Sunday 30 September 2012

मीडिया जिम्मेदार कब होगी ?


मैं देख रहा हूं कि आज मीडिया पर लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है। वैसे तो इसकी कई वजह गिनाई जा सकती हैं, लेकिन मेरा मानना है कि अब वक्त आ गया है कि मीडिया भी अपने गिरेबां में झांके, वरना आने वाला कल मीडिया के लिए बहुत खराब खबर लेकर आने वाला है। मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं कि आज मीडिया में बेईमानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। जब भी किसी मामले का खुलासा होता है, तो मीडिया हाउस की भूमिका पर जरूर उंगली उठती है। मसलन नीरा राडिया का टेप आया तो वहां पत्रकार, अमर सिंह का टेप आया तो वहां भी पत्रकार शामिल थे। शर्मनाक बात तो ये है कि चोरी पकड़े जाने के बाद राजनेताओं से इस्तीफा मांगने वाली मीडिया अपने भीतर झांकने को तैयार ही नहीं है। हालत ये है पत्रकारों में बढ़ती बेईमानी की प्रवृत्ति तो मीडिया को कलंकित कर ही रही है, दूसरी ओर हम पूरे दिन अविश्वसनीय लोगों के साथ घिरे हैं, लिहाजा विश्वसनीयता का संकट भी हमारे साथ है।

मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ एक बात कहना चाहता हूं कि टीवी न्यूज चैनलों पर हर विषय पर बहस के कार्यक्रम को तो तुरंत बंद कर दिया जाना चाहिए। मैं देखता हूं कि चैनलों पर हर बात को लेकर बहस होती है। ऐसा हो गया तो बहस, नहीं हुआ तो भी बहस। कहते हैं कि  बहस मुद्दों के लिए होती है, कम से कम बहस करने वाले तो यही कहते हैं। लेकिन मेरा मानना कुछ अलग है। मुझे लगता है कि बहस महज टीआरपी के लिए चल रही है। आप जानते हैं देश में न्यूज चैनल अपनी टीआरपी को लेकर जितना  गंभीर रहते हैं, उससे कहीं ज्यादा राजनीतिक दलों को भी अपनी टीआरपी की फिक्र सताती है। खास बात ये कि इस बहस में जो नेता हिस्सा लेते हैं, वो यहां भले बड़ी बड़ी बातें कर लें, लेकिन सच्चाई ये है कि इनकी अपनी ही पार्टी में दो कौड़ी की औकात नहीं होती। अब तो टीआरपी के लिए कुछ नए प्रयोग भी हो रहे हैं। इस मामले में पाकिस्तानी न्यूज चैनल हमसे ज्यादा आगे की सोचते हैं। बहस के दौरान एक दूसरे की न सुनना और अपनी ही बात झोके रखना तो आम बात है, लेकिन पाकिस्तानी चैनल ने बहस के दौरान कैमरे पर ही गेस्ट के बीच लात जूते करा दिए। बताते हैं कि उस प्रोग्राम की टीआरपी अब तक की सबसे ज्यादा टीआरपी रही है।

सच कहूं तो न्यूज चैनलों के इस प्रोग्राम का कोई मतलब नहीं है, लेकिन चैनलों का इस पर सबसे ज्यादा फोकस रहता है। इसकी एक वजह ये भी है कि सभी चैनलों में बहस वाले प्रोग्राम या तो चैनल के संपादक करते हैं या फिर बहुत सीनियर एंकर को ही ये जिम्मेदारी दी जाती है। यहां आपको बता दूं कि अमेरिका में इसी तरह की बहस वाले प्रोग्राम शुरू हुए तो वहां लोगों ने टीवी को " इडियेट बाक्स " नाम दे दिया। एक ओर यह नाम मज़ाक था तो दूसरी ओर हकीकत। इस हकीकत का सबसे बड़ा सबूत है टीवी पर होने वाली ये बहस। आखिर इडियट बाक्स में बकवास नहीं तो और क्या होगी ? भारत में भी कुछ राजनीतिक टीवी को "बुद्धू बक्सा" बताते हैं। हालाकि वो इसे बुद्धू बक्सा भले कहें, पर यहां अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराने इच्छा रखते हैं। एक सवाल कई बार उठाया जाता है कि आखिर टीवी पर बहस शांत और संयत भाषा में क्यों नहीं हो सकती? कुछ चैनल ऐसा करने की कोशिश करते हैं, लेकिन फिर वही टीआरपी आड़े आ जाती है। इसलिए ऐसी बड़ी बहस में भी तमाशा करना कहीं ना कहीं मीडिया की मजबूरी हो जाती है।

यही वजह है कि आज मीडिया के सामने विश्वसनीयता का संकट है। अब पिछले दिनों हुए अन्ना के आंदोलन को ही ले लीजिए। मैं देख रहा था कि यहां मीडिया या तो चीजों को अतिरंजित करती दिखाई दे रही थी या फिर लोगों को दिगभ्रमित कर रही थी। आंदोलन को बनाए रखने के लिए भीतर की खबरों को छिपाया भी गया। सच्चाई तो ये है कि अन्ना के मामले में मीडिया की भूमिका बहुत बचकानी थी, उसका पूरा नजरिया ही अपरिपक्व और अगंभीर रहा। अन्ना को गाँधी और जेपी बताना मूर्खतापूर्ण नहीं तो और क्या है। दिलचस्प बात तो ये कि अन्ना ने खुद को कभी महात्मा गाँधी नहीं बताया, पर मीडिया अपनी तीसरी नेत्र से देख रही थी, जो अन्ना को गांधी बता रही थी। अब सवाल ये है कि अपरिपक्व मीडिया अगर किसी को गाँधी या जेपी बता दे तो क्या हमें मान लेना चाहिए ? मैं तो कहूंगा बिल्कुल नहीं, पर देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो मीडिया की बात को सच मान लेते हैं और उसी से अपनी राय बनाते हैं।

एक पत्रिका में लेख छपा कि अन्ना के आंदोलन की तरह आजाद भारत में कोई आंदोलन हुआ ही नहीं, यहाँ तक कि जेपी आंदोलन भी नहीं। अब इससे ज्यादा हास्यास्पद बात भला और क्या हो सकती है ? दरअसल आज मीडिया में काम करने वाले ज्यादातर संपादकों-पत्रकारों के पास न तो कोई इतिहास की जानकारी है, न कोई सामाजिक दृष्टि और न ही जिम्मेदारी का अहसास। अगर होता तो वे अन्ना को गाँधी या जेपी नहीं बताते। ये सब देखकर तो यही लगा कि आज की मीडिया न तो गाँधी को जानती हैं और न ही जेपी को। दरअसल आज मीडिया को सब कुछ बेचना है। चैनलों का मूलमंत्र ही यही है कि वही दिखता है जो बिकता है। इसलिए जंतर-मंतर पर अन्ना का आंदोलन उन्हें जेपी आंदोलन की तरह लगा, तो हम भला क्या कह सकते हैं। जिन लोगों ने जेपी आंदोलन में पटना के गाँधी मैदान में भीड़ देखी है, उनसे ही पूछा जाना चाहिए कि जंतर-मंतर पर कितने लोग थे। सब को पता है कि जेपी के समय में मीडिया इतनी ताकतवर और पहुंच वाली भी नहीं थी। आज मीडिया को हर रोज नए दांवपेंच की कहानी चाहिए। यहां तो कहानी पानी के बुलबुले की तरह उठती है और अगले ही पल फुस्स हो जाती है।

कई बार लगता है कि आज मीडिया का फोकस तय नहीं है, उसमें भटकाव की स्थिति है। सच कहूं तो लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ देश के विकास में अपनी भूमिका ही आज तक तय नहीं कर पाया है। उसे लगता है कि उसका काम बस पर्दाफास करने तक सीमित है। भटकाव  की स्थिति का ही नतीजा है कि चैनलों पर अभी अन्ना को दिखाओ, कल आईपीएल, परसों शाही शादी, फिर राहुल का किसान प्रेम। ये सब सिर्फ इसलिए है कि आज मीडिया किसी बात के लिए जवाबदेह नहीं है। जो मीडिया कल तक जनलोकपाल बिल पर अन्ना के आंदोलन को 24 घंटे लाइव कर रहा थी, वही मीडिया शाही शादी दिखाकर अपने औपनिवेशिक मानसिकता का परिचय देती है। मैं देखता हूं हिंदी मीडिया का चरित्र शहर के मध्यम वर्ग तक सीमित है वो इसी पर फोकस रहता है। अगर दिल्ली में अपनी मांग को लेकर किसान और मजदूर आंदोलन करते हैं तो मीडिया आंदोलन की गंभीरता को नहीं दिखाती बल्कि ये बताने की कोशिश करती है कि किसानों मजदूरों के आंदोलन की वजह से दिल्ली में रास्ता जाम। यहां उसे मध्यम वर्ग के लोगों की समस्या "रास्ता जाम" ज्यादा गंभीर लगती है, लेकिन देश के कोने कोने से आए गरीब किसानों की समस्या पर कोई चर्चा नहीं होती। अन्ना के आंदोलन में चूंकि मध्यम वर्ग शामिल था, इसलिए चैनलों की इसमें ज्यादा रुचि थी।

आज मीडिया में शिक्षा के निजीकरण को लेकर बहस नहीं होती है, क्योंकि ये बुनियादी सवाल है, और आज मीडिया बुनियादी सवालों से खुद को दूर रखना चाहती है। मीडिया कलावती की बात करके राहुल गांधी की छवि बनाने का काम तो करती है, पर दिल्ली में  उसी कलावती को राहुल गांधी मिलने का समय नहीं देते हैं, इस पर मीडिया खामोश रह जाती है। इस मीडिया में दलित आदिवासियों के लिए भी कोई जगह नहीं है, लेकिन मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी को लेकर ये मीडिया बहुत संवेदनशील है। बहरहाल मैं ऐसी कोई अजूबी बातें नहीं कर रहा हूं जिसे आप नहीं जानते या मैं या फिर मीडिया घराने को पता नहीं है। सब जानते हैं कि क्या हो रहा है। इसे ठीक करने की जरूरत है, कहीं ऐसा  ना  हो कि  लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ इतना कमजोर हो जाए कि इसकी मौजूदगी या नामौजदगी ही बेमानी हो जाए।