई लाइन नहीं ली थी। सामान्य तरह से खबरें पढ़ी जा रही थीं, खबर मे तड़का नाम की कोई चीज थी ही नहीं। बीजेपी से शायद सबसे पहले प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढी की नींद खुली, वो कैमरे के सामने आ तो गए, लेकिन समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर कहा क्या जाए। बहरहाल लड़खड़ाती जुबान में उन्होंने कहाकि ये फांसी तो सही है,पर काफी देर से हुई। इसी बीच गुजरात के मुख्यमंत्री का ट्विट आया कि देर आये दुरुस्त आए।

बहरहाल मीडिया पूरे समय गुमराह रही, वो समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे मौके पर क्या किया जाए? वैसे तो मीडिया सरकार के खिलाफ ही खड़ी होती है, तभी उसे गला फाड़ने का मौका मिलता है। अब अगर मीडिया फांसी के खिलाफ लाइन लेती है तो उसे कुछ ऐसे लोगों की भी  जरूरत होगी तो खुलकर अफजल की फांसी का विरोध करें। मानवाधिकार से जुड़े कुछ लोग इसका विरोध कर सकते हैं, लेकिन इतनी सुबह तो उनकी नींद ही नहीं खुली होती है, वो तो आराम से सोते और उठते हैं। हर चैनल से सामाजिक कार्यकर्ताओं के यहां लगातार फोन घुमाया जाने लगा, उन्हें बताया गया कि अफजल गुरू को फांसी दे दी गई है, आपकी लाइन क्या है ? मेरी लाइन क्या है, ये सवाल सुनकर सामाजिक कार्यकर्ता भी हैरान हो गए। दरअसल चैनल को तलाश थी कुछ ऐसे लोगों की जो फांसी का विरोध करें, तभी तो कोई बहस आगे बढ सकती थी। घंटे दो घंटे के बाद विवादित बयान देने वाले दिग्गज कांग्रेसी दिग्विजय से पत्रकारों के हत्थे चढ़ गए, लेकिन उन्होंने भी हाथ जोड़ लिया और सभी  से अपील की कि इस मामले मे राजनीति नहीं की जानी चाहिए, अब क्या, मीडिया का चेहरा उतर गया।

बहरहाल दो तीन घंटे बीते तो मीडिया को दो एक प्वाइंट हाथ लगे। मीडिया ने शोर मचाना शुरू किया कि बताइये ऐसी तानाशाही नहीं देखी गई कि जिसे फासी दी जा रही है उसके घर वालों को सूचना ही नहीं दी गई। ये मसला इशू नहीं बन पाया तब तक गृहमंत्रालय ने साफ कर दिया कि स्पीड पोस्ट से उनके घर वालों को जानकारी गई थी। अब मीडिया ने एक और सवाल खड़ा किया कि फांसी की टाइमिंग को लेकर। कहा गया कि शीतकालीन सत्र शुरू होने के ठीक पहले कसाब को फांसी दी गई और अब संसद के बजट सत्र के पहले अफजल  गुरू को फांसी दे दी गई। अब सबको पता है कि लोकसभा के चुनाव कभी भी हो सकते हैं लिहाजा कांग्रेस ये दिखाना चाहती है कि आतंकवाद से लड़ने के लिए वो कहीं से पीछे नहीं है।

खैर सुबह तक तो सब कुछ ठीक ठाक रहा, शाम होते होते पूरा मामला पटरी से उतर गया। सुबह जो लोग देश को राजनीति से ऊपर बता रहे है शाम होते होते माजरा ही बदल गया। मी़डिया ने भी जिस तरह से रंग बदला, लगा कि ये देश की मीडिया नहीं बल्कि अफजल की मीडिया है। सच बताऊं ऐसे मुद्दे पर जिस तरह से शाम तक कांग्रेस नेताओं ने बोलना शुरू किया, उनकी बातें सुन कर घिन्न आने लगी। सुबह तक जिस तरह से बात हो रही थी, मुझे लग रहा था कि अफजल को फांसी ऐेसे नहीं दी गई है, बल्कि पहले ट्रायल कोर्ट, फिर हाईकोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उसके खिलाफ फैसला सुनाया, इसके बाद राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज की तब जाकर अफजल को फांसी दी गई। लेकिन सच बताऊं कांग्रेस इस मामले को लेकर जिस तरह से सियासी फायदे की बात करने लगी उससे तो यही लगा कि अफजल को फांसी कोर्ट और राष्ट्रपति ने नहीं बल्कि कांग्रेस कोर कमेटी के फैसले के बाद पार्टी के नेता रहे प्रणव मुखर्जी और सुशील कुमार शिंदे ने दी है। खैर इस पर ज्यादा बात इसलिए भी नहीं कि देश का एक हिस्सा सुलग रहा है, कभी विस्तार से बात होगी।





Saturday 2 February 2013

मीडिया : ये कहां आ गए हम !


टीवी चैनलों पर किसी भी विषय पर बहस के दौरान आज कल एक नई बात देखने को मिल रही है। नेता हों, सामाजिक कार्यकर्ता हों या फिर बुद्धिजीवी जब भी वो किसी विषय पर बहस में शामिल होते हैं, तो वो बहुत ही आत्मविश्वास से पत्रकारों को भी अपने गिरेबां में झांकने की नसीहत देते रहते हैं। शुरू में लगता था कि नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं की चोरी पकड़ी गई है तो जाहिर है ये सवालों का सामना नहीं कर सकते। ऐसे में पत्रकारों को भी कठघरे में खड़ा करके मुद्दे को भटकाने की साजिश कर रहे हैं। पर आजकल जिस तरह  पत्रकारों का असली चेहरा सामने आ रहा है, वो निहायत शर्मनाक है। आपको पता ही है कारपोरेट दलाल नीरा राड़िया का जो टेप सामने आया है, उसमें शामिल नाम देखकर तो सच में ऐसा लगा जैसे भरे चौराहे पर मीडिया को नंगा कर दिया गया है। बहरहाल आज चर्चा करूंगा कि कैसे सिर्फ दिल्ली में ही नहीं बल्कि कई और राज्यों बड़ी संख्या में सरकारी आवासों पर पत्रकारों ने कब्जा जमा रखा है। पत्रकार भाई भी ऐसे कि पत्रकारिता छोड़ दी, लेकिन सरकारी आवास छोड़ने को राजी नहीं। बहरहाल मामला सुप्रीम कोर्ट में है, बड़े बड़ों का यहां इलाज हुआ है, अब पत्रकारों का भी हो जाएगा।

आप सबको पता ही है कि टीम अन्ना ने जब दिल्ली में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ सख्त कानून यानि जनलोकपाल के लिए आंदोलन शुरू किया, उस समय मीडिया भी उनके साथ खड़ी हो गई। खबरिया चैनल के एंकर गला फाड़ फाड़ कर भ्रष्ट नेताओं, अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कानून की वकालत करने लगे। मजेदार तो ये शोर मचाने वालों में उन चैनलों के एंकर तो और जोर से चिल्ला रहे थे जिस संस्थान के वरिष्ठ लोग यानि संपादक स्तर के लोगों का नीरा राडिया की टेप में नाम था। हैरानी की बात तो ये है कि इस सूची में शामिल दूसरे पत्रकार टीवी चैनलों पर शाम को लगने वाली चौपाल में गेस्ट बनकर बड़ी बड़ी बातें कर रहे थे। सत्ता की दलाली करने वाले जाने माने और बड़े पत्रकारों का असली चेहरा बहुत भयानक है, फिर भी वो ईमानदारी की ऐसी बातें करते हैं, जैसे सुबह सुबह गंगाजल, दूध और शहद से स्नान करके सीधे स्टूडियो पहुंचे हैं। अच्छा दिल्ली में गैंगरेप जैसा घिनौना कृत्य हुआ, इसकी हम सब जितनी भी निंदा करें कम हैं, पर भाई पत्रकारों को आत्ममंथन करना होगा कि आखिर वो इस मामले में कहां खड़े हैं।

देश की जनता को अभी मीडिया से बहुत उम्मीद है और मीडिया ही अगर खोखली हो गई फिर तो यहां कुछ नहीं बचने वाला है। एक वाकया बताता हूं, मैं इलाहाबाद अमर उजाला से 2005 में दिल्ली आया और यहां IBN7 जिसका उस वक्त CHANNEL 7 नाम था, इससे जुड़ गया। यहां मुझे रेल मंत्रालय की बीट दी गई। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एक सीनियर रेलवे बोर्ड में बड़े पद पर कार्यरत थे। बातचीत के दौरान मैने उनसे कहा कि मुझे उन लोगों के नामों की सूची दीजिए, जो रेलवे से  गलत ढंग से पास बनवा लेते हैं और इसका दुरुपयोग करते हैं। वो हसने लगे कि और कहा कि मैं सूची तो दे दूंगा, पर इसमें आपकी बिरादरी के लोगों के नाम भी शामिल हैं। सच बताऊं ये सूची देखकर मैं हैरान रह गया। इसमें न्यूज चैनल आज तक, एनडीटीवी, जी न्यूज, पीटीआई समेत तमाम लोगों के नाम शामिल थे। अच्छा ऐसा भी नहीं कि सूची में छोटे मोटे पत्रकारों के नाम हों,  अरे भाई संपादक लोग ऐसा काम कर रहे थे। सच कहूं तो उसी दिन समझ गया था कि दिल्ली दिल वालों की नहीं दलालों की है।

आइये अब ताजा मामला बताते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में सरकारी आवासों पर कई साल से गलत ढंग से कब्जा जमाए पत्रकारों को जमकर फटकार लगाई है। बताया गया है कि पत्रकारों को सरकारी आवास आवंटित किए गए थे, पर तमाम लोग पत्रकारिता छोड़ चुके हैं, लेकिन आवास छोड़ने को तैयार नहीं है। मकान खाली कराने के सारे प्रयास अफसर कर चुके हैं, लेकिन वो मकान खाली नहीं करा पाए तो अपनी खाल बचाने के लिए कोर्ट पहुंच गए। बहरहाल कोर्ट में सुनवाई शुरू हो गई है। कोर्ट ने हैरानी जताई है कि इतनी बड़ी संख्या में सरकारी आवासों पर पत्रकार कैसे कब्जा किए हुए हैं। कोर्ट ने कमेंट भी किया है कि पत्रकारों को लोग महान समझते हैं और उनसे सीख लेते हैं। बहरहाल कोर्ट के आदेश पर मकान तो खाली हो ही जाएगा, लेकिन सवाल ये है कि ये मकान अफसर खाली क्यों नहीं करा पाए ? अच्छा जानकारी की तो पता चला कि सरकारी आवासों पर कब्जा करने में सिर्फ दिल्ली के पत्रकार शामिल नहीं हैं, ये बीमारी संक्रामक रोग की तरह देश भर में फैली हुई है।

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में राज्य संपत्ति विभाग ने करीब 53 पत्रकारों को नोटिस जारी किया है. नोटिस में उनसे मकान खाली करने को कहा गया है। अब पत्रकार हैं तो सरकारी चिट्ठी का जवाब क्या देना, वो अफसर से यूं ही बात कर लेंगे। अच्छा अफसर भी भला क्यों बर्रे के छत्ते में हाथ डालें, उन्होंने तो खानापूरी भर के लिए नोटिस दी है। जिन्हें नोटिस भेजा गया है इनमें से कई ऐसे लोग हैं जो पत्रकार नहीं रह गए हैं, किसी अखबार, मैग्जीन या टीवी में कार्यरत नहीं हैं, लखनऊ में रहते भी नहीं हैं. पर इन लोगों से भी सरकार मकान खाली नहीं करा पा रही है। कई पत्रकार तो ऐसे हैं जिन्हें एक या दो साल के लिए मकान आवंटित किया गया था, अवधि पूरी होने के बाद भी वे बिना रिनुवल के मकान में जमे हुए हैं। कुछ लोगों की मान्यता खत्म हो चुकी है पर मकान उन्हीं के कब्जे में है।

मध्यप्रदेश में तो और भी बुरा हाल है। बताया जा रहा है कि यहां पत्रकार मकानों पर तो कब्जा जमाए ही हुए हैं, वो बिजली पानी के बिल का भुगतान भी नहीं कर रहे हैं। तमाम जाने माने पत्रकारों ने सरकारी बंगलों पर अवैध रूप से कब्जा कर रखा है। इन पर किराए का ही 14 करोड़ रुपए बकाया है। अब इस मामले को लेकर एक जनहित याचिका भी हाईकोर्ट की इन्दौर खंडपीठ में दायर की गई है। अच्छा सरकार सख्त हो भी क्यों ना, आपको पता है, भोपाल में अवैध कब्जेदारों और करोड़ो रूपये के सरकारी बकायेदार पत्रकारों की संख्या एक दो नहीं बल्कि 210 है। एक से तीन साल के लिए आवंटित मकानों में कुछ पत्रकार तो पिछले 37 सालों से गलत ढंग से रह रहे हैं। जानकारी के मुताबिक देश में अगर किसी राज्य में सबसे ज्यादा सरकारी मकानों पर पत्रकारों का कब्जा है तो है मध्यप्रदेश।

गुजरात और बिहार में पत्रकारिता दम तोड़ चुकी है। सच कहूं अगर देश में पत्रकारिता का सबसे बुरा हाल कहीं है तो इन्हीं दोनों राज्यों में। इसके लिए जिम्मेदार और कोई नहीं  बल्कि खुद पत्रकार है। जो महज छोटे-छोटे हितों के लिए अपनी कलम और जुबान को गिरवी रखे हुए हैं। अच्छा गुजरात में सिर्फ इतना ही नहीं कि पत्रकार खुद नहीं लिखते, बल्कि दिल्ली या कहीं और से पत्रकार वहां जाते हैं तो वो उन्हें मैनेज भी करते हैं। मसलन सरकार की तारीफ में कसीदें पढ़ते रहते हैं। यहां पत्रकारिता में दलाली किस हद तक है, ये देखकर मैं फक्क पड़ गया। बिहार में बड़ी बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन यहां तो पत्रकारों की हिम्मत नहीं है कि सरकार के खिलाफ कुछ बोल सकें। वो सुविधाभोगी हो चुके हैं, उन्हें लगता है कि चैन से रहो, मीडिया का भगत सिंह बनने की कोई जरूरत नहीं है। आपको याद होगा कि प्रेस काउंसिल के चेयरमैन जस्टिस मार्कडेय काटजू ने बिहार की मीडिया के लिए साफ कह दिया कि यहां पत्रकार आजाद हैं ही नहीं।

धरा बेच देगें, गगन बेच देगें,
नमन बेच देगें, शरम बेच देंगे।
कलम के पुजारी अगर सो गए तो,
वतन के पुजारी वतन बेच देगें। 

लेकिन मैं देख रहा हूं कि पत्रकारों के हाथ में जब तक कलम थी, थोड़ा नियंत्रण था उनमें। लेकिन जब से अखबार और चैनल पेपरलेस, पेनलेस हुए और सभी काम कम्प्यूटर पर होने लगा, मीडियाकर्मियों पर भी बाजारवाद हावी हो गया। सच्चाई ये है कि अब पत्रकारों को कोई "कलम का पुजारी" कहता है तो उन्हें ये गाली लगती है। इस्तेमाल करना भले ना जाने, लेकिन पत्रकारों के हाथ में भी 50 - 60 हजार वाले मंहगे फोन, नोट पैट वगैरह देखना आम बात है। पत्रकारों में बढ़ती बेईमानी और भ्रष्ट आचरण के पीछे यही  रंग बिरंगी और चकाचौंध वाली दुनिया है, जो उनके धैर्य और ईमानदारी की परीक्षा लेती रहती है और बेचारे पत्रकार इसमें फेल हो जाते हैं।

वर्ल्ड फ्रीडम इंडेक्स की  रिपोर्ट ने देश की मीडिया को दुनिया भर में शर्मिंदा किया है। रिपोर्ट में साफ किया गया है कि मीडिया की आजादी के मामले में भारत 140 वें स्थान पर है। पहले ये 131 वें नंबर पर था। दरअसल इसके लिए हम यानि मीडिया तो जिम्मेदार है ही, बेईमान सरकार भी कम दोषी नहीं है। ऐसा नहीं है कि माडियाकर्मियों की काली करतूतें शासन प्रशासन की जानकारी में नहीं है, लेकिन वो खुद इतने भ्रष्ट है कि मीडिया पर हाथ डालने की उनकी हिम्मत नहीं होती। यही वजह है कि मीडिया में एक बड़ा तबका भ्रष्ट होता जा रहा है। मीडिया के तमाम संगठन हैं, लेकिन आज तक कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं हो रही है कि आखिर दुनिया में भारतीय मीडिया की जो छीछालेदर हो रही है, इसे कैसा रोका जाए ? देश में भ्रष्ट नेताओं, बेईमान अफसरों और लालची मीडिया का खतरनाक गठजोड़ बनता जा रहा है, जो देश के भविष्य के लिए बहुत भयावह है।